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Monday, June 27, 2011

हौंसलों और मजबूत इरादों ने दी पहचान





सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार रवीश कुमार और विषमताओं में बुलंदियों पर पंहुचने वाली सात विदूषियां सम्‍मानित

उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच के संस्‍थापक और कलम के योद्धा रहे स्‍व0 वेद अग्रवाल की स्‍मृति में दिए जाने वाला साहित्‍य-पत्रकारिता-2011 पुरस्‍कार मेरठ के चैंबर हॉल में सामाजिक सरोकारों से जुड़े जुझारू पत्रकार रवीश कुमार को दिया गया तो उपस्थित लोगों ने करतल ध्‍वनि से उसका स्‍वागत किया। वरिष्‍ठ पत्रकार और भास्‍कर समूह के संपादक श्रवण गर्ग और अप्रतिम कथाकार चित्रा मुदगल के हाथों सम्‍मान लेते रवीश के साथ-साथ ऑडीटोरियम में बैठा जनसमूह अपने को भी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। इस अवसर पर साहित्‍य-पत्रकारिता के साथ अपनी माटी से जुड़ी, हौंसलों और मजबूत इरादों से लबालब ऐसी स्त्रियां भी सम्‍मानित हुईं जिन्‍होंने विषम परिस्थितियों में न केवल एक मुकाम बनाया बल्कि असंभव को संभव कर दिखाया। सजगता व आत्‍मविश्‍वास के बूते जिन्‍होंने अबला से सबला तक का सफर तय किया और अपने सशक्तिकरण के लिए उन्‍होंने न उम्र को आड़े आने दिया और न सामाजिक विषमताओं या परिस्थितियों को बाधा बनने दिया। इस अवसर पर उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच की अध्‍यक्ष डा0 अर्चना जैन, महामंत्री ऋचा जोशी, 'आमीन' के रचयिता आलोक श्रीवास्‍तव और शिक्षाविद डा0 राधा दीक्षित मौजूद थीं।
'मंच' के 26 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जिन सात महिलाओं को 'हिंद प्रभा' सम्‍मान से अलंकृत किया गया उनमें सत्‍तर साल की युवा शूटर प्रकाशो देवी, मंदबुद्धि बच्‍चों के विकास में लगीं प्रमिला बालासुंदरम, सौ से ज्‍यादा महिलाओं को ट्रैक्‍टर चलाना सिखा चुकीं शालिनी, उत्‍तराखंड की संस्‍कृति और कला के उन्‍नयन में जुटीं लोकगायिका बसंती बिष्‍ट, महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाने वाली रेलवे कुली मुंदरा देवी, तीन हजार रूपये से अपना उद्यम शुरु कर बीस देशों तक अपने उत्‍पाद पंहुचाने वाली प्रेरणा और शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाली प्रशासनिक अधिकारी डा0 अमृता सिंह हैं। देश के अलग-अलग हिस्‍सों से आईं इन सात देवियों का जब परिचय पढ़ा गया तो उनकी पृष्‍ठभूमि, संघर्ष, जिजीविषा और उपलब्धियों को सुनकर ऑडीटोरियम में बैठे लोगों ने खड़े होकर करतल ध्‍वनि से उनका अभिवादन किया।
इस मौके पर बोलते हुए भास्‍कर समूह के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि गर्व होता है जब रवीश जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी बेवाक पत्रकार को देखते हैं। उससे भी ज्‍यादा गर्व तब होता है जब प्रकाशो, बालासुंदरम, शालिनी, मुंद्रा या प्रेरणा जैसी महिलाओं का सम्‍मान होता है क्‍योंकि अखबारों और इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में चारों ओर से उनके जलाने, लूटने या इज्‍जत से खिलबाड़ की खबरें आ रही हैं और इन सब के बीच ऐसी महिलाएं एक ताकत बनकर उभरती हैं और हमें बताती है कि अभी सब कुछ खत्‍म नहीं हुआ है और होने भी नहीं दिया जाएगा। उन्‍होंने कहा कि अखबारों में ये खबर तो छपती है कि 'एक किसान मर गया लेकिन ये खबर नहीं छपती वह किसान अपने पीछे एक औरत को भी मरने के लिए छोड़ गया क्‍योंकि औरत तो हर जगह मरती है, चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सांप्रदायिक दंगे या फिर बिगड़ते पर्यावरण के चलते सूखते कुंए या झरने। यदि एक कुंआ सूखता है तो गांव में एक महिला के लिए पीने के पानी की दूरी और बढ़ जाती है। पानी के झरने लगातार सूख रहे हैं लेकिन महिलाओं के आंसू लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उनकी पीठ लगातार कमजोर हो रही है या टूट रही है। उन्‍होंने कहा कि कन्‍या भ्रूण हत्‍या को लेकर जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया भर की संस्‍था हमें बता रही हैं कि हिंदुस्‍तान में महिलाओं की संख्‍या भले ही पुरुषों के आसपास हो लेकिन उच्‍च पदों पर उन्‍नति प्राप्‍त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत दस से बारह के आसपास ही है। उन्‍होंने कहा कि ये सारी परिस्थितियां बताती हैं कि हम जिस तरक्‍की या आर्थिक विकास दर की बात करते हैं वह उन महिलाओं तक नहीं पंहुचा है जो बीस रूपये में अपना घर चला रही है, अपने बच्‍चों को पढ़ा रही है और अंधेरे में अपनी आंखे फोड़ रही है। वरिष्‍ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने कहा कि अल्‍प संसाधनों में अपने बूते काम कर रही उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच समाज के शोषितों, दलितों और पीडि़तों के लिए जिस तरह से काम कर रही है और जमीन से जुड़ी महिलाओं की हौंसलाअफजाई कर रही है वह एक उम्‍मीद पैदा करता है।
लब्‍धप्रतिष्‍ठ कथाशिल्‍पी चित्रा मुदगल ने अपने संबोधन में कहा कि ये महिलाओं की मेहनत का ही नतीजा है कि वह आज अपनी पहचान अपने ही बलबूते पर बनाने में सफल हो रही हैं। उन्‍होंने 'मंच' द्वारा प्रदत्‍त 'हिंद प्रभा' सम्‍मान से अलंकृत महिलाओं के कार्यों और सफलताओं से अभिभूत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी यात्रा में मुश्किलें या रुकावटें न आईं हों लेकिन उन्‍होंने हिम्‍मत नहीं हारी। वह मुश्किलों से जूझी होंगी, टूटी होंगी, हालात पर झल्‍लाई होंगी लेकिन उन्‍होंने हिम्‍मत नहीं हारी और न ही हालात के साथ समझौता किया। इसलिए उन्‍हें सफलता का स्‍वाद चखने को मिला। उन्‍होंने सत्‍तर की उम्र पार कर चुकी प्रकाशो देवी के हौंसले और मेहनत का जिक्र किया जिसने साठ साल की उम्र में चूल्‍हे पर रोटियां सेकने और गोबर पाथने के साथ-साथ हाथों में बंदूक थाम कर निशानेबाजी सीखी और एक ही साल में स्‍टेट के नौ मेडल जीतकर सबको एक बार फिर बताया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आज प्रकाशो की बदौलत न केवल उसके घर की बहु-बेटियां बल्कि बागपत का जौहड़ी गांव अचूक निशानेवाजी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। कथा शिल्‍पी चित्रा मुदगल ने कहा कि आगरा कैंट रेलवे स्‍टेशन की पहली महिला कुली मुंद्रा हो या महिलाओं को ट्रैक्‍टर की स्‍टेयरिंग थमाने वाली शालिनी; इन सभी के भीतर कई कालजयी रचनाएं छिपी हैं और यही हमारे असल आयकॉन होने चाहिएं लेकिन दुर्भाग्‍य से अभी ऐसा नहीं है, पर मन में विश्‍वास है कि एक दिन ऐसा होगा।
सम्‍मान ग्रहण करने के बाद रवीश कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आप सबको ये समझ लेना चाहिए कि 'न्‍यूज' आपके लिए नहीं हैं क्‍योंकि आप दो पैसे भी नहीं देते। टेलीविजन का सारा खेल टीआरपी का है और विज्ञापनदाताओं के लिए है। हम इस तरह से उनके प्रति सम्‍मुख, उन्‍मुख और जिम्‍मेदार बना दिए गए हैं क्‍योंकि चार टीआरपी मीटर वाले बक्‍से जो तय करेंगे वही हम होंगे। इसलिए आप जो हमसे अपेक्षा रखते हैं, कुछ दिन बाद हम वह नहीं रह जाएंगे और कुछ दिन बाद अगर यही हालत रही तो आप लोगों को पत्रकारों को बुलाकर सम्‍मानित करने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी बल्कि चौराहों पर घेरकर पीटने की या फिर गाली देने की नौबत आ जाएगी। उन्‍होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इसके लिए पत्रकारों को ही संघर्ष करना होगा बल्कि इस संस्‍था या इस पेशे को बचाने के लिए जब आप संघर्ष करेंगे तभी ये बच सकेगी क्‍योंकि वोट की जगह इस समस्‍या के निदान का रिमोट भी आपके ही हाथ में है। उन्‍होंने लोगों से कहा कि वह बहुत दिन तक दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकते क्‍योंकि सारा काम या कुकर्म उन्‍हीं के नाम पर यानी दर्शकों की पसंद और नापसंद के नाम पर ये सब किया जा रहा है। अगर दर्शकों ने सक्रियता नहीं दिखाई तो कुछ कॉरपोरेट हाउस इस देश को ऐसा बना देंगे जैसा वह दिखता नहीं है और जैसा वह दिखना नहीं चाहिए।
मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ इतनी भर है कि साथ काम करने वाली कोई स्त्री जैसी लगती है। लड़की जैसी लगती है। उसके मुद्दे, उसके अहसास, उसके अधिकार, ये सब नज़र नहीं आते। न्यूज़ चैनलों में आप लड़कियों की संख्या से खुश होना चाहते हैं या उनके दखल से। प्लास्टिक की गुड़ियाओं की मांग आने वाले दिनों में टीवी में बढ़ेगी। बल्कि अभी भी प्लास्टिक नुमा लड़कियां ही ख़बरें पढ़ रही हैं। फर्क इतना आएगा कि जो पूरी तरह प्लास्टिक और झुर्रियों से मुक्त होगी वही एंकर होगी। मीडिया में स्त्रियों की मौजूदगी स्क्रीन पर है। स्क्रीन के बाहर कुछ अपवादों, कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो कुछ नहीं है। हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं है। इंग्लिश में कुछ महिला पत्रकारों ने वाकई कई धारणाओं,सीमाओं और कई चीजों को तोड़ते हुए जगह बनाई। लेकिन ये जगह बनाने वाली सभी महिलाएं एक खास वर्ग विशेष तबके से आती हैं। किसी बड़े अफसर की बेटी हों, या किसी बड़े संपादक की पत्नी या किसी बड़े कालेज की स्नातक। कहने का मतलब है कि इसकी वजह से उन्हें मौके मिले और इनमें से कई ने उन मौकों का इस्तमाल प्लास्टिक की गुड़िया बनने में नहीं किया बल्कि जगह बनाने में किया। यह बदलाव और ही अच्छा लगता जब इंग्लिश मीडिया में कोई छोटे कस्बे की अंग्रेज़ी बोलने वाली उतने ही प्रयास, उतने ही समय में वैसी जगह बना लेती जो एक खास तबके के महिलाओं ने बनाई। हिन्दी मीडिया में तो इतना भी नहीं हुआ। एक तो पुरुषवादी ढांचे की मज़बूती। दूसरा जूझ कर, टूट कर और फिर उठ कर जगह बनाने की होड़ या भूख कम लोगों में नज़र आई। पेशेवर होने के पैमाने पर भी साबित करने की भूख बढ़ती या कर पातीं, उससे पहले उन्हें स्त्री से भी ज्यादा स्त्री बना कर मेकअप लगाकर स्टुडियो में भेज दिया गया। जहां कठपुतली होना ही नियति है। फिर भी कुछ लड़कियां अच्छा काम कर रही हैं। कुछ यूं ही काम किए जा रही हैं जैसे कुछ लड़के किये जा रहे हैं। यह मेरा नज़रिया नहीं है जो देख रहा हूं अपने पेशे में उसकी लाइव कमेंट्री है। आप चाहें तो आराम से असहमत हो सकते हैं।
समारोह में अनेक विभूतियां मौजूद रहीं। संस्‍था के संपादक स्‍व0 वेद अग्रवाल का परिचय युवा लेखिका/पत्रकार आकांक्षा पारे ने पढ़ा। इस अवसर पर 'वरदा-2011' का विमोचन और वितरण भी हुआ।

