Monday, September 29, 2008

बटला हाउस के बहाने

बटला हाउस कई दिनों से अखबारों और चैनलों की ही नहीं बल्कि ब्‍लाग जगत की भी सुर्खियों में रहा है। दिल्‍ली में हुए सीरियल ब्‍लास्‍ट के बाद पुलिस ने बटला हाउस में एक मुठभेड़ के बाद दो आतंकवादियों को मार गिराया था़ और एक गिरफ्तार किया था। इसी मुठभेड़ में दिल्‍ली पुलिस का एक इंस्‍पेक्‍टर मोहन चंद शर्मा शहीद हो गया था। ये ब्‍यौरा पुलिस के हवाले से है लेकिन कुछ खबरनवीसों और मानवतावादियों ने पुलिस मुठभेड़ पर कुछ सवाल खड़े किए थे। और ठीक वैसा ही हुआ था जैसे किसी मुठभेड़ के बाद होता है। कुछ दल और राजनेता वोटों के गणित का हिसाब-किताब लगाकर बोलते हैं तो कुछ छुटभैय्ये अपना चेहरा चमकाने के लिए ऐसा कुछ बोलते हैं जिससे उन्‍हें कवरेज मिल जाए। हकीकत ये है कि इन लोगों को न मरने वालों से मतलब होता है और न मारने वालों से। किसी को अपनी खबर बनानी होती है तो किसी को खबरों में रहना होता है।

हर बार चंद चेहरे आतंकी वारदात के बाद चमकते हुए दिखाई देते हैं तो कुछ चेहरे किसी मुठभेड़ के बाद मानव अधिकारों का अलाप या रूदन करते दिखाई देते हैं। हकीकत में ये दिल से कुछ नहीं करते बल्कि ये इनका एक तरह का रोजगार है। शगल है। चमकने की आकांक्षा है। ये कोई नहीं सोचता कि हम अपने मुल्‍क के पढ़े-लिखे नौजवानों को भटकने से कैसे रोकें। क्‍यों ये हथियार उठा रहें हैं। कौन लोग मदारी है जिनके हाथों में ये नौजवान कठपुतलियां बने नाच रहे हैं। सृजन के लिए बने हाथ विध्‍वंस की तरफ कैसे मुड़ रहे हैं। ऐसी हमारे सिस्‍टम में क्‍या खामी है जो इन्‍हें पनपने से रोक नहीं पाती।

दरअसल ये सिर्फ हमारे यहां नहीं है बल्कि पूरी दूनिया ही इस वक्‍त आतंकवाद के महादैत्‍य से जूझ रही है। वह मुल्‍क भी अब इसकी तपिश से झुलस रहें हैं जहां आतकंवाद की पौध तैय्यार हूई। उन महाशक्तियों ने भी इस आग में अपने को झुलसाया है जिन्‍होंने आतंकवाद को अपने हितों के लिए पाला-पोसा। कौन नहीं जानता है कि लादेन को जिसने पाला उसी को लादेन ने अपना सबसे बड़ा निशाना बनाया। अपने हितों के लिए जिन मुल्‍कों ने आतंकवाद की नर्सरी खोली उसी को शिकार बनना पड़ा। लिट्टे भी उन्‍हीं में से एक है। आज अगर दिल्‍ली धमाकों से झुलस रही है तो इस्‍लामाबाद भी लपटों के आगोश में आने से नहीं बच पा रहा। लेकिन हमारा दुर्भाग्‍य ये है कि हम छोटे-छोटे स्‍वार्थों से ऊपर उठकर नहीं देख पा रहे हैं।
हमें शर्म आनी चाहिए। हम बहस कर रहें हैं कि बटला हाउस में इंस्‍पेक्‍टर को गोली दिल्‍ली पुलिस के ही किसी कर्मी ने मारी। गोली कमर में लगी। अंदर से गोली नहीं चली। पुलिस ने आतंक बरपा दिया बटला हाउस में। मैं मानता हूं कि पुलिस की निनायनवे प्रतिशत मुठभेड़ की कहानियां फर्जी होती हैं। लेकिन क्‍या ये संभव है कि पुलिस के वहां पंहुचते ही बटला हाउस के उस कमरे से गोलियां नहीं चलीं बल्कि फूल बरसे होंगे। और ऐसे मौके पर गोली का जबाव सिर्फ और सिर्फ गोली ही होता है। ये किस किताब में लिखा है कि कोई छात्र या कोई वकील, डाक्‍टर या इंजीनियर आतंकवादी नहीं हो सकता।

