देश में सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत को सात साल पूरे होने को हैं। अभियान की सफलता का श्रेय लेने के लिए केंद्र-राज्य सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरकारे डंका पीट-पीट कर बता रही हैं कि अब 14 साल तक हर बच्चा स्कूल में है। पर, उत्तराखंड में सर्वशिक्षा अभियान के बारे में अचानक एक ऐसा कड़वा सच सामने आ गया कि जिसे स्वीकार करना आसान कतई नहीं है। यह 'सच' अनायास ही उस वक्त सामने आया जब उत्तराखंड की सरकार यह पता लगाने चली कि सरकारी स्कूलों से कितने मास्साब गायब हैं। मास्टर गायब मले तो उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो गई, जो दूसरा सच उजागर हुआ उससे भौचक्की है।
पता ये चला कि कागजों में जो पंजीकरण दिखाया गया स्कूलों में वे बच्चे हैं ही नहीं। प्रदेश भर में औसत मिसिंग 20 प्रतिशत मानी गई। आंकड़े डरावने हैं क्योंकि यह मिसिंग राजधानी दून में 60 प्रतिशत और हरिद्वार जैसे संपन्न जिले में 50 प्रतिशत है। तीसरे मैदानी जिले उधमसिंह नगर में भी 25 प्रतिशत बच्चे नहीं हैं। प्रदेश में एक महीने से इन बच्चों की तलाश हो रही है, लेकिन ये नहीं मिले। सरकार भी परोक्ष तौर पर ये मान चुकी है कि नहीं मिलेंगे, क्योंकि संख्या बढ़ाने के लिए इनकी आड़ में करोड़ों का भ्रष्टाचार कर फर्जीवाड़ा हुआ है।
इस स्थिति के साथ कई गंभीर बातें जुड़ी हैं। कक्षा आठ तक के स्कूलों में 19 लाख बच्चों के आंकड़े के दम पर उत्तराखंड सरकार शिक्षा के क्षेत्र में दक्षिण भारत की बराबरी का दावा कर रही है। यदि स्कूलों में 20 प्रतिशत यानी करीब पौने चार लाख बच्चे फर्जी हैं, तो इससे साफ है कि असली बच्चे स्कूलों के बाहर हैं और वे अनपढ़ हैं। इसके साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि जिस अभियान को आगामी मार्च में शत-प्रतिशत सफल घोषित किया जाना था वह पौने चार लाख फर्जी बच्चों के साल किस आधार पर सफल कहलाएगा?
एक अन्य सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का फर्जी पंजीकरण कैसे हुआ। दरअसल, धांधली पंजीकरण में दोहराव के जरिए हुई। एक बच्चे को अलग-अलग नामों से प्राइवेट स्कूलों, मदरसों, आंगनबाड़ी में पंजीकृत किया गया। इसके पीछे मकसद इन छात्रों के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति, मिड डे मील, ड्रेस, कॉपी-किताबों की धनराशि हड़पने का था। इन बच्चों को उत्तराखंड सरकार एक साल में 34 करोड़ की छात्रवृत्ति बांटती है और 20 प्रतिशत छात्र फर्जी होने के नाम पर सरकार को 7 करोड़ रूपये का चूना लगाया गया। इसी तरह किताबों के सेट तथा मिड डे मील की व्यवस्था पर सरकार द्वारा रोज ढाई रूपया प्रति बच्चा खर्च किया जाता है। पता ये चला कि पूरे साल में मिड डे मील में करीब 16-17 करोड़ रूपये का फर्जीवाड़ा हुआ। वजीफे, मिड डे मील और किताबें, तीनों मदों की यह राशि हर साल 28-30 करोड़ हो रही है यानी सात साल के अभियान में 2 अरब का घोटाला। अकेले उत्तराखंड के संदर्भ में यह राशि 200 करोड़ पंहुच रही है तो एक पल के लिए सोचिए कि पूरे देश के मामले में यह घोटाला कितना बड़ा होगा?