सम्‍मानित होने वाली विभूतियां
रवीश कुमार : जो लोग टीवी देखते हैं या ब्लॉग पढ़ते हैं या सामाजिक सरोकारों से सरोकार रखते हैं उनके लिये रवीश कुमार को जानना अनिवार्य मजबूरी है। एनडीटीवी देश के सबसे ब्रान्ड्स में से एक है लेकिन रवीश कुमार ने इस ब्रांड की छाया में ही एक ब्रांड अपना भी बना लिया...रवीश की रिपोर्ट। कुछ लोग इसे मेहनत कह सकते हैं और कुछ सयानापन लेकिन हकीकत ये है कि रवीश की रिपोर्ट..अगर वो बंद नहीं हुई है तो..खूब देखी जाती है और उस पर खूब चर्चा होती है। दिल्ली के पास बसे धारावीनुमा खोड़ा पर प्रोग्राम देखने के बाद उत्तर प्रदेश जैसी सरकार 300 करोड़ का पैकेज दे देती है, खोड़ा के लोग लाइन लगाकर रवीश कुमार का सम्मान करते हैं, पहाड़गंज का प्रोगाम महेश भट्ट मुंबई में मंगवाकर देखते हैं, एक रुपया रोज़ में काम करने वालों की कहानी मोंटेक सिंह आहलुवालिया के दफ्तर में देखी जाती है, और सबके लिये यूनिक आई कार्ड बनाने वाली अथार्टी के मुखिया नंदन निलेकणी किसी से कहलवाते हैं...यार एक प्रोग्राम हमारे लिये आधार पर बना दो। टीआरपी की दौड़ में बने रहते हुए वो देश की, समाज की, लोगों की चिंता कर लेते हैं। जब टीवी चैनल टीआरपी मीटर वाले एपीएल (एबोव पॉवर्टी लाइन) दर्शकों की चिंता करते हैं तब रवीश कुमार बीपीएल पर प्रोग्राम बना देते हैं। मॉल कल्चर वाले दर्शकों को वो निपट देहाती गढ़ मेले के बारे में बताते हैं। जब लोग मेट्रो के गुण गाते हैं तो रवीश कुमार बताते हैं कि डीटीसी कितने कमाल की है। ये किसी पॉज़ीटिव चीज़ को निगेटिव नज़रिये से देखने की कोशिश नहीं, बल्कि निगेटिव में पॉज़टिव ढूंढने की हिमाकत है। सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे जिन विषयों को टीवी में कोई छूने में भी डरता है रवीश कुमार पूरा अभियान चला डालते हैं। रवीश कुमार नई पीढ़ी के पत्रकार हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी सा अनुभव उनकी कलम और चित्रों में दिखता है। दलितों और मुसलिम बिरादरी का हाल रवीश कुमार का प्रिय विषय रहा है, लेकिन आजकल राज तो नौ बजे प्राइम टाइम में वो मिडिल क्लास की मकान की ईएमआई की भी चिंता करते हैं।
टीवी इंडस्ट्री में बहुत बड़े-बड़े किस्सा गो हैं लेकिन रवीश कुमार ने टीवी में किस्सागोई का एक नया अंदाज़ बनाया है। हो सकता है कि बिहार से निकले रवीश कुमार ने दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही बिहार की बहुत सी बातों को भुला दिया होगा लेकिन उनके प्रोग्राम देखकर, उनको पढ़कर और उनसे बातें करते पता चलता है कि उनको अब भी कितना याद है, अपनी भाषा और मिट्टी के बारे में। रवीश कुमार सबसे अलग हैं, अनोखे हैं इसीलिये उत्तर प्रदेश महिला मंच ने उनको अपने संस्‍थापक की स्‍मृति में दिए जाने वाले सम्‍मान के लिए चुना है।

प्रकाशो तोमर : सीखने या पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। यह कहावत बागपत के जौहड़ी गांव की प्रकाशो दादी पर एकदम सटीक उतरती है। साठ साल की उम्र में बंदूकबाजी सीखकर प्रकाशो तोमर ने स्‍टेट लेबल पर जब नौ पदक जीते तब पूरे देश में प्रकाशो का नाम पूरे देश के खेल प्रेमियों की जुबान पर आ गया। उनके गांव में तो एक क्रांति ही आ गई और घर की बेटियों और बहुओं ने भी हाथों में बंदूके थाम लीं। आज प्रकाशो की बेटी सीमा तोमर ही नहीं बल्कि घर में उनके पोते-पोतियां भी राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर धूम मचा रहे हैं और सत्‍तर पार कर चुकी प्रकाशो दादी अब पूरे देश में घूम-घूमकर बेटियों को निशानेबाजी के गुर सिखा रहीं हैं। प्रकाशो को निशानेबाजी का कोई शौक भी नहीं था और न वह इस खेल के बारे में कोई विशेष जानकारी रखती थीं। घर में रोटियां सेकने, गोबर पाथने और खेतों में काम करने वाली प्रकाशो को निशानेबाजी का शौक तब परवान चढ़ा जब जौहड़ी में अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर के निशानेबाज रहे राजपाल सिंह ने घास-फूस की रेंज बनाकर गांव के बच्‍चों को निशानेबाजी सिखाना शुरु किया तो साठ साल की प्रकाशो भी घर से चोरी-छिपे उस रेंज में जाकर निशानेबाजी में अपने हाथ आजमाने लगी। घर वालों को जब पता चला तो उन्‍होंने विरोध भी किया लेकिन प्रकाशो अपनी धुन की पक्‍की थीं। धीरे-धीरे प्रकाशो के बेटे-बेटियां और पोते-पोतियां भी उनका अनुसरण करने लगे।

प्रमिला बालासुंदरम : कर्नाटक की मूल निवासी प्रमिला बालासुंदरम पिछले 32 वर्षों से समाधान नाम की संस्था के माध्यम से मंदबुद्घि बच्चों के विकास के लिए संकल्पबद्घ हैं। अपनी भतीजी की शारीरिक अक्षमता को देखकर वह काफी परेशान रहती थीं और वही उनके सेवा कार्यों की प्रेरणा श्रोत भी बनी और शादी के बाद जब प्रमिला दिल्ली आईं तो उन्होंने देखा कि कोई भी सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों की पंहुच समाज के अंतिम छोर तक नहीं जा पाती। वह शारीरिक तौर पर अक्षम बच्चों को बुद्घि की कसौटी पर बेहतर पातीं लेकिन उनकी शिक्षा या पुनर्वास के कार्यक्रमों की शिथिलता से परेशान रहतीं। यही सब देखते और महसूस करते हुए प्रमिला को लगा कि इस दिशा में ठोस प्रयासों की जरुरत है और उन्होंने समाधान का गठन कर इसका रास्ता तैयार किया। तब से आज तक प्रमिला असहायों को संबल देने और उन्हें दक्ष बनाने में जुटी हैं। 1981 में उनके द्वारा रौंपा गया पौधा आज वटवृक्ष बन चुका है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान है। वर्तमान में वह एशियन फेडरेशन फॉर इंटलेक्चुअली डिसेबिल्ड की उपाध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त ·रने वाली वह पहली महिला हैं। उन्हें अब तक कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्‍कारों से नवाजा जा चुका है।

शालिनी माथुर : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की रहने वाली शालिनी माथुर को लोग ट्रैक्टर चलाने वाली मैडम के नाम से भी जानते हैं। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढाने का संकल्प लेकर शालिनी ने 1991 में पुरुषों का एकाधिकार माने जाने वाले ट्रैक्टर की स्टेयरिंग पर जब महिलाओं को बिठाना शुरु किया तो लिंग आधारित इस प्रभुत्व को पहली बार देश ने टूटते देखा।
53 साल की शालिनी जिस काम में जुट जाती हैं, उसे अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लेती हैं। प्रबंधन में मास्टर डिग्री करने के बाद शालिनी सामाजिक विषमताओं को दूर करने में जुट गईं और 1980 तक विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ उन्होने स्वतंत्र रुप से सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के खिलाफ मोरचा खोले रखा। 1987 में शालिनी सुरक्षा नाम के संगठन से जुड़ीं। महिला अधिकारों के मुद्दों पर जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्धारण तक के मंचों पर शालिनी समान रुप से जूझती हुईं दिखाई देती हैं।