सोचिए। ये सब करके हम क्‍या वही नहीं कर रहे जो अलगाववादी चाहते हैं। आतंकवादियों के मंसूबे यही तो हैं कि हम धर्म के नाम पर बंट जाएं। विखंडित हो जाएं। कबीलाई युग की तरफ मोड़ने का ये मंसूबा क्‍या हम जाने-अनजाने वोटों की राजनीति के लिए परवान नहीं चढ़ा रहे हैं। ये सही है कि अपराधियों को सजा देने का काम कानून का है। अदालतों का है। लेकिन ये भी सही है कि हम आज तक संसद पर हमला करने वालों को भी सजा नहीं दे पाए हैं। चर्चा में मेरे बहुत से मित्र कहते हैं कि पुलिस बदमाशों को निहत्‍था पकड़ने के बाद मारती है और अपनी बहादुरी दिखाने के लिए मुठभेड़ की फर्जी कहानी गढ़ती है। ये सही है कि पुलिस को मुठभेड़ के नाम पर फर्जी एनकाउंटर की छूट नहीं होनी चाहिए लेकिन क्‍या ये छूट होनी चाहिए कि कोई भी हमारे एक शहीद इंस्‍पेक्‍टर के कर्म पर उंगलियां उठाए। ये कहे कि बटला हाउस के उस फ्लेट में भजन-कीर्तन चल रहा था और पुलिस धमाके कर रही थी और अपनी बात जायज करार देने के लिए ही इंस्‍पेक्‍टर को दिल्‍ली पुलिस ने ही गोली मारी। अगर बटला हाउस में पुलिस चैकिंग करे या किसी संदिग्‍ध की तलाशी ले तो इसमें हाय-तौबा क्‍यों हो रही है। ये देश भर में तमाम जगहों पर होता है। आखिर इससे किसको फायदा हो रहा है।

हमें सोचना होगा कि क्‍या वोटों की राजनीति के साथ क्‍या आतंकवाद से लड़ा जा सकता है।

Friday, September 26, 2008

'औरतें रोती नहीं' की आखिरी किश्त

प्रसिद्ध कथाकारा जयंती रंगनाथन के उपन्यास 'औरतें रोती नहीं' की अंतिम कड़ी


पिछली कड़ी में आपने पढ़ा-
गांव से रिश्तेदार के आते ही कमल नयन शोभा को श्याम के पास छोड़ चला जाता है। शोभा को अहसास हो जाता है कमल नयन अब वापस नहीं आएंगे। बेखुदी में श्याम चल देते हैं जंगल की तरफ, वहां उनकी मुलाकात होती है नक्सली युवाओं से, जो एमरजेंसी में जान बचा कर इस तरह भाग आए हैं। श्याम उन्हें अपने संग ले आते हैं। युवकों का रवैया शोभा के साथ ठीक नहीं। जब श्याम को पता चलता है कि शोभा खुद उनके सामने अपना जिस्म परोस रही है, वे वहां से भाग जाते हैं। आगे की कहानी:


शोभा से इसके बाद उनकी कोई बात नहीं हुई। अगले दिन भी वे इसी तरह बस चाय भर पी कर दफ्तर चले गए। ऊब और अशांत दिन। शाम तक वे झल्ला पड़े खुद पर कि क्या मुसीबत मोल लिया?
घर लौटना ही था। ऊपर से सब शांत लगा। पांच लडक़ों में से दो ही घर पर थे प्रवीर और विनोद। शोभा भी गायब थी। देर से लौटी चौकड़ी। एकदम बदले हुए हालात। शोभा हंस रही थी सबके साथ। ठिठोली हो रही थी। हंसी-ठठ्ठा। अचानक मजाक-मजाक में एक ने शोभा का आंचल ही पकड़ लिया। पल्लू खुल कर जमीं पर गिर गया। अपनी देह ढकने के बजाय शोभा जमीन पर बैठ कर हंसने लगी। श्याम से रहा ना गया। दिन दिन में यह क्या हो गया? इतनी बेहयाई? उनकी आंखों के सामने? अचानक वे फट पड़े,'क्या हो रहा है? क्या समझ के रखा है तुम लोगों ने? क्या है ये चकला खाना?'
शोभा एकदम से चुप हो कर अंदर चली गई। सन्नाटा। प्रवीर ने उनके पास आ कर कंधे पर हाथ रख कर कहा,'बड़े दिनों बाद लडक़ों का मूड सही हुआ है। रहने दीजिए।'
श्याम को एकदम से गुस्सा आ गया,'क्यों रहने दूं भई? क्या लगती है वो तुम्हारी, किस हक से छेड़ रहे हो उसे?'
प्रवीर की आवाज पत्थर की तरह कठोर हो गई,'यूं तो सर, वह किसी की कुछ नहीं लगती। और लगने को सबकी लगती है। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? उनसे बियाह आपकेमित्र ने किया है, आपने तो नहीं। फिर एक बात बता देते हैं, वे छिड़वाना चाहती हैं, तभी ना... '
एकदम से श्याम चक्कर खा गए। तो क्या सबको पता चल गया कि शोभा की असलीयत क्या है?
वे दनदनाते हुए रसोई में गए। शोभा जमीन पर बैठी स्टोव जलाने की कोशिश कर रही थी। श्याम को देखते ही उसने अपने अस्तव्यस्त कपड़े ठीक करने की कोशिश की। श्याम को ना जाने क्या हुआ, उसका स्टोव जलाने को उठा हाथ पकड़ कर मरोड़ दिया। शोभा कराह उठी। श्याम उग्र हो गए,'दिखा दी ना अपनी जात? एक दिन भी सब्र नहीं हुआ? धंधा करना है तो यहां क्यों बैठी है? लौट कर चली क्यों नहीं जाती?'
शोभा की आंखों में दर्द से आंसू छलक आए थे। पर अपनी आवाज को धीमी रख कर बोली,'क्यों...आप करवाना चाहते हो क्या? सबने करवा लिया, अब आप भी करवा लो श्याम जी। अपनी मरदानगी हमारा हाथ मोड़ कर ही दिखाना चाहते हो क्या?'
श्याम हक्केबक्के रह गए। शोभा ने उसी तरह धीमी आवाज में कहा,'आप हमारे बारे में जानते ही क्या हो? यही ना कि हम शरीर बेचते हैं। आज इन लडक़ों से जरा हंसी क्या कर ली, सोचा इन्हीं को बेच रही हूं अपना शरीर। है ना? सच बताएं साहब... हमको आप जैसे लोगों की तरह दो बातें करनी नहीं आती। एक ही चेहरा है हमारा। हमें बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इन लडक़ों को आप ही पता था कि हम क्या हैं? वे तो आपको भी दल्ला ही समझ रहे हैं। पूछ भी रहे थे कि रेट आप तय करेंगे कि हम खुद ही...हमें बताओ हमारा क्या होगा अब? शादी करके भी कौन सा सुख देख लिया? अपने खाने-पीने के एवज में रोज ही तो शरीर देते थे उन्हें। बस उससे ज्यादा क्या रिश्ता था हमारा साहिब जी से?'
कहते-कहते हांफने लगी शोभा। फिर खुद ही चुप हो गई। श्याम सिर झुकाए बैठे रहे, जमीन पर। चेहरा पसीने से तरबतर। शोभा ने अपना हाथ उनकेहाथ पर रखा,'हमारी वजह से शर्मिंदा मत होओ। हम आपके घर के बहू-बेटियों की तरह नहीं है। हम बचपन से मरदों के बीच जीते आए। डर नहीं लगता हमें। हमसे क्या छीन लेंगे? हमें बंध कर जीना नहीं आता साहिबजी। बंधे तो लगा सांस ही रुक गई है। अब जीने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा ना... हमने इन छोकरों से दो सौ रुपए लिए हैं। आप कहें तो आधे आपको दे दिए देते हैं। घर तो आपही का है ना...'
श्याम के अंदर उबाल सा आ गया। लगा शाम का खाया-पिया उलट देंगे। किसी तरह अपने को समेट कर उठे और बाहर चले आए। तीन दीवारों वाले कमरे का एक हिस्सा भी उनका जाना पहचाना नहीं लग रहा था। अनजाने से पांच युवक। अपनी धुन में खोए। वे घर से बाहर निकल आए। सीधे कदम स्टेशन की तरफ बढ़े। वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठ कर उन्होंने खूब उलटी की और पस्त हो कर सीमेंट की बेंच में लेट गए।

घंटे भर बाद होश आया, तो जेब टटोल कर देखा। पर्स था। अठन्नी निकाल कर स्टेशन की चाय पी और दो खारी खाई। इस स्टेशन से हो कर तीन ट्रेन गुजरती थीं। सुबह छह बजे की एक्सप्रेस दिल्ली जाती थी। दस बजे पेसेंजर दिल्ली होते हुए जम्मू तक जाती थी और रात ग्यारह बजे की ट्रेन झांसी। बीच-बीच में मालगाडिय़ां आती-जाती रहती थीं।
दस बजे तक श्याम प्लेट फॉर्म पर ही बैठे रहे। ट्रेन वक्त पर आई। देखते-देखते उनके आसपास शोरगुल सा भर गया। एक अजीब सी चिरपरिचित गंध। खाने-पीने, पसीने, शौच और कोयले की गंध। श्याम उठे और बड़े आत्मविश्वास के साथ पग रखते हुए ट्रेन के अंदर बैठ गए। छुट्टियों के दिन अभी शुरू नहीं हुए थे। ट्रेन में काफी जगह थी। खिडक़ी के पास खाली जगह देख, वे वहीं बैठ गए। रास्ते में टिकट चैकर को पैसे दे कर टिकट बनवा लिया और अगले दिन आनन-फानन दिल्ली लौट आए।