चूंकि यह सारी पड़ताल उत्तराखंड सरकार ने खुद कराई इसलिए इसे यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह विश्वसनीय नहीं है। अगर उत्तराखंड में इस अभियान की सफलता का सच इतना कड़वा है, तो देश के बाकी राज्यों खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में स्थिति क्या होगी; इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इन राज्यों में तो सरकारी अमला इस कदर हावी होता है कि वहां सरकारी अभियान सिर्फ कागज का पेट भरने के लिए चलते हैं। सवाल यह भी है कि क्या उत्तराखंड क पड़ोसी राज्यों हिमाचल, यूपी, हरियाणा, जम्मू एंड कश्मीर में ऐसा नहीं हुआ होगा? यदि दूसरे राज्यों में भी यही प्रतिशत दोहराया गया हो (जिसकी पूरी आशंका है) तो क्या सर्वशिक्षा अभियान को सफल मान लिया जाना चाहिए? उत्तराखंड का उदाहरण किसी न किसी स्तर पर इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि एसएसए के समापन से पहले देशभर में छात्रों की वास्तविक स्थिति की जांच हो। आखिर फर्जी आंकड़ों से तो देश की नई पीढ़ी का भला नहीं हो सकता।
यह सामान्य मामला इसलिए नहीं है क्योंकि यह सीधे तौर पर नई पीढ़ी के साथ धोखा है। उनके भविष्य के साथ खिलबाड़ है। जिन शिक्षकों पर देश की नई पीढ़ी को गढ़ने-संवारने, देश को योग्य नागरिक देने का जिम्मा है यदि वे फर्जी छात्रों की आड़ में वजीफे की राशि, मिड डे मील, किताबों के सैट और छात्रों के काम आने वाली अन्य शैक्षिक सामग्री को ठिकाने लगें, तो सोचिए आम लोगों का भरोसा किस कदर टूटेगा। उत्तराखंड के उदाहरण से कम से कम इस बात का साफतौर पर पता चलता है कि इस सारे मामले में शिक्षकों की संलिप्तता है। आपराधिक इसलिए कि उन्होंने सरकारी पैसों की उन बच्चों पर खर्च दिखाया जो वास्तव में थे ही नहीं। ये साफ है कि उत्तराखंड के 25 हजार सरकारी स्कूलों में से ज्यादातर के हेडमास्टर इस घोटाले का हिस्सा रहे हैं। अब जाने-अनजाने उत्तराखंड ने तो इस काम को पूरा कर लिया, यदि दूसरे राज्य या केंद्र सरकार भी जाग जाए, तो शायद उन करोड़ों बच्चों का भला हो जाएगा, जो अब भी अनपढ़ हैं, स्कूल के बाहर हैं।
पता ये चला कि कागजों में जो पंजीकरण दिखाया गया स्कूलों में वे बच्चे हैं ही नहीं। प्रदेश भर में औसत मिसिंग 20 प्रतिशत मानी गई। आंकड़े डरावने हैं क्योंकि यह मिसिंग राजधानी दून में 60 प्रतिशत और हरिद्वार जैसे संपन्न जिले में 50 प्रतिशत है। तीसरे मैदानी जिले उधमसिंह नगर में भी 25 प्रतिशत बच्चे नहीं हैं। प्रदेश में एक महीने से इन बच्चों की तलाश हो रही है, लेकिन ये नहीं मिले। सरकार भी परोक्ष तौर पर ये मान चुकी है कि नहीं मिलेंगे, क्योंकि संख्या बढ़ाने के लिए इनकी आड़ में करोड़ों का भ्रष्टाचार कर फर्जीवाड़ा हुआ है।
इस स्थिति के साथ कई गंभीर बातें जुड़ी हैं। कक्षा आठ तक के स्कूलों में 19 लाख बच्चों के आंकड़े के दम पर उत्तराखंड सरकार शिक्षा के क्षेत्र में दक्षिण भारत की बराबरी का दावा कर रही है। यदि स्कूलों में 20 प्रतिशत यानी करीब पौने चार लाख बच्चे फर्जी हैं, तो इससे साफ है कि असली बच्चे स्कूलों के बाहर हैं और वे अनपढ़ हैं। इसके साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि जिस अभियान को आगामी मार्च में शत-प्रतिशत सफल घोषित किया जाना था वह पौने चार लाख फर्जी बच्चों के साल किस आधार पर सफल कहलाएगा?