मुंदरा देवी : लोग अपना बोझ नहीं उठा सकते लेकिन मुंदरा महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाती हैं। उन्हें देखकर अक्सर लोग अचरज करने लगते हैं लेकिन जब उन्होंने कुलीगिरी करने का फैंसला लिया तो यह आसान नहीं था। मुंदरा देवी आगरा कैंट रेलवे स्टेशन पर पहली महिला कुली हैं। पुरुषों के एकाधिकार वाले इस क्षेत्र में मुंदरा जब पहली बार लाल वर्दी पहनकर रेलवे स्टेशन पर पंहुची तो लोगों ने उन्हें उपहास की दृष्टि से देखा लेकिन आज उन्होंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से तमाम पुरुषों को पीछे छोड़ रखा है। अक्सर उनके साथ ऐसा होता है कि महिला कुली से सामान ढुलवाने में कुछ मुसाफिर चुप्पी साध जाते हैं लेकिन इनकी हिम्मत, ताकत और फुर्ती का कमाल असमानता की हर खाई को पाट देता है। यूं तो मुंदरा का भरा-पूरा परिवार है लेकिन पति की कमाई इतनी नहीं थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बना पाती और शिक्षा के अभाव में उन्हें अपने लिए कुलीगिरी सबसे उचित लगी और उन्होंने एक दिन कुली का बिल्ला हासिल कर लिया। मुंदरा भले ही लिंग भेद मिटाने के लिए कोई प्रोजेक्ट न चला रही हों या किसी एनजीओ का हिस्सा न हों लेकिन वह खुद में एक ऐसी मिसाल बन गई हैं जिन्हें देखकर कोई भी महिला अपने को सबला समझ सकती है।

बसंती विष्ट : उत्तराखंड की विलुप्त होती संस्कृति को लोक गायिका बसंती विष्ट ने अपने शब्दों में पिरोकर न केवल जिंदा रखा है। बल्कि लोकगायिकी की इस विधा में पुरुषों के एकाधिकार को भी तोड़ा है। गढ़वाल की लोकगायन शैली जागर को बसंती विष्ट ने न केवल नई ऊंचाईया दीं बल्कि सीमांत गांवो तक सिमट कर रह गई इस विधा को जन-जन तक पंहुचाया। गढ़वाल और कुमाऊं की मिलीजुली थाती को संवारने वाली बसंती देवी के सुरों में इतनी मिठास है कि अपने छोटे से क्षेत्र की बोली को अपने गीतों के माध्यम से पूरे राज्य में पहचान दिलाई है। आज देश के संगीत समीक्षक उन्हें उत्तराचंल की तीजन वाई कहते हैं।
बसंती देवी ने अब तक अनेक गीत लिखे हैं और खास बात यह है कि वह स्वरचित गीतों को ही अपना स्वर देती हैं। जागर के अलावा वह मांगल, पाण्डवाणी, लोक गाथाएं एवं गढ़वाली तथा कुमाऊंनी लोकगीतों की भी गायिका हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके द्वारा रचित एक गीत 'वीर नारी आगे बढ़, धीर नारी आगे बढ़' उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के कंठ से हमेशा गूंजता रहता था। कारगिल युद्घ से लेकर सामाजिक विषमताओं तक पर लोकगीत रच कर उन्हें स्वर देने वाली बसंती विष्ट उत्तराखंड की संस्कृति को सहेजने और परंपराओं को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं।

प्रेरणा वर्मा : धुन की धनी प्रेरणा वर्मा ने बचपन से ही उद्यमी होने का सपना संजोया था। लेकिन परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं थीं। उन्हें न तो विरासत में कोई उद्यम मिला था और न इतनी पूंजी कि उससे कोई कारोबार खड़ा हो सके। कानपुर की रहने वाली प्रेरणा मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और उनके पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था। यही कारण था कि इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली और यहीं से उनके मन में अपना उद्यम लगाने का विचार आया। परास्नातक की पढ़ाई पूरी की और कंप्यूटर का प्रशिक्षण लिया और 2004 में मात्र तीन हजार रूपये की पूंजी से अपना कारोबार शुरु किया। यहां से शुरु हुआ प्रेरणा के संघर्ष का सिलसिला। प्रेरणा बाजार में ठगी भी गई और उसे अपना उद्यम एक बार बंद भी करना पड़ा लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और इरादों को हमेशा बुलंद रखा। गुणवत्ता और नेकनीयती को अपना हथियार बनाया और फिर ·भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। धीरे-धीरे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ीं और घरेलू बाजार में पैर जमाने के बाद विदेशी बाजार में अपने पैर जमाने की दिशा में अपने कदम बढ़ाए। आज प्रेरणा वर्मा की औद्योगिक इकाई क्रिएटिव इंडिया बीस देशों में अपने लेदर एवं कॉटन से बने कलात्मक उत्पादों का निर्यात करती है और उनकी सालाना ग्रोथ अस्सी फीसदी तक पंहुच गई है, जो अपने आप में सफलता की कहानी बयां करने के लिए काफी है। उन्हें राज्य सरकार की तरफ से विशिष्ठ उत्पादकता पुरस्कार भी मिला है और आज वह अपनी लगन से नए उचाईयों की तलाश में जुटी हुई हैं।

डा0 अमृता सिंह : यूपी कैडर की पीसीएस अधिकारी डा0 अमृता सिंह ने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से हासिल की। 2001 में पीसीएस में चयन होने के बाद पहली पोस्टिंग में ही एक नहीं तीन जिलों का काम उन्हें सौंपा गया। एक अधिकारी होने के बावजूद इन्हें खुद को अपने शोषण से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो इन्होंने एक उच्चाधिकारी की गलत हरकतों से परेशान होकर नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था लेकिन दूसरे ही क्षण अंतरआत्मा की आवाज पर आरोपी बॉस को सबक सिखाने के लिए जी-जान से जुट गईं। अनेकानेक दवाबों के बाद भी झुकी नहीं। अमृता का मानना है कि महिलाएं यदि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखती हैं तो उन्हें उसी तरह रहना सीखना पड़ता है जैसे बत्तीस दांतो के बीच में जीभ रहती है लेकिन यदि स्त्रियां दृढ़ता और मजबूत इरादों का कवच पहन लें तो संसार का कोई भी पुरुष उनसे मनमर्जी नहीं कर सकता।

Monday, August 9, 2010

कहे पर शर्मिंदा : बहस की अपेक्षा

इर्द-गिर्द पर विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार पर प्रतिक्रिया में मेरा आलेख आपने पढ़ा। लेकिन मैं जरूरी समझती हूं कि इस मामले में विभूति नारायण का स्‍पष्‍टीकरण या अभिमत भी सबके सामने आए। इसी नजरिए से ये पोस्‍ट आपके सामने है।

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक में छपे मेरे इंटरव्यू पर प्रतिक्रियाओं से एक बात स्पष्ट हो गई कि मैंने अपनी लापरवाही से एक गंभीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया। मैंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की
उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।