एक अन्य सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का फर्जी पंजीकरण कैसे हुआ। दरअसल, धांधली पंजीकरण में दोहराव के जरिए हुई। एक बच्चे को अलग-अलग नामों से प्राइवेट स्कूलों, मदरसों, आंगनबाड़ी में पंजीकृत किया गया। इसके पीछे मकसद इन छात्रों के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति, मिड डे मील, ड्रेस, कॉपी-किताबों की धनराशि हड़पने का था। इन बच्चों को उत्तराखंड सरकार एक साल में 34 करोड़ की छात्रवृत्ति बांटती है और 20 प्रतिशत छात्र फर्जी होने के नाम पर सरकार को 7 करोड़ रूपये का चूना लगाया गया। इसी तरह किताबों के सेट तथा मिड डे मील की व्यवस्था पर सरकार द्वारा रोज ढाई रूपया प्रति बच्चा खर्च किया जाता है। पता ये चला कि पूरे साल में मिड डे मील में करीब 16-17 करोड़ रूपये का फर्जीवाड़ा हुआ। वजीफे, मिड डे मील और किताबें, तीनों मदों की यह राशि हर साल 28-30 करोड़ हो रही है यानी सात साल के अभियान में 2 अरब का घोटाला। अकेले उत्तराखंड के संदर्भ में यह राशि 200 करोड़ पंहुच रही है तो एक पल के लिए सोचिए कि पूरे देश के मामले में यह घोटाला कितना बड़ा होगा?
चूंकि यह सारी पड़ताल उत्तराखंड सरकार ने खुद कराई इसलिए इसे यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह विश्वसनीय नहीं है। अगर उत्तराखंड में इस अभियान की सफलता का सच इतना कड़वा है, तो देश के बाकी राज्यों खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में स्थिति क्या होगी; इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इन राज्यों में तो सरकारी अमला इस कदर हावी होता है कि वहां सरकारी अभियान सिर्फ कागज का पेट भरने के लिए चलते हैं। सवाल यह भी है कि क्या उत्तराखंड क पड़ोसी राज्यों हिमाचल, यूपी, हरियाणा, जम्मू एंड कश्मीर में ऐसा नहीं हुआ होगा? यदि दूसरे राज्यों में भी यही प्रतिशत दोहराया गया हो (जिसकी पूरी आशंका है) तो क्या सर्वशिक्षा अभियान को सफल मान लिया जाना चाहिए? उत्तराखंड का उदाहरण किसी न किसी स्तर पर इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि एसएसए के समापन से पहले देशभर में छात्रों की वास्तविक स्थिति की जांच हो। आखिर फर्जी आंकड़ों से तो देश की नई पीढ़ी का भला नहीं हो सकता।
यह सामान्य मामला इसलिए नहीं है क्योंकि यह सीधे तौर पर नई पीढ़ी के साथ धोखा है। उनके भविष्य के साथ खिलबाड़ है। जिन शिक्षकों पर देश की नई पीढ़ी को गढ़ने-संवारने, देश को योग्य नागरिक देने का जिम्मा है यदि वे फर्जी छात्रों की आड़ में वजीफे की राशि, मिड डे मील, किताबों के सैट और छात्रों के काम आने वाली अन्य शैक्षिक सामग्री को ठिकाने लगें, तो सोचिए आम लोगों का भरोसा किस कदर टूटेगा। उत्तराखंड के उदाहरण से कम से कम इस बात का साफतौर पर पता चलता है कि इस सारे मामले में शिक्षकों की संलिप्तता है। आपराधिक इसलिए कि उन्होंने सरकारी पैसों की उन बच्चों पर खर्च दिखाया जो वास्तव में थे ही नहीं। ये साफ है कि उत्तराखंड के 25 हजार सरकारी स्कूलों में से ज्यादातर के हेडमास्टर इस घोटाले का हिस्सा रहे हैं। अब जाने-अनजाने उत्तराखंड ने तो इस काम को पूरा कर लिया, यदि दूसरे राज्य या केंद्र सरकार भी जाग जाए, तो शायद उन करोड़ों बच्चों का भला हो जाएगा, जो अब भी अनपढ़ हैं, स्कूल के बाहर हैं।
22 comments:
पहले मां-बाप के बाद मास्साब का ही नंबर आता था लेकिन आजकल मास्साब ऐसे-ऐसे काम कर रहे हैं कि बस पूछिये मत। वैसे मेरा मानना है कि मास्साब मजबूर हैं। शिक्षा विभाग के कांइया बाबू और अफसर मिलकर मास्साब और स्कूलों के प्रबंधन को इतना मजबूर कर देते हैं कि कोई रास्ता उनके सामने नहीं बचता है। ये जो डरावने सच सामने आ रहे हैं वो शिक्षा और शिक्षकों के इसी गिरते स्तर का नतीजा हैं। जब तक शिक्षा विभाग का हल नहीं सुधरेगा हालात नहीं सुधरेंगे। सच रोज़ ब रोज़ और डरावना होता जायेगा।
सब आँकडों का खेल है.