Friday, August 6, 2010

जिसकी उतर गई लोई, उसका क्‍या करेगा कोई

संदर्भ : विभूति नारायण राय प्रकरण

एक प्रख्‍यात समालोचक ने एक कहानी में कुछ आपत्तिजनक शब्‍दों या यूं कहें कि भद्दी गालियों पर चल रही चर्चा में विराजमान बुद्धिजीवियों के आपत्ति करने पर कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। उनका सवाल था कि आखिर भाषा के कौमार्य को कब तक सुरक्षित रखोगे? और सच यही है कि आज प्रकाशित हो रहीं तमाम कहानी और साहित्‍य पत्रिकाओं में शब्‍दों पर कोई सेंसर नहीं रह गया है। शील-अश्‍लील के मायने और उसके बीच का अंतर भाषा में मिट गया है जबकि भाषाई अखबार शब्‍दों की गरिमा को पूरी शिद्दत से बचाए हुए हैं। ऐसे में साहित्यिक हलकों में या साहित्यिक गिरोहबंदी में 'छिनाल' शब्‍द ने हंगामा बरपा रखा है। हांलाकि ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन हंगामा करने वालों को पहले अपने गिरेवां में भी झांक कर देख लेना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और कृतियां भाषा के स्‍तर पर कितनी पाक-साफ हैं। आईए पहले संदर्भ जाने लें और एक बार फिर उस गंदी नाली में उतरें जहां से तब छींटे आए जब उसमें कंकर फेंका गया। जाहिर है कंकर जैसे पानी में फेंका जाएगा, छींटे भी वैसे ही आएंगे।
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने एक साहित्यिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्‍कार में अपनी राय देते हुए कहा कि 'हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग अपने को छिनाल साबित करने की होड़ में लगा हुआ है और नारीवाद का विमर्श अब बेबफाई के बड़े महोत्‍सव में बदल गया है।' रवींद्र कालिया द्वारा संपादित 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार में 'छिनाल' शब्‍द के प्रयोग से चाय की प्‍याली में उबाल आ गया है। स्‍वाभाविक तौर पर महिला जगत में ही नहीं लेखन जगत में भी विभूति के इस बयान की घोर निंदा हुई है। ये महिलाओं का ही नहीं बल्कि हमारे संविधान का भी उल्‍लंघन है जिसके लिए विभूति नारायण राय को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में स्‍त्री जाति से माफी मांग लेनी चाहिए। हांलाकि विभूति की छवि एक तेज-तर्रार और स्‍पष्‍टवादी पुलिस अफसर की रही है। पुलिस अफसर के रुप में हजारों पीडि़ताओं से उनका वास्‍ता पड़ा होगा लेकिन उनके श्रीमुख से कभी किसी अभद्र टिप्‍पणी का मामला संज्ञान में नहीं आया।..ऐसे में क्‍या ये माना जाए कि साहित्‍य में बेतुके विवाद पैदा कर चर्चा में बने रहने के लिए उन्‍होंने ये टिप्‍पणी कर डाली? अपने सर्जनात्‍मक अवदान के जरिए सम्‍मान अर्जित करने के बजाय दूसरों को आहत करना क्‍या सा‍हसिक माना जा सकता है?
विभूतिनारायण राय खुद चर्चित कथाकार हैं। किसी स्‍त्री के चरित्र हनन के लिए 'छिनाल' शब्‍द का इस्‍तेमाल किया जाता है, इस बात से वे भली-भांति परिचित होंगे ही। एक पढ़े-लिखे आदमी की क्‍या बात, अनपढ़ या देहाती भी इस शब्‍द की ध्‍वनि को अच्‍छी तरह जानता-समझता है। कोई लाख कहे कि ये ओछा शब्‍द नहीं है या उसे गलत परिपेक्ष्‍य में लिया जा रहा है, हम तो यही कहेंगे कि शब्‍दों के जरिए खिलबाड़ नहीं होना चाहिए। वाणी में मधुरता और सौम्‍यता जरूरी है। 'ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को सीतल लगे आपहु सीतल होय'। लेकिन जरूरी है कि विद्वान विभूति ने ऐसे शब्‍द का प्रयोग क्‍यों और किन संदर्भों में किया। इस साक्षात्‍कार में जब एक चर्चित लेखिका और उसके साहित्‍य को केंद्र में रखकर प्रश्‍नकर्ता ने सवाल किया तो उनके श्रीमुख से औचक जो टिप्‍पणी निकली, जो भाव अंदर से अचानक बाहर आए, उसमें विभूति अपने को तथाकथित तौर पर 'सभ्‍य' रखने में नाकाम रहे। एक लेखिका जिसे कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं और साहित्‍य के कई अलंबरदार उसे पलक-पांवड़ों पर बिठाकर सदी की महानतम साहित्‍यकार की स्‍वयंभू घोषणा करते रहते हैं का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय ने कह डाला--मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्‍मकथात्‍मक पुस्‍तक का शीर्षक होना चाहिए था-'कितने बिस्‍तरों में कितनी बार'। हांलाकि विभूति ने उस लेखिका का नाम नहीं लिया लेकिन नाम लिए बगैर भी उसे पूरा साहित्‍य जगत जानता-पहचानता है और ये भी जानता है कि साहित्‍य में उसकी कैसी गिरोहबंदी है। लेकिन इससे विभूति का दोष कम नहीं हो जाता क्‍योंकि प्रतिष्‍ठा के पद पर आसीन व्‍यक्ति को अपने आचरण में हर पहलू और मर्यादा का ध्‍यान रखना चाहिए लेकिन क्‍या साहित्‍य जगत में लेखनी की मर्यादाओं को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर खूली छूट दी जा सकती है? क्‍या साहित्‍य में नैतिक-अनैतिक के कोई मायने नहीं हैं?
अपने को बोल्‍ड साबित करने के लिए लेखक/लेखिकाओं का एक वर्ग विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार करता आ रहा है। आज के उपभोक्‍तावादी, बाजारवादी दौर में साहित्यिक हलकों में भी सनसनी पैदा करने के लिए नंगई पेश की जा रही है। आईए, आपसे साझा करूं आज के दौर की एक नामी-गिरामी लेखिका की कहानी का एक अंश--लेखिका ने अपनी कहानी छुटकारा में अपने पात्र (दलित स्‍त्री) से कुछ यूं कहलवाया---'ओ पतिव्रता की चो$$ पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने उसे रिझाया या कि हमें वह रिझाए जा रहा था। मैं कहती हूं कि क्‍यों बूढ़े की लंगोटिया खोलूं, जे जौहर उमर के लाल्‍लुक सोते हैं आज...हमारा मुंह देखकर अपनी पत्‍नी को त्‍यागे बैठा है और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था...' इस तरह का लेखन कौन से साहस की बात हुई। लेखिका की बोल्‍डनैस स्‍त्री की समस्‍याओं और संघर्षों को लेकर होनी चाहिए।
इसी लेखिका ने अपनी आत्‍मकथा में बताया है कि उनकी मां कस्‍तूरी ग्रामसेविका थी। उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में ही होती थी। पोस्टिंग ऐसी जगह भी हो जाया करती थी जहां स्‍कूल कालेज नहीं होते थे। इसलिए उस जमाने में जब लड़कियों के लिए माध्‍यमिक और उच्‍च शिक्षा ग्रामीण परिवेश में बहुत दुश्‍कर थी। शिक्षा के प्रति जागरूक उनकी मां ने उन्‍हें एक पारिवारिक मित्र के परिवार में छोड़ दिया। विस्‍मय और इससे भी अधिक शर्म की बात है कि इस लेखिका ने बोल्‍ड लेखन के लिए उसमें भी बुराई तलाश ली। अगर मां अपनी बेटी को चिपकाए-चिपकाए घूमती तो शिक्षा में बाधा पंहुचती और वह लेखिका बनने की स्थिति में न होती। पर ये सब सदभावनाएं, दायित्‍व निर्वहन नारी विमर्श की अलंबरदार इस लेखिका के लिए कोई मायने नहीं रखता और वह अपनी आत्‍मथा में अपनी मां पर अनर्गल आरोप गढ़ने से नहीं चूकी कि अपनी निर्विघ्‍न स्‍वतंत्रता के लिए मां ने अपने से अलग कर दिया। ऐसा लेखन पढ़कर कोई यही निष्‍कर्ष निकालेगा कि सचमुच भलाई का जमाना नहीं। चर्चा में बने रहने की आदी ये लेखिका अपने लेखन में स्‍त्री स्‍वातंत्रय की पक्षधर है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्रीनिजता की दुहाई देती है, पर अपनी मां के संदर्भ में इस जीवन की आलोचना करती है। जैसे मां स्‍त्री है ही नहीं। वह यह भी भूल जाती है कि मां ने पढ़ाई के कारण उन्‍हें अलग रखा था। पढ़ाई 'बहाना' नहीं 'कारण' था।
मृत्‍युशैय्या पर माता-पिता को देखकर क्रूर से क्रूर व्‍यक्ति भी दहल जाता है। शायद ही उन पर झुंझलाता हो लेकिन ये लेखिका शायद उस गुणराशि की है जो अकारण मां-बाप पर गुस्‍सा उतारने, उन्‍हें अपमानित करने, उन पर झुंझलाने को भी जुझारुपन, संघर्षशीलता और क्रांति समझती है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्री स्‍वाभिमान और स्‍त्री अधिकार का दंभ भरने वाली स्‍त्री, अन्‍य स्‍त्री; वह भी मां के प्रति कितना क्रूर और संवेदनहीन हो सकी है उसके जीवंत दस्‍तावेज हैं ये प्रसंग जो उसकी आत्‍मकथा का हिस्‍सा हैं। स्‍त्री लेखन के व्‍यापक सरोकारों और स्‍त्री मुक्ति की चिंता या स्‍त्री अस्मिता के प्रति चिंतित लेखिका ने अपनी प्रकाशित आत्‍मकथा में संकेत छिपा है कि 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' आदि प‍त्र-पत्रिकाओं में जो लेखिकाएं छपीं; वे सब संपादकों, उपसंपादकों के सामने बिछकर ही छपीं, सही तो है ही नहीं आपत्तिजनक भी है। ऐसा संकेत कर लेखिका ने 'मेरिट' पर प्रत्‍यक्ष द्वार से रचना छपवाने वाली लेखिकाओं--जिनकी बहुत बड़ी संख्‍या है-- का अपमान ही किया है।
दरअसल वर्तमान साहित्‍य विशेषतौर पर कथा लेखन आजकल कबीलाई या सामंती खेमों में बंटा नजर आता है। इन्‍हीं में से एक साहित्‍य की एक यदुवंशी पाठशाला में स्‍त्री विमर्श की एक ऐसी पौध तैयार की है जो स्‍त्री की गरिमा को ही अपने लेखन में तार-तार करने पर जुटी है। ऐसे में विभूति जैसे लोग कभी शब्‍दों की मर्यादा कायम न रख सकें तो उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार समिति से हटना पड़ता है। कुलपति पद खतरे में आ जाता है। लेकिन उनका क्‍या कर लेगा कोई जिसकी उतर गई लोई।
विशेष : ये लेख अमर उजाला कांपेक्‍ट में आंशिक रूप से प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, February 4, 2009