मन दुख क्षोभ और क्रोध से भर जाता है कि किस कदर हमारे देश को ये भ्रश्टाचार खोखला कर रहा है। जब तक हम लोग नहीं सुधरते तब तक कोई सरकार कुछ नहीं कर सकती। लोग ये नहीं सोचते कि जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं । आपका आलेख आंम्खें खोल देने के लिये काफी है धन्यवाद्
इस मै मास्टरो का कोई भी कसुर नही लगता, उपर वाले मंत्री से ले कर संतत्री तक लिप्त होगे, लेकिन फ़ंसे गे गरीब ही.... क्या होगा इस देश का जहां ऎसे ऎसे कमीने अफ़सर ओर नेता हो गे... राम राम राम
अफसोसजनक है
शि़क्षा एक बहुत ही संवेदनशील विषय है लेकिन अब शिक्षा भी राजनीति से अछूति नही है. शिक्षक भी केवल खाना पूर्ति मे लगे हुये है खास कर दूर दराज गांवो मे. सरकारो को तो बस कागज़ी कारवाई से मतलब है. हमारे इस ढांचे मे कई सुधारो की आवश्यक्ता है..ये लोग नींद से कब जागेगे पता नही लेकिन उठाने के अन्य तरीके भी हम सभी को मिलकर ढूढने होंगे..
बहुत दुख हुआ यह सब जानकर ..दुखद है.
रामराम.
कटु यथार्थ को उजागर करने के लिये साधुवाद।
kis kis ko dosh denge,hum logo ki hi ye galti hai, gussa aata hai dukh hota hai lekin pata nahi karte kyo nahi,,ye ek aisa sawal hai jiska ans pata nahi kab milega. hum logo ko khilate hai, fir apne us kaam ki bharpayi hum dusro se lekar kar lete hai. kyo??
सर्व शिक्षा अभियान मास्साबों ने नहीं चलाया और न ही उस पर खर्च होने वाली रकम सीधे उनको मिलती है। जहाँ करोड़ों-अरबों का बजट हो, वहाँ नौकरशाह क्या-क्या खेल खेलते हैं, उस ओर आपने ध्यान नहीं दिया। मास्साब तो ऐसा पुर्जा हैं जो अपने रजिस्टर में फर्जीवाड़ा नहीं करते तो नौकरशाहों की कलम से रगड़े जाते और अब क्योंकि फर्जीवाड़ा किया है इसलिए उनकी कलम से रगड़े जाएँगे। नौकरशाह साफ-सफ्फाक रहते हैं। वे मोटी रकम डकारते हैं और फर्जीवाड़ा करने वालों को सूली पर चढ़ाने की वकालत करते हैं, बल्कि चढ़ा ही देते हैं। ये न कभी फँसे हैं, न कभी फँसेंगे। फँसने, बदनाम होने और गालियाँ खाने के लिए हमेशा निचला स्टाफ होता है, जो अपने परिवार को पालने की खातिर इनके भयावह आदेशों को मानने के लिए विवश रहता है।
हमारे देश के प्रगति की भी यही कहानी है बड़ी ही विद्रूप स्थिति का जायजा मिला. आभार तो नहीं कहूँगा.
एक सच यह भी है ...
सादर प्रणाम .. सर ये तो एक बानगी है इस तरह की जो भी सरकारी योजनायें चल रही है अमूमन सभी में ये धांधली है तभी तो आप देखें न कि इस में लिप्त लोग किस तरह बंगला-कोठी वाले हो गए ..... आप कहीं भी देखें खास तौर पर वे परियोजनाएं जो गाँव में चल रही हैं वहां सब माल पहुँचने से पहले ही शहर में बेच दिया जाता है चाहे वो राशन हो, दवाइयाँ हो,या फिर ... Read Moreये स्कुल वाला मामला हो ....मुझे लगता है उत्तराखंड सरकार ने अपने गले में गलती से ये मरा हुआ सांप डाल लिया है अब बचने के लिए देखिये क्या तिकड़म लडाई जायेगी .... इस राष्ट्र कि विडम्बना यही है कि कतिपय लोग अधिकाँश लोगों के हिस्से को हड़प जाते हैं और उन्हें सजा भी नहीं मिलती ... अब नया नारा आ जो गया है जियो और जीने दो कि जगह खाओ और खाने दो ... विरोध करेंगे तो कुचल दिए जायेंगे इसलिए न चाहते हुए भी बर्दाश्त करना पड़ रहा है ... उत्तराखंड सरकार को भी बधाई .. गलती से ही सही एक कटु सच सामने आ गया है तो इसका इलाज भी ठीक-ठाक होना चाहिए.... इन हरामखोरों के हलक में हाथ डाल कर सब उगलवाना चाहिए और सरे आम इन्हें चौराहे पर सजा दी जाए .... आखिर किसी के भविष्य को खा जाने से बढ़कर और कौन बड़ा पाप होगा....
सरकारी भ्रष्टाचार को लेकर बहुत बातें होती हैं ... कोई कहता है विडंबना, कोई तक़दीर का खेल, और कोई सिर्फ अफ़सोस कर रह जाते हैं ... परन्तु क्या कोई जन आन्दोलन चला .. कहीं विद्रोह हुआ ... कहीं किसी भ्रष्टाचारी को कड़ा दंड मिला ... हमारी स्थिति कुत्तों की तरह है भौंकेंगे जरुर पर जैसे ही टुकडा डाल दिया गया मुंह बंद .. गाँव की घटना है पुराणी मेरे राशन कार्ड पर सिर्फ मिटटी का तेल दिया गया पर साथ में चीनी भी चढा दी गई ५ किलो मैंने इसका विरोध किया तो रात को राशन वाला घर आ गया और कहा जो चाहिए घर पहुँच जाएगा पर इस लड़के को मत भेजा करो इसकी देखा देखि दस और आदमी लड़ने आ गए मुझे बुजुर्गों ने समझाया तुम्हारा काम हो गया वो दुनिया को लुटता है लूटने दो पर मैं नहीं माना.. बाद में मुझे खिताब मिला ये चार दर्जे पढ़ गया तो ज्यादा कानूनची हो गया इसे नहीं पता राशन का आधा माल तो जिला स्तर पर ही बेच देते हैं हमसे यहाँ पूरा कराया जाता है .... सर्व शिक्षा अभियान से जुड़े मेरे कई मित्र हैं वे सच जानते है पर बोलने से कतराते हैं क्योंकि अगर वे नहीं करेंगे तो मैं या मेरे जैसा कोई और करेगा .. मित्रों क्या बेहतर नहीं होगा एक जंग का एलान .. किसी न किसी रूप में हम सभी इससे पीड़ित हैं एक कुर्सी पर बैठ कर ये सब करते हैं और दूसरी कुर्सी पर बैठा जब काम के लिए पैसे मांगता है तो हम चिल्लाते हैं भ्रष्टाचार कितना फ़ैल गया है...कलियुग आ गया है .... धर्म के पथ पक्ष में यदि नहीं तुम/ तो तय है अधर्म ही तुम्हारा पथ है निश्चित/और अधर्मी का कौन है ठिकाना जगत में/फिर रोते क्यों हो ..........................