प्रेम के तमाशे में फंसी औरत

करीब साठ दिन से एक (अ)प्रेम कहानी सुर्खियों में है। मीडिया के लिए मुंबइया फिल्‍मों या एकता कपूर के सीरियलों से भी हिट मसाला। राष्‍ट्र की सबसे गंभीर समस्‍या। जी हां! हरियाणा के दिग्‍गज नेता भजनलाल के साहबजादे और पूर्व उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन के चांद मौहम्‍मद और चंडीगढ़ की एडवोकेट अनुराधा वाली के फिजा बनकर निकाह करने और फिर चांद के छिप जाने से आहत फिजा की दास्‍तान कई हफ्तों से सुर्खियां बनी हुई है। भले ही इस कहानी को चटखारे लेकर परोसा जा रहा हो लेकिन इस प्रसंग ने कई गंभीर सवाल खड़े किए हैं। ऐसे सवाल जो मौकापरस्‍ती के लिए धर्म का ही नहीं बल्कि कानून का भी मजाक उड़ाते हैं और हमारा समाज, धर्म और कानून अभिशप्‍त होकर मूकदर्शक बना रहता है। एक मुद्दा महज चटखारेदार खबर बनकर रह जाता है।
ये कहानी एक ऐसे पुरुष और स्‍त्री की है जो सुसंस्‍कृत परिवार और समाज से हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार हैं। या कहिए कि जरूरत से ज्‍यादा समझदार हैं। इस कहानी का एक पात्र चंद्रमोहन है। हरियाणा के दिग्‍गज राजनेता भजनलाल का पुत्र और सूबे का उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन एक दिन अचानक गायब हो गया। कुर्सी छोड़कर। यहां तक कि अपने बीबी-बच्‍चों को बिलखते हुए छोड़ गया। तलाश हुई लेकिन उसका कहीं पता नहीं चला लेकिन एक दिन वह एक युवती के साथ दुनिया के सामने आया। इस युवती का नाम था अनुराधा वाली। पेशे से एडवोकेट अनुराधा भी गायब थी। लेकिन प्रकट हुए चंद्रमोहन अब चांद मौहम्‍मद बन चुके थे और अनुराधा वाली नए अवतार में फिजां बनकर सामने आई थी। दोनों ने ऐलान किया कि उन्‍होंने निकाह कर लिया है। यानी कानून को धोखा देने के लिए चंद्रमोहन ने धर्म का सहारा लिया और अपनी प्रेयसी का भी धर्म परिवर्तन करा शादी कर ली। दोनों ने हीर-रांझा टाइप प्रेम कहानियों पर बनी मुंबइया फिल्‍मों की तरह डायलोग बोले। चांद मौहम्‍मद बन गए चंद्रमोहन ने कहा कि उनकी दोस्‍ती पुरानी थी और जब प्‍यार में बदली तो उन्‍होंने साथ रहने का फैसला किया क्‍योंकि वह दोनों एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे। फिजा ने चांद को हीरा कहा और दोनों ने एक-दूसरे को तारीफ के चंदन लगाए और साथ जीने-मरने का ऐलान कर दिया।
अगर ये हरकत हमारे देश के किसी आम चेहरे ने की होती तो उसका उपचार समाज और उसके रखवालों ने कर दिया होता। अगर 'रामू' या 'मुन्‍ना' ऐसा करते तो इलाके के दरोगा जी ही चार लाठियों में मामला सुलटा देते लेकिन मामला अपमार्केट था। एक राजघराने से जुड़ा था। लिहाजा कई हफ्तों तक चांद और फिजा के पीछे-पीछे कैमरे चलते रहे। सुर्खिया बनी रही। हर रोज एकता कपूर के सीरियलों जैसा एक नया घटनाक्रम सामने आ जाता। चटखारेदार खबर थी और खबर बिकने वाली थी तो जाहिर था कि कभी चांद बन चुके चंद्रमोहन के बीबी-बच्‍चों को लेकर एक कड़ी बनती और कभी उनके अन्‍य घरवालों की प्रतिक्रियाएं सामने आतीं और खबरची एक से पूछते और दूसरे को बताकर प्रतिक्रिया ले‍ते। कुल मिलाकर चटखारे लिए जाते रहे लेकिन किसी ने गंभीरता से ये सवाल नहीं उठाया कि चंद्रमोहन की ब्‍याहता स्‍त्री और उन बच्‍चों का क्‍या कुसूर था। क्‍या ये उस स्‍त्री और बच्‍चों के प्रति एक तरह की हिंसा नहीं थी। क्‍या धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह इतना आसान है। क्‍या सामाजिक सुरक्षा के ताने-बाने को इस तरह तार-तार किया जा सकता है। क्‍या धर्म परिवर्तन कर लेने से एक व्‍यक्ति अपनी पत्‍नी से मुक्‍त हो सकता है। अगर नहीं तो चांद पर कानूनी शिकंजा क्‍यों नहीं कसा गया?
लेकिन ये कहानी यहीं पर खत्‍म नहीं हुई। चांद फिर गायब हो गया। चांद की फितरत है घटना, बढ़ना और छिप जाना। चंद्रमोहन जिस तरह अपनी पहली बीबी और बच्‍चों को छोड़ कर गायब हुआ था; उसी तरह फिजा को छोड़कर गायब हो गया। अपनी पत्‍नी और बच्‍चों को छोड़कर गायब होने के बाद चंद्रमोहन जब सदेह सामने आया तो चांद बना हुआ था। यानी उसने इस्‍लाम ग्रहण कर लिया था। तब वापस आया चांद अपने साथ फिजा को लेकर अवतरित हुआ था। ये ऐलान करता हुआ कि उसे अनुराधा से बेपनाह मुहब्‍बत है। इतनी मुहब्‍बत कि वह एक-दूसरे के बगैर जिंदा नहीं रह सकते। फिजा को अपना चांद हीरा लग रहा था। ऐसा चांद जिसमें उसे कोई धब्‍बा भी नहीं दिखाई दे रहा था। लेकिन कुछ दिनों बाद ही कृष्‍ण पक्ष आया और चांद एक बार फिर छिप गया। इस बार फिजा बन चुकी अनुराधा की जिंदगी में अमावस्‍या आई।
वजह कुछ भी हो। चाहे लोग ये माने कि उन्‍होंने प्‍यार को बदनाम किया है। बदनाम हुई है तो सिर्फ मौहब्‍बत। या ये माने कि चंद्रमोहन और अनुराधा दोनो ही दोषी हैं। लेकिन कड़वा सच यही है कि दोनों ही परिस्थितियों में अगर कोई ठगा गया है तो वह है औरत। हर हाल में अगर किसी का कुछ छिना है तो वह है स्‍त्रीत्‍व। चंद्रमोहन के गायब होने पर उसकी पत्‍नी और बच्‍चे ठगे गए और चांद मौहम्‍मद के गायब होने पर फिजा। यानी लुटी तो सिर्फ और सिर्फ औरत ही। हो सकता है कि आप कहें या तर्क दें कि अनुराधा वाली तो पढ़ी-लिखी कानून की जानकार औरत थी; ये भी मानें कि उसी की वजह से चंद्रमोहन ने अपनी पत्‍नी को छोड़ा लेकिन सच तो यही है कि एक औरत की आबरू लूट कर उसने दूसरी औरत की आबरू को भी तार-तार किया।
अब मजहब की भी सुनिए। हिंदु मैरिज एक्‍ट के मुताबिक चंद्रमोहन एक पत्‍नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकते थे; इसलिए वह मुसलमान हो गए और अब इस्‍लाम के विद्वान कह रहे हैं कि अगर चांद मौहम्‍मद सार्वजनिक तौर पर यह कह दे कि वह इस्‍लाम धर्म छोड़कर फिर से हिंदु हो गए हैं तो उनका फिजा से निकाह अपने आप टूट जाएगा। और फिजा को इस्‍लाम धर्म में रहते हुए इद्दत करनी पड़ेगी। यानी हर हाल में एक औरत ही ठगी गई और यही सदियों से होता चला आ रहा है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक? कब तक हम कबीलाई समाज की मानसिकता का दामन थामे बैठे रहेंगे? आखिर कब ऐसा होगा जब औरत को इंसाफ के लिए गुहार नहीं लगानी पड़ेगी? क्‍या लगाम सिर्फ औरत के लिए है? आपकी प्रतिक्रियाओं और विचारों का इंतजार रहेगा!

Monday, January 26, 2009

गणतंत्र : घूंघट से निकले एक चेहरे के बहाने

मुझे इस गणतंत्र दिवस पर कई चेहरे याद आ रहे हैं। मेरे मन मस्तिष्‍क में उमड़-घुमड़ रहे हैं। इनमें से कुछ चेहरे देश के हैं, कुछ विदेश के और कुछ मेरे अपने शहर के। इनमें से कुछ आकृतियां मेरी मां जैसी हैं, कुछ बहिनों जैसी, कुछ सखियों जैसी और कुछ अंजान। ये तस्‍वीरें तो अलग-अलग हैं लेकिन इन उमड़ते-घुमड़ते चेहरों को मिलाकर जो आकृति बन रही है, उससे ठिठुरन और सिहरन बढ़ जाती है। मैने गणतंत्र के उनसठ साल तो अपनी आंखों से नहीं देखे लेकिन होशो-हवाश में पच्‍चीस सालों के बीच देखे गए कई चेहरे हैं। इनमें से मैं अपने ही शहर मेरठ के एक चेहरे का जिक्र कर रही हूं जो मेरे दिमाग को सबसे ज्‍यादा झकझोरता है।
ये चेहरा उस युवती का है जिसे मैने करीब बीस साल पहले गज भर घूंघट में चूल्‍हे पर रोटियां सेकते देखा था। टोकरा भर रोटियां सेकती, मुंह में फूंकनी लगाकर चूल्‍हे को हवा देती, चूल्‍हे से निकल रहे धुंए को अपनी आंखों में समाती यह युवती आज खुली हवा में उड़ान भर रही है। उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैने जब पहली बार संगीता राहुल (या कहिए कि उनके पति जगदीश, जो उस समय सभासद थे।) के घर दस्‍तक दी तब संगीता का यही रूप था। मेरे निमंत्रण पर उनके पति ने संगीता को मंच के कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी और धीरे-धीरे उसका घूंघट उठता चला गया। बाद में अपने वार्ड से संगीता सभासद चुनी गई और फिर उसने विधायक का चुनाव भी लड़ा। संगीता एक ऐसा चेहरा है जिसने हमारे साथ अपना सफर शून्‍य से शुरू किया और फिर आगे की गिनतियां गिनने का सिलसिला अनवरत जारी रखा। भले ही संगीता ने अपनी दिशा को राजनीतिक दिशा दे दी हो। महत्‍वाकांक्षाओं के पंख लग गए हों लेकिन फिर भी वह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा चेहरा है जिसने परिस्थितियों की चाहरदीवारी लांघकर उड़ना सीखा, सपने देखे और खुली हवा में सांस ली। मैं सोचती हूं कि आज भी हमारे इर्द-गिर्द की कितनी ऐसी महिलाएं हैं जिनके पति उन्‍हें गज भर घूंघट से निकलने की इजाजत देते हैं। अगर हम मुट्ठी भर शिक्षित परिवारों को छोड़ दें तो आज भी बहुतायत में ऐसी महिलाओं की ही संख्‍या ज्‍यादा है जिन्‍होंने अपने हौंसलों और अरमानों को चाहरदीवारी में कैद कर लिया है या वे इसके लिए अभिशप्‍त हैं। आजाद भारत में आज भी अधिकांश स्त्रियां दासी हैं। सामाजिक ढांचे में उनकी जुबान बंद रहती है और देह व मस्तिष्‍क हमेशा उत्‍पीड़ने के लिए तैयार।
ऐसा नहीं कि महिलाओं के उन्‍नयन के लिए हमारे देश की संसद ने कानून न बनाए हों। कुप्रथाओं व उत्‍पीड़न रोकने के लिए कागजों और किताबों में स्‍त्री सुरक्षा का चेहरा चाक-चौबंद है; पर हकीकत में तमाम कानूनों के बावजूद स्त्रियों को अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। वास्‍तविकता तो ये है कि स्‍त्री सबसे पहले अपने गर्भ में लड़की के लिए जगह ढूंढती है। सामान्‍यत: सब पहले लड़का ही चाहते हैं। अधिकांश घरों में भी तो लड़कों को ही वरीयता मिलती है। मुद्दा चाहे खानपान का हो, रहन-सहन का या शिक्षा का; परिवारों में इस तरह का भेद लड़कियों को मन ही मन छोटा कर देता है। यह विडम्‍बना ही है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्‍थापित किए जाने के बाद भी लड़का या लड़की होना पुरूष के योगदान पर निर्भर करता है, बेटिया पैदा करने के लिए स्‍त्री ही प्रताडि़त होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनियां में अगर न्‍याय का कोई एक विश्‍वव्‍यापी संघर्ष है तो वह नारी के लिए न्‍याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्‍यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है तो वह स्‍त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्‍यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरूष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्‍या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि स्‍त्री की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।
यदि शास्‍त्रार्थ में न जाएं तो इतना बताना जरूरी है कि किसी भी स्‍त्री के व्‍यक्तित्‍व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्‍यता या समाज-व्‍यवस्‍था की कृपा का परिणाम नहीं हैं। उल्‍टे स्‍त्री के स्‍नेहमयी और ममतामयी व्‍यक्तित्‍व का हनन हर सभ्‍यता का सबसे बड़ा खोखलापन है। हर देशकाल में स्‍त्री को नए सिरे से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। स्‍त्री के पास निर्णय लेने की क्षमता न होने की वजह से परिवारों में सारे फैंसले पुरूष ही करते हैं।
स्‍त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। सिर्फ कानूनों के भरोसे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्‍यादा है।
मेरा यह लेख दैनिक आई नेक्‍स्‍ट में प्रकाशित हुआ है।

Saturday, January 17, 2009

एक और दामिनी

दामिनी सिर्फ मुंबईया फिल्‍म की एक पात्र ही नहीं बल्कि आज के समाज की कड़वी हकीकत है। ऐसी ही एक गैंग रेप की शिकार युवती एक बार फिर अपने ससुरालियों से छली गई। इस दामिनी के ससुरालियों ने उसकी अस्‍मत लूटने वालों से ही सत्‍तरह लाख रूपये में अस्‍मत का सौदा कर लिया। अब मेरठ की ये दामिनी दोराहे पर खड़ी है और अपनी अस्‍मत लूटने वालों को हर हालत में कानून से सजा दिलाना चा‍हती है। उसने ससुराल की दहलीज लांघ दी है और इंसाफ के लिए हुक्‍मरानों की दहलीज पर फरियाद की है। देखना है कि इस दामिनी को इंसाफ मिलता है या ये व्‍यवस्‍था के नक्‍कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है।
गैंग रेप की शिकार एक युवती की बेबसी अब आंखों से झर-झर बहने लगी है। ये वही युवती है जिसके साथ करीब दो साल पहले मेरठ के एक नामी-गिरामी नर्सिंग होम में सामुहिक दुराचार हुआ था। जिस नर्सिंग होम में वह अपनी जीवन रक्षा के लिए आईसीयू में भर्ती थी, वहीं के रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत को तार-तार कर दिया था। इस घटना से गुस्‍साई जनता ने नर्सिंग होम में जमकर उत्‍पात मचाया था और बाद में नर्सिंग होम सील कर दिया गया था। तब से आज तक ये युवती इंसाफ के लिए लड़ रही है लेकिन अब फिर एक बार ये छली गई है। तब रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत तार-तार की थी और अब इस युवती के उन अपनों ने इसकी अस्‍मत का सौदा किया है जो इसे अपनी बहु बनाकर ले गए थे। फर्क इतना है कि जीवन रक्षकों को इस युवती की अस्‍मत लूटने के लिए नशे का इंजेक्‍शन देना पड़ा था और ससुरालियों ने इसके होशोहवास में इसकी अस्‍मत की कीमत लगाई सत्‍तरह लाख रूपये। जी हां! सत्‍तरह लाख रूपये में दुराचारियों से अपनी गृहलक्ष्‍मी की अस्‍मत का सौदा करने वाले पति परमेश्‍वर और ससुरालिए इस युवती को घर से इसलिए धक्‍का दे चुके हैं क्‍योंकि ये हर हाल में दुराचारियों को सलाखों के पीछे देखना चाहती है।
नर्सिंग होम की शिकार युवती और उसके परिजनों को क्‍या मालूम था कि जो परिवार इस हादसे के बाद देवतुल्‍य होकर आएगा, वही बाद में पिशाच यौनि में तब्‍दील होकर सामने खड़ा मिलेगा। निधि की शादी हापुड़ के शैलजा बिहार के सुमित से बीती 15 फरवरी को हुई थी और शादी के वक्‍त दूल्‍हे राजा ने वचन दिया था कि कभी भी वह निधि को उस हादसे की याद नहीं दिलाएगा। कभी उसे प्रताडि़त नहीं करेगा लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उसे जलील किया जाने लगा। उस पर दबाव बनाया जाने लगा कि वह मायके से पांच लाख रूपये लेकर आए जबकि निधि के घरवालों ने शादी में अपनी हैसियत से अधिक दस लाख रूपया खर्च किया था। इसी बीच सुमित और उसके घरवालों ने निधि के दुराचारियों से सत्‍तरह लाख रूपये में उसकी अस्‍मत का सौदा कर लिया और निधि से दुराचारियों को अदालत में क्‍लीन चिट देने को कहा तो वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। दुराचारियों के बाद अपने ही ससुरालियों के अत्‍याचारों की शिकार युवती अब दुराचारियों के साथ-साथ अत्‍याचारी पति और ससुरालियों के खिलाफ भी उठ खड़ी हुई है। उसने मेरठ के आला अफसरों के यहां गुहार लगाकर इंसाफ दिलाने की मांग की है। फिलहाल निधि के चार दुराचारियों में से दो जेल में है जबकि षड्यंत्र में शामिल दो लोगों को जमानत मिल गई है और अदालत में निधि के बयान हो चुके हैं। देखना है कि इतने दबावों के बीच निधि की जंग का क्‍या परिणाम निकलता है और आला अफसरों के सामने लगाई गई गुहार आरोपियों और ससुरालियों पर कितनी लगाम लगा पाती है।

Wednesday, January 7, 2009

......ये रंगभेद से कम तो नहीं

''छि:! अंग्रेजी भी नहीं आती'' शीर्षक से लिखी गई पोस्‍ट पर पक्ष/विपक्ष में प्रतिक्रिया देने वाले अपने सभी साथियों/आगंतुकों का मैं सबसे पहले आभार व्‍यक्‍त करना चाहती हूं। इर्द-गिर्द पर मैने अंग्रेजी में सवाल पूछकर भाषा के नाम पर शर्मसार कर देनी वाले विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के उस दल की मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया जो आजाद भारत में भी हिंदी को हिकारत की नजर से देखती है। अगर आप किसी को राष्‍ट्रभाषा/राजभाषा/मातृभाषा के नाम पर दुतकारते हो तो मेरी नजर में ये भी रंगभेद जैसा ही अपराध है। ऐसा अपराध तब और भी गंभीर हो जाता है जब आप हुकूमत के नशे में जानबूझकर कर रहे हों। विश्‍वविद्यालय की टीम मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में इसलिए समीक्षा करने आई थी क्‍योंकि ग्‍यारहवीं योजना में चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय ने अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों को विस्‍तार देने के लिए आयोग से अनुदान मांगा है। इसी प्रक्रिया में आयोग ने अपने विशेष निरीक्षण दल को मेरठ विश्‍वविद्यालय भेजा था जिसकी अगुवाई गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी कर रही थीं। इसी निरीक्षण के पहले दिन चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग यानी पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की क्‍लास में छात्र/छात्राओं से सवाल पूछे लेकिन अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को छात्र समझ ही नहीं सके तो जबाव क्‍या देते। इस पर प्रोफेसर बनर्जी विफर पड़ीं-"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए।''
इस पोस्‍ट पर मुझे कई टिप्‍पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्‍पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्‍ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्‍की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्‍यक्तिगत मानना है कि राष्‍ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्‍य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्‍छा हो सीखिए। ....क्‍योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्‍पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्‍पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्‍योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्‍या लिखूं। उन्‍होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्‍पणी पर क्‍या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्‍या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्‍पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्‍या हिंदी में राजनीतिशास्‍त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्‍यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्‍होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्‍साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्‍कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्‍मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्‍या गुप्‍ता की आभारी हूं जिन्‍होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्‍तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्‍केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।

Sunday, January 4, 2009

छि: ! अंग्रेजी भी नहीं आती

"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग में। ये जुमले फेंककर शर्मिंदा करने का नेतृत्‍व कर रहीं थीं गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी जो एक तरह से महारानी की भूमिका में थीं। जी हां! प्रोफेसर बनर्जी विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के उस दल की अगुवाई कर रहीं थीं जो खैरात के लिए चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के निरीक्षण को आया था। अब आप ही बताइए कि जिस दल की रिपोर्ट पर करोड़ों रूपयों का खेल हो तो उसकी अगुवाई करने वाली विदुषी महारानी विक्‍टोरिया जैसा व्‍यवहार क्‍यों न करे।
आईए पहले आपको ये बता दें कि विश्‍वविद्यालय की टीम चौधरी चरण सिंह यूनीवर्सिटी क्‍यों पंहुची। ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की टीम तीन दिवसीय निरीक्षण के लिए आई। चौधरी चरण सिंह विश्‍विविद्यालयय प्रशासन ने इस योजना में विश्‍वविद्यालय का कायाकल्‍प करने के लिए करीब पौने तीन सौ करोड़ की योजना यूजीसी के पास स्‍वीकृति के लिए भेजी थी। प्रस्‍ताव के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में चार नई शोध पीठ स्‍थापित करने, ई-गवर्नेंस, शिक्षकों की संख्‍या में कमी, वैज्ञानिक शिक्षा और अकादमिक स्‍टाफ की नियुक्ति जैसी योजनाओं के लिए धन की आवश्‍यकता बताई गई थी। इन्‍हीं प्रस्‍तावों और यूनीवर्सिटी की वर्तमान प्रगति आंकने के लिए यूजीसी की टीम तीन दिन के लिए पंहुची और उसने पहले ही दिन विश्‍वविद्यालय के अठारह विभागों का दौरा किया। वैसे दो दिनों में नौ सदस्‍यीय दल को केवल सात घंटे खर्च कर विश्‍वविद्यालय का हालचाल जानना था। आप समझ सकते हैं कि एक विश्‍‍वविद्यालय का सात घंटे में क्‍या और कैसे आंकलन हो सकता है।
परम्‍परा के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के कुलपति और उनके सहयोगी पंद्रह दिन तक यूजीसी के आकाओं के स्‍वागत की तैयारी में जुटे रहे। एक-एक विभाग को चमकाया गया। अधिकाधिक उपस्थिति के लिए गुहार की गई। सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद की गईं। लंच-डिनर और नाश्‍ते के लिए लजीज पकवानों की सूची तैयार की गई। ऐसे स्‍वागत-सत्‍कार की तैयारी कि आने वाले राजाओं की टोली खुश होकर आशीर्वाद दे दे और विश्‍वविद्यालय को अनुदान मिलने का रास्‍ता साफ हो जाए। हांलाकि ये सब शिक्षा की दशा-दिशा सुधारने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों का हिस्‍सा है और ये योजनाएं अगर साकार होती है तो इससे उच्‍च शिक्षा को ही लाभ होना है लेकिन विश्‍वविद्यालय के कुलपति के लिए तो ये बिल्‍कुल वैसा ही समझिए कि मानों कोई पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए वर पक्ष के लोगों के आगमन पर किसी भी स्‍तर पर कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।
इतनी सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद करने वाला विश्‍वविद्यालय प्रशासन क्‍या करता। उसे क्‍या मालूम था कि आजाद भारत की हिंदी वेल्‍ट में आजादी के इकसठ सालों बाद भी फिरंगियों की भाषा उन्‍हें इस कदर अपमानित कराएगी! वह कर भी क्‍या सकते थे? पंद्रह दिन में पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के छात्रों को अंगेजी की घुट्टी घोलकर उन्‍हें देसी अंग्रेजों के काबिल बनाना मुमकिन भी न था। अब प्रोफेसर बनर्जी को कौन समझाए कि चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में जिस जमीन से छात्र आते हैं वहां गन्‍ने और गुड़ की खुशबु से राजनीति उपजती है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में अधिकांश छात्र पोलिटिकल साइंस नहीं बल्कि राजनीति शास्‍त्र पढ़ते हैं। यहां के सरकारी स्‍कूलों में प्राइमरी तक अंग्रेजी की एबीसीडी भी नहीं पढ़ाई जाती। जहां बच्‍चा पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में हल या ट्रैक्‍टर चलाना भी सीखता है। अगर ग्रामीण पृष्‍ठभूमि के ऐसे बच्‍चे अपनी लगन पर उच्‍च शिक्षा के लिए विश्‍वविद्यालय की शक्‍ल भी देख लेते हैं तो ये उनकी जीवटता है और चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के ज्‍यादातर छात्र ग्रामीण पृष्‍ठभूमि से ही निकल कर वहां तक पंहुचे हैं। ऐसे में उनसे ऐसी भाषा में सवाल पूछना जिसे वह समझते ही नहीं, कहां तक न्‍यायसंगत है? क्‍या ये देश का संविधान कहता है कि एमए पोलिटिकल साइंस को राजनीतिशास्‍त्र कहना गुनाह है? क्‍या राजनीतिशास्‍त्र हिंदी में नहीं पढ़ा-समझा जा सकता? क्‍या हिंदी अभी भी गुलामों की भाषा है? क्‍या राष्‍ट्रभाषा हमारे आधुनिक राजाओं से इसी तरह अपमानित होती रहेगी? क्‍या राजनीति का ककहरा भी अब एबीसीडी में सीखना होगा? क्‍या हम इसी तरह से मा‍नसिक गुलामियत में जीवन जीने को अभिशप्‍त रहेंगे? आशा है कि अंतर्जाल पर हिंदी का चिट्ठाजगत ही इन गुलाम मानसिकता वाले आधुनिक राजाओं को जबाव देगा।