सच तो डरावना है के सम्बन्ध मं कहना चाहूँगा की एक रूपये के चावल और पचास पैसे की दाल से नहीं बल्कि संख्या सरकारी दबाव से बरती है की छात्र संख्या अधिक न हुई सरकारी मानक से तो मास्टर साब का तबादला तय है और तबादला यानि की मुर्गी बाजी तय ....जो लोग ऊँची pahunch के हैं उनका पार्टी चंदे के नाम पर ट्रान्सफर और सेष लोगो के लिए सख्त ट्रान्सफर पॉलिसी ...प्राइवेट B.एड कीजिये moti रकम से और ले आईये 80%+ और आप जो प्रतियोगिता देकर B.एड मं निकले तो कम % खाइए धक्के ...
क्वालिटी बराने के नाम पर मारिये chappa संसाधान के नाम पर लैब मं प्रैक्टिकल का कोई सामान नहीं , बिल्डिंग , बैठक ब्यवस्था choppat और मुकाबला प्राइवेट स्कूल से जहाँ १००० रुपैये औसत
प्रति स्टुडेंट फीस सरकारी स्कूल छटनी के बाद आये हुए बच्चे
यहाँ फीस १ रूपये से ३४ रूपये के बीच और चील की नोच खसोट .....
प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलता हुआ एक विचारोत्तेजक लेख---हम सभी को इस पर सोचना होगा--
पूनम
हरि जी,
बहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को उठाया है वन्दना जी ने इस लेख में।सबसे पहले तो मैं उन्हें बधाई दे रहा हूं इस कड़वे सच को उजागर करने के लिये।
मैं तो पिछ्ले 23 सालों से प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में चल रहे इस गोरख्धन्धे से रोज ही रूबरू हो रहा हूं। आपरेशन ब्लैक बोर्ड,फ़िर डी पी ई पी,और अब सर्व शिक्षा अभियान---मैनें खुद देखा है कि सन 1986 में शुरू हुये आपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना में खरीदी गयी टाट पट्टियों को ग्राम प्रधान,प्राचार्य के घरों की शोभा बढ़ाते हुये्। लाखों रूप्ये की किताबें प्रकाशकों से भारी कमीशन पर खरीद कर डम्प कर दी गयीं।बच्चों को उनकी शकल भी नहीं देखने को मिली---और वही सब कुछ यथावत सर्व शिक्षा अभियान में हो रहा है।
मिड डे मील के नाम पर बच्चों को क्या परोसा जा रहा है सब अखबारों में आता है।स्कूल भवनों की मरम्मत का पैसा खर्च हो जाता है--भवन यथावत रहते हैं।कहां तक गिनाया जाय---
मुझे तो सर्व शिक्षा अभियान की हालत देख कर गुरू रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानी तोता याद आती है।मैने इस कहानी का नाट्य रूपन्तर किया था।कहानी का जो दुखद अन्त तोते की मौत और राजा के रिश्तेदारों,मन्त्रियों के धन्वान हो जाने के साथ हुआ था।वही सर्व शिक्षा अभियान का भी सच है।
जिस दिन प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा ---शायद वह दिन भारत के बच्चों के लिये सबसे खुशी का दिन होगा।
मैं भी इन सच्चाइयों को समय समय पर अपने ब्लाग पर दर्ज करता रहता हूं।
शुभकामनाओं के साथ।
हेमन्त
रोंगटे खड़े कर देने वाला.... भयावह ..!! उन मासूम बचपन को खिलने से पहले ही मुरझा जाने को मजबूर करता.....
एक आस एक उम्मीद पालते वो बच्चे .....कब होगा उनका सुन्दर सवेरा ..??
और ये नहीं की इस बात से स्कूल प्रशासन व उपरी सरकारी तबका.....अनभिग्य होगा ....सब मिलीभगत......
मासूमों के सपने रोंदते उन पर अपना साम्राज्य स्थापित करते कब तक अपनी जीत का जश्न मनाएंगे...??आखिर कब तक ...??कितने दिन ....??
क्षोभ व आक्रोश की साथ.....!!
Very nice eye opner Hari ji
Abhaar !!