Monday, December 29, 2008

प्यार ने ढहाई मजहब की दीवार

मेरठ में एक प्रेम दीवानी खालिदा से पूजा हो गई। अपना प्‍यार पाने के लिए उसने मजहब की दीवारें गिरा दीं। अपने पड़ोसी राजदीप के सामने वाली खिड़की में रहने वाली खालिदा जब राजेश के दिल में बसी; उसे चांद का टुकड़ा लगी तो दोनों ने मिलन के बीच आने वाली हर दीवार को गिराने का फैसला किया। राजदीप अपना धर्म छोड़कर मुस्लिम धर्म अपनाने को तैयार था लेकिन खालिदा ने पूजा बनकर मजहब की दीवार गिराई और विधिवत विवाह कर लिया। लेकिन अब ये विवाह दोनों की जान की मुसीबत बन गया है।इस प्रेमी युगल को देखकर हर कोई यही कहेगा कि रब ने बनाई जोड़ी..... लेकिन ये जोड़ी अब जान बचाती हुई घूम रही है। युवती के घरवालों ने पहले तो अपनी बेटी को नाबालिग बताते हुए युवक और उसके घरवालों के खिलाफ अपहरण की नामजद रिपोर्ट दर्ज कराई लेकिन जब युवती ही अपने घरवालों के खिलाफ हाईकोर्ट में बोल गई तो जमानत मिलने से बौखलाए युवती के घरवाले दोनों को जान से मारने की धमकियां दे रहे हैं। मेरठ के शास्‍त्री नगर इलाके के रहने वाले राजदीप और खालिदा के प्‍यार की सजा राजदीप के परिवार को भी भुगतनी पड़ रही है। इसी मामले में अपहरण के आरोप में जमानत पर जेल से छूटकर आए राजदीप के माता-पिता कहते हैं कि यदि उनके उत्‍पीड़न का सिलसिला नहीं रुका तो वे अपनी जान दे देंगे।राजदीप चौधरी चरणसिंह यूनीवर्सिटी के सर छोटूराम इंजीनियरिंग कालेज से बीटेक की पढ़ाई कर रहा है और खालिदा ने इंटरमीडिएट किया है। दोनों पड़ोसी हैं और जवानी की दहलीज पर पैर रखते-रखते दोनों की आंखे चार हुईं। पींगे बढ़ने लगीं और दोनों एक दूसरे को दिलोजान से चाहने लगे। दोनों जानते थे कि उनके मौहब्‍बत को मंजिल मिलना आसान नहीं हैं क्‍योंकि दोनों के बीच मजहब की दीवार थी। दोनों जानते थे कि उनके घरवाले इस रिश्‍ते के लिए तैयार न होंगे लेकिन राजदीप ने अपने घरवालों को तैयार कर लिया। राजदीप हर हाल में अपनी मोहब्‍बत को हासिल करना चाहता था और यही हाल खालिदा का भी था। इसी बीच राजदीप ने खालिदा से कहा कि यदि उसके घरवाले निकाह को तैयार हों तो वह धर्म परिवर्तन करने को तैयार है लेकिन खालिदा अपने घरवालों को जानती थी लिहाजा उसने कहा कि वह राजदीप को अपना शौहर बनाना चाहती है इसलिए ये काम वह करेगी।....और एक दिन दोनों अपने-अपने घरों की दहलीज से निकलकर विवाह के बंधन में बंधने के लिए चले गए। खालिदा ने मजहब की दीवार तोड़ी और वह खालिदा से पूजा बन गई और फिर विधिवत तरीके से दोनों विवाह के बंधन में बंध गए। उनके प्रेम को मुकाम मिल गया लेकिन इसके साथ ही दोनों पर टूटना शुरू हुआ मुसीबतों का पहाड़।राजदीप के प्रेम को तो उसके परिवार ने सहमति दे दी थी लेकिन खालिदा के घरवाले इसे पचा नहीं पाए। उसके व‍कील पिता ने काला कोट पहनकर सीधे-सीधे अपनी बेटी को नाबालिग बताते हुए अपनी बेटी के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करा दी। रिपोर्ट में सिर्फ राजदीप को नहीं बल्कि उसके माता पिता और बड़े भाई को भी नामजद किया। राजदीप और पूजा बनी खालिदा तो पुलिस के हत्‍थे नहीं चढ़े लेकिन पुलिस ने राजदीप के माता-पिता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। अपने सास-ससुर को जेल भेजे जाने की खबर मिलने पर पूजा उर्फ खालिदा हाइकोर्ट की शरण में पंहुची और अपने बालिग होने के प्रमाणपत्र के साथ अपनी मर्जी से विवाह करने का शपथ पत्र दिया लिहाजा उसके सास-ससुर को जमानत मिली और कानून की नजर में फरार राजदीप और उसके भाई की गिरफ्तारी पर उच्‍च न्‍यायालय ने रोक लगा दी।भले ही राजदीप की गिरफ्तारी पर रोक लग गई हो और उसके माता-पिता को जमानत मिल गई हो लेकिन अभी उनके सामने खड़ा मुसीबतों का पहाड़ कम नहीं हुआ है। पूजा उर्फ खालिदा के पिता ने दोनों का जीना हराम कर रखा है और प्रेमी युगल को हर तरह से भुगत लेने की धमकियां मिल रहीं हैं। प्रेमी युगल ने मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है और पूजा बनी खालिदा राष्‍ट्रीय महिला आयोग से गुहार लगाने की तैयारी कर रही है। देखना है कि इन प्रेम पुजारियों को अभी कितनी मुसीबतें झेलने को मिलती हैं।
अब आप बताइए कि खालिदा और राजदीप का ये कदम ठीक था या नहीं? अगर आप ठीक मानते हैं तो ये भी सुझाव दीजिए कि वह अपनी जान कैसे बचाएं।

Saturday, November 15, 2008

पाँच रुपये की शादी

आजकल डेंगू और शादियों की बहार है। मेरे जैसे तमाम लोग या तो मच्‍छरों के सताए हुए हैं या दावतें उड़ा रहे हैं। इन दिनों या तो डाक्‍टरों के यहां भीड़ है या विवाह मंडपों और फार्म हाउसों में जहां डीजे पर लोग थिरक रहें हैं और तेज आवाज पूरे शरीर में कंपन पैदा कर रही है। गाना बज रहा है- तेनू दूल्‍हा किसने बनाया भूतनी के... हम भी बिस्‍तर से आजाद हो गए हैं और सामाजिक प्राणी कहलाये जाने की लालसा में दावते उड़ा रहे हैं। ऐसी ही एक शादी का जिक्र ब्‍लाग जगत के लिए-




कहते हैं कि आम हिंदुस्‍तानी जीवन में सबसे ज्‍यादा धन या तो मकान बनाने में खर्च करता है या शादी में। शादियां आमतौर पर दो सितारों का मिलन नहीं बल्कि स्‍टेटस सिंबल ज्‍यादा होती हैं। गरीब हो या अमीर, राजा हो या रंक; सभी अपनी हैसियत बनाने और दिखाने में नहीं चूकते। फकीरों की नुमाइंदगी करने वाले आधुनिक महाराजा हों या वजीर या फिर हर काल में राज करने वाले सेठों की शादियां हमेशा चर्चा में रहती हैं। ऐसी ही एक शादी में जाना हुआ तो सोचा कि ब्‍यौरा अपने ब्‍लाग साथियों से भी शेयर कर लिया जाए। ये शादी थी महात्‍मा टिकैत के घर में। जी हां! नंगे पैर घूमकर हुक्‍का गुड़गुड़ाते हुए किसान आंदोलन चलाने वाले उत्‍तर भारत के सबसे दमदार किसान नेता को लोग महात्‍मा टिकैत या बाबा‍ टिकैत के नाम से ही जानते हैं। किसानों के हित में शासन से सीधी टक्‍कर लेने वाले किसान नेता चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत के घर उनकी पोती की शादी थी उनके गांव सिसौली में। गन्‍ना बाउल मुजफ्फरनगर के गांव सिसौली में इस शादी को देखकर आंखे चुंधिया रही थी।

अपनी सादगी के लिए मशहूर इस किसान नेता की शादी में पचास हजार से ज्‍यादा मेहमान आए। मेहनतकश किसानों की नुमाइंदगी करने वाले बाबा टिकैत के परिवार में इस शाही शादी का अंदाजा आप मेहमानों की संख्‍या से भी लगा सकते हैं। करीब एक बीघा जमीन में अतिथियों के लिए स्‍वरुचि भोज का आयोजन किया गया था और इस पंडाल में ऐसा कोई शाकाहारी व्‍यंजन अनुपलब्‍ध नहीं था जिसमें आपकी रुचि हो। करीब एक हजार कारीगर एक हफ्ते पहले से मेहमानों के लिए पकवान और मिष्‍ठान तैयार करने में जुटे हुए थे। दूध, जलेबी से लेकर बंगाली मिठाइयों और व्‍यंजनों की महक पूरे पंडाल में बिखरी हुई थी। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के तमाम हैसियतदार लोग फास्‍ट फूड से लेकर देसी जायकों का चटखारा ले रहे थे। उत्‍तर से लेकर दक्षिण तक के व्‍यंजन विशाल पंडाल में लगी मेजों पर शाही दावत का हिस्‍सा थे।

दूल्‍हा राजा दिल्‍ली में डाक्‍टर हैं। बारात कारों से आई लेकिन दूल्‍हे राजा के लिए हेलीकॉप्‍टर बुक था। बुरा हो मौसम का जो उड़ान संभव न हो सकी तो दूल्‍हा को भी कार से आना पड़ा। कार तो कार है लेकिन लक्‍जीरियस विदेशी कार हो तो उसकी शान समाज में अलग ही होती है। दूल्‍हा राजा कार से गांव पंहुचे और विवाह स्‍थल तक उन्‍हें ट्रैक्‍टर पर बिठा कर लाया गया। आखिर किसानों के म‍सीहा के यहां शादी थी तो ट्रैक्‍टर प्रेम कैसे छूटता। विदाई के समय हेलीकॉप्‍टर आ गया। गांव में ही हेलीपेड बनबाया गया था। दुल्‍हन का ख्‍वाब था कि उसके सपनों का राजकुमार उसे आसमान में उड़ा कर ले जाए लेकिन तब तक मीडिया वाले बाबा से शादी की फिजूलखर्ची पर कुछ सवाल पूछ चुके थे। मीडिया से भी किसी की खुशी बरदाश्‍त नहीं होती! लिहाजा चौधरी टिकैत ने दूल्‍हे से कह दिया कि लड़की तो सुबह ही विदा होगी। दुल्‍हन तो नहीं उड़ पाई लेकिन दूल्‍हा पक्ष के निकटतम परिजन हेलीकॉप्‍टर से वापस हो गए।

अब हम बताते हैं कि मीडिया ने टिकैत पर क्‍या सवाल दागे। पत्रकारों ने पूछा कि शादी में कितने लोग आए तो टिकैत ने कहा कि मैने तो अभी तक सिर्फ दूल्‍हे को देखा है। जब उनसे पूछा गया कि पचास हजार लोगों के भोज का आयोजन किसके लिए था और कौन लोग शामिल हुए तो बाबा टिकैत मासूमियत से बोले कि सभी घर के लोग हैं। कितना खर्च हुआ? किसान नेता का जबाव था कि पांच रूपये की शादी है। कोई दिखावा नहीं। सादगी के साथ। इसके बाद जब उन्‍हें याद दिलाया कि आपने किसानों की पंचायत कर ये फैंसला लिया था कि शादी में कोई दिखावा नहीं होगा, पंद्रह लोगों से ज्‍यादा की बारात नहीं होगी और सादा भोजन कराया जाएगा, तब ये हेलीकॉप्‍टर और दिखावा क्‍यों हुआ? बड़ी मासूमियत से महात्‍मा जी बोले कि भई कहां आया हेलीकॉप्‍टर, मुझे तो मालूम नहीं....मैं तो यहां से कहीं निकला नहीं....और मेहमानों की आवभगत तो गांव वाले कर रहे हैं।

ये तो एक बानगी है। देश में रोज शादियां होती हैं और कुछ अपवादों को छोड़कर राजा से लेकर रंक तक सभी अपनी हैसियत के मुताबिक या हैसियत से ज्‍यादा खर्च करते हैं। हम भी उन समारोह का हिस्‍सा बनते हैं। क्‍या कभी हमें ये सब अखरता है। यदि अखरता है तो शुरुआत तो खुद से ही करनी होगी। अगर ये शुरूआत चौधरी टिकैत ने की होती तो इसका व्‍यापक असर होता क्‍योंकि वह उत्‍तर भारत में किसानों के सबसे बड़े अलंबरदार हैं।

Sunday, October 5, 2008

कहां तक जाएंगे हम

ये कविता मैने करीब बीस साल पहले तब लिखी थी जब मेरठ दंगों की आग में झुलस रहा था। तब से अब तक मैने कई मेरठ झुलसते देखे हैं। गोलियां और मारक हुई हैं और बमों के फटने का सिलसिला थम नहीं रहा है। इस कविता में मैने जो सवाल बीस साल पहले उठाए थे वह आज और भयावह हो गए हैं। उम्‍मीद है आप इस कविता को गुनेंगे और मेरे दुख में शरीक होंगे।


कर्फ्यू, गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
आंचल में खून मां के
अश्‍कों से आंख है नम
कहां तक पाएंगे गम
कहां तक जाएंगे हम

कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम

ये किताबें, ये धर्मस्‍थल
सब हो रहें हैं मक़त़ल
लिखें आदमी की किस्‍मत
कानून और राइफल
सबकी निगाह में दौलत
और बारूद पे कदम

कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम

खेतों और खलिहानों में
सुरक्षा नहीं मकानों में
देश कहां है, पता नहीं
सब कुछ बंद बयानों में
रोजी रोटी सुख और गम
राजा रानी आप और हम

कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम

Saturday, September 13, 2008

...भाषा पुल बने!

भाषा पुल है
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी

Thursday, August 14, 2008

हम कैसे होंगे कामयाब!

हम आज गदगद हैं। हो भी क्यों नहीं हमारा एक लाल ओलम्पिक में सोना जीत कर आया है लेकिन क्या हमने सोचा है कि एक सदी में हम एक ही अभिनव क्यों पैदा कर पाए। कमी हमारे लालों में नहीं बल्कि उस व्यवस्था में है, जो ऐसे लालों को उभरने से पहले ही निपटा देती है। अभिनव की कामयाबी के ठीक अड़तालीस घंटे बाद ऋचा जोशी रू-ब-रू हुईं एक ऐसी ही प्रतिभा की दास्तान से।
11 अगस्त 2008। भारतीय खेलों के इतिहास का एक ऐतिहासिक दिन...भारत को अभिनव कामयाबी मिली। अभिनव बिंद्रा ने एयर रायफल में गोल्ड मेडल जीता। ओलम्पिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतकर अपने नाम को सार्थक कर दिया। ओलम्पिक के एक सौ आठ साल के इतिहास में भारत के खाते में यह पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक केवल जश्न मनाने का नहीं हमारी समूची नीति पर विचार करने का भी अवसर है। आखिर क्यों एक व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए एक सौ आठ वर्ष तक इंतजार करना पड़ा।
ओलम्पिक विश्व भर में खेलों का महाकुंभ है और उसमें स्वर्ण पदक जीतना किसी भी खिलाड़ी का सपना होता है। इस सपने को साकार करने के लिए खिलाड़ी को पूरे संयम और एकाग्रता से जुटे रहना होता है। अभिनव बिंद्रा ने खुद कहा कि मैं इतिहास की चिंता नहीं कर रहा था बल्कि सिर्फ आक्रामक प्रदर्शन करके अच्छा स्कोर बनाना चाहता था और मैने ऐसा ही किया। बिंद्रा की यह प्रतिक्रिया और भरोसा भारत में समूचे खेल परिदृश्य के लिए एक सबक होना चाहिए। अभिनव बिंद्रा के अचूक निशाने ने भारतीय खेलों में सोए पड़े उत्साह को जगाने की भरपूर कोशिश की है। पर भारत में खेल और खिलाड़ियों को लेकर जो रवैया आमतौर पर रहा है उसमें परिवर्तन की उम्मीद यकायक नजर नहीं आती। यदि ऐसा होता तो जब पूरा देश रोमांच, गर्व और खुशी का अनुभव कर रहा था तो निशानेबाजी की ही एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को स्कूल से बेदखल न किया जाता। बरसों से कड़ी मेहनत कर सौ से ज्यादा मैडल हासिल कर चुकी मेरठ की इस महिला खिलाड़ी को अपने स्कूल के होम एक्जामिनेशन में कंपार्टमेंट लाने पर यह खामियाजा भुगतना पड़ा। स्कूल मैनेजमेंट का तर्क एक बार को तो सही लगा कि खेलने का मतलब यह नहीं कि पढ़ाई की तरफ ध्यान ही न दिया जाए लेकिन दूसरे ही क्षण जब मैने मेरठ के इस नामी-गिरामी कान्वेंट स्कूल के संचालक को इस महिला खिलाड़ी की उपलब्धियों की ओर ध्यान दिलाया तो वे बोले.."अजी नाम में क्या रखा है। जितनी बार बाहर खेलने जाती है, स्कूल फंड से इसका खर्चा देना पड़ता है।" स्कूल फंड से पैसा इस महिला खिलाड़ी की प्रतिभा को तराशने में न लगाना पड़े, सिर्फ इस वजह से स्कूल ने इस प्लेयर को पढ़ाई में फिसड्डी बताते हुए स्कूल से आउट कर दिया।
स्कूल का यह रवैया इस खिलाड़ी को हतोत्साहित करने वाला भी हो सकता है। हो सकता है कि वह इसे एक चैलेंज के रूप में स्वीकार करे और आने वाले ओलम्पिक तक एक वंडरगर्ल के रूप में उभर कर आए। स्कूल प्रबंधन द्वारा अपमानित किए जाने पर बच्ची के पिता की यह कसक कि अब मैं इसे खेल में ही अपनी पूरी ताकत से स्थापित करके दिखाउंगा, उस बच्ची के कैरियर का टर्निंग प्वाइंट भी हो सकती है। मैं सोच रही हूं कि यदि ऐसा हो गया तो सबसे पहले स्कूल ही अपनी कमर ठोकता हुआ नजर आएगा कि उसने एक ऐसी प्रतिभा देश को दी जिसने इतिहास रचा। और इसी स्कूल का मैनेजमेंट बढ़चढ़ कर बता रहा होगा कि सान्या (प्लेयर) वाज रियली जीनियस एंड वेरी मच फोकस्ड फार स्टडीज। जी हां, यही होता है। मलाई पर अपना हक जताने के लिए सब आगे आ जाते हैं और संघर्ष के दौर में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की भ्रूण हत्या कर दी जाती है।
परिवार में संसाधनों की कमी, स्कूलों और सरकारी-गैरसरकारी संगठनों का असहयोग और खेल मैदानों में रचे जाने वाले षड्यंत्रों की वजह से ही आबादी के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश एक सौ आठ वर्षों में एक व्यक्तिगत गोल्ड मेडल हासिल कर पाता है। एक अरब आबादी वाले देश के लिए यह ठीक नहीं कि वह ओलम्पिक खेलों में एक-दो पदक हासिल करके संतुष्ट हो जाए। सच तो यह है कि खिलाड़ी और उनके परिजन मुकाम तक पंहुचने के लिए डेडीकेटेड न हों तो इक्का-दुक्का खिलाड़ी भी उपलब्धियों के नजदीक न पंहुच पाएं।
इस देश में प्रतिभा या क्षमता की कमी नहीं है। कमी सिर्फ उन्हें पहचानने और निखारने के लिए अनुकूल माहौल देने की है। हमारे देश का युवा वर्ग जीत में यकीन रखता है, किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। अपने जुनून के बूते अभिनव बिंद्रा जैसे यूथ आइकन सामने आ रहे हैं। सबको मिलकर यह कोशिश करनी चाहिए कि सभी के प्रयासों से अभिनव जैसा करिश्मा करने वाले खिलाड़ियों की कतार खड़ी हो। टीवी चैनलों पर देश का नाम रोशन करने वाले प्लेयर्स के स्कूल-कालेज और देश के कर्णधार सीना चौड़ा कर कितना भी खुश हो लें पर सभी जानते हैं कि उनका किस स्तर पर कितना योगदान होता है। अगर होता तो पहले व्यक्तिगत ओलम्पिक स्वर्ण के लिए भारत को सौ साल से भी ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता।
मैं इंडिया की यूथ जो टैलेन्टेड, कानफिडेंट और जीत में यकीन रखती है, जिसकी डिक्शनरी में इंपोसिबल शब्द है ही नहीं, को प्रणाम करती हूं।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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