हरी जी . सच ये काम उत्तराखंड मे बहुत बढ़िया हुवा की फर्जी विद्यार्थियों के बारे मे कच्चा चिटठा खुल गया और विद्यार्थियों के साथ हुवे खिलवाड़ का भन्दा फोड़ होने से अब सायद व्यावस्था मे कही सुधार आये.....लेकिन सायद सच इस से भी ज्यादा कड़वा है .. और अभी तलाश जरी रखें
मेरी राय मे हमे ऐसे तथ्यों पर भी एक दम आँख मूँद कर यकीन नहीं करना चाहिए.. आंकडे तो बनाये जाते है... और यह भी साफ़ होना चाहिए की वाकई में inspection हुवा की नहीं .. कही ये भी फर्जी आंकडा तो नहीं.. और कही इस के पीछे किसी को मसलन सिख्चक को प्रताडित करना या गलत तरीके से यहाँ भी पैसे कमाने की साजिश तो नहीं... सच को दोनों सिरे से तलाशें ...
डॉ नूतन गैरोला
वंदनाजी, आपने विषय तो अच्छा उठाया है। काफी दिनों बाद आपके लेखन को पढ़ने का अवसर मिला। अपने लेख में आपने छत्तीसगढ़ का जिक्र किया है। निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ के हालात उत्तराखंड से अलग नहीं है। यहाँ के प्रशासनिक अधिकारी फुर्सत के समय में यह कहना नहीं भूलते कि यह उनके सेवाकाल के स्वर्णिम दिन हैं। जो रिटायर हो चुके हैं, वे अफसोस करते हैं, कि कुछ दिन और काम करने का मौका मिल जाता, तो शायद एक पीढ़ी के लिए और इकट्ठा कर लेते।
बहरहाल, जो हालात बताए जाते हैं, हकीकत बिलकुल जुदा है। पूरा देश नौकरशाहों के शिकंजे में जकड़ा है। आज जब तीन-चार हजार रुपए वेतन पाने शिक्षक से मनचाही जगह पर तबादला करने के लिए एक से डेढ़ लाख रुपए माँगे जाते हैं, तो वह क्या करेगा। शिक्षाकर्मी और अदना सा सिपाही बनने के लिए दो-ढ़ाई लाख रुपए रिश्वत बेशर्मी से माँगी जाती है। मुझे याद है कि एक नेता ने कहा था कि किसी भी हरे-भरे पेड़ को दो तरह से खत्म किया जा सकता है। पहला उसे कुल्हाड़ी से काट दो या फिर रोज उसकी जड़ों में एख गिलास मट्ठा डाल दो, वह खड़े-खड़े सूख जाएगा। भ्रष्टाचार करने वाले हिंदुस्तान रूपी पेड़ की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं, अब उन्हें क्या कहें, क्योंकि वे नीति-निर्धारक हैं और उनके खिलाफ बोलने गुनाह माना जाता है।
आदरणीय जोशी जी आप केवल मास्साब और और सरकारी प्रबंधतंत्र में फैले भ्रष्टाचार को लेकर चिन्तित हो रहे हैं । बात केवल यहीं तक विचार करने की नही हैं विचारने का विषय यह भी है िकइस समस्या की जड कहां हैं। क्यों नहीं सोचा जाता कि कोई व्यक्ति अपने घर के पास अपनी नियुक्ति कराना चाह रहा है। उसके लिए वह रिश्वत देता है। देने वाला और लेने वाला दोंनो जानते है कि इन पैसों के दम पर वह अपनी नियुक्ति करा कर क्या उसकी भरपाई नहीं करेगा। क्या उसे मिलने वाला वेतन उस भरपाई के लिए प्र्याप्त है। जी नहीं इसके लिए बाहर कुछ न कुछ और काम कना पडैंगा। और वे कर भी रहे हैं। रही बात स्कूलों छात्रों के प्रवेश और उनकी उपस्थिति की ग्राम प्रधान ग्राम सचिव से लेकर प्रधानाचार्य तक सब एक कडी से जुडे होते है। अधिक प्रवेश पर मिडडेमिल और अन्य सामान जो सरकार द्वारा बच्चों के लिए भेजा जाता है उसे मिलबांट कर खाने के लिए ऐसा करना उनकी नियति बन गई है। आप उत्तराखंड में ही क्यों आपके मेरठ और आस पास के जिलों में ऐसे स्कूल अध्यापक और सरकारी मशीनरी से जुडे लोग सब शामिल हैं।
सच मीठा कब होता है ...कड़वा ही होता है ....एक और सच्चाई उजागर .....
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