श्याम लौट आए दिल्ली। दिमाग में तमाम प्रश्न लिए। शोभा ने क्या किया होगा? एक तरह से वे भाग ही तो आए? किसी को कुछ बताया भी नहीं। बैंक में लिख भेजा कि उन्हें पीलिया हो गया है। संयोग ऐसा हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही उन्हें पता चला कि उनका ट्रांसफर दिल्ली से सटे गाजियाबाद के एक ब्रांच में हो गया है। श्याम ने राहत की सांस ली।
बहुत कुछ था जो छूट गया। कपड़े, किताबें, घर का दूसरा सामान। किराया उन्होंने तीन महीने का एडवांस में दे रखा था। दो महीने का किराया पानी में गया, सो गया। दफ्तर में छूटी उनकी व्यक्तिगत चीजें तो पार्सल से आ ही गईं।
श्याम बहुत बेचैन हो गए। मन करता ही नहीं कि दफ्तर जाएं। घर में भी बहुत अच्छा माहौल नहीं था। रूमा के साथ रहने की आदत छूटी तो वापस निबाहने में दिक्कतें आने लगीं। बच्चे जिद्दी हो गए थे। अनिरुद्घ की शैतानियां उनसे बर्दाश्त ही नहीं होती थी। हमेशा उज्जवला उसका शिकार बनती। अपनी छोटी बहन को मारने-पीटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता अनिरुद्घ। ऊपर से इस बार रूमा ने एक नया तमाशा शुरू किया-- उज्जवला को ले कर। बेटी का रंग सांवला था। छोटा कद और घुंघराले बाल। रूमा बाप-बेटी को एक साथ लपेट कर ताने कसती कि बेटी का रंग दादी पर गया है। इस रंग के तो उनकी तरफ के कौए भी नहीं होते। श्याम देख रहे थे कि उज्जवला के अंदर हीन भावना घर करती जा रही है। दुखी, त्रस्त बच्ची। जो अब बोलते में हकलाने लगी थी।
श्याम को लगने लगा, जिंदगी व्यर्थ जा रही है। उस आग का क्या करें, जो कुछ दिनों पहले चलते-फिरते युवकों ने उनके सीने में लगा दिया? यह भी लगता कि वे एक बेसहारा स्त्री को बीच राह छोड़ आए हैं। उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं थी कि शोभा को एक राह दिखला कर जाते? क्या किया होगा शोभा ने? लगता शोभा केसाथ उन्होंने गलत किया। उस महिला को अपनी कसौटियों पर मापना उनकी भूल थी। जितना सोचते, उतना ही तनाव में आ जाते। क्या वापस लौट जाएं? फिर? कोई रास्ता नजर नहीं आता। फिर खीझ उठते कि वे एक बेमानी विषय पर इतना क्यों वक्त बरबाद कर रहे हैं? उनसे मिलने से पहले भी शोभा जिंदा थी अब भी रहेगी। वह ऐसी स्त्री नहीं, जो पगपग पर पुरुष का सहारा ढूंढ़ती है।
वे जिस माहौल में रहते थे, वहां सीने में आग लगे या तूफान, कोई फर्कनहीं पड़ता था। बस हर समय दाल-रोटी की चिंता में घुलते लोग। स्कूटर, गैस के बाद अब फ्रिज लेने की चिंता। देश दुनिया से बेखबर। आपातकाल है तो है, तुम्हें क्या दिक्कत हो रही है? समय पर बैंक जाओ, ड्यूटी बजाओ। वे कोई और लोग होते हैं जो क्रांति की बात करते हैं। क्रांति करने से पहले अपना पेट भरो, अपने घरवालों की सेहत का ख्याल करो, फिर आगे की सोचना...
श्याम को उन्हीं दिनों गांव जाना पड़ा। रूमा नहीं आई। श्याम के आते ही दो-चार बार के संसर्ग के बाद ही एक बार फिर से वह मां बनने की राह चल पड़ी। इस बार अनिच्छा से। यह कहते हुए कि अच्छा होता जो मैं कल्लो उज्जवला के जनम के बाद ऑपरेशन करवा छोड़ती। एक बेटा हो तो गया है, अब काहे के और बच्चे? परेशान कर डाला है। कौन संभालेगा बच्चों को? मेरे बस का नहीं। श्याम को मजबूरी में एक पूरे वक्त का नौकर रखना पड़ा।

गांव में उनके छोटे चाचा के बेटे ज्ञान की शादी थी। पापा का खास आग्रह था कि श्याम आएं।
श्याम कई दिनों बाद अपने घर जा रहे थे। अजीब सा अहसास था। पापा से उनकी कम पटती थी। हमेशा तनाव सा बना रहता। श्याम ने घर जाना कम कर दिया, तो सबसे ज्यादा नुकसान मां और छोटी बहन सरला को हुआ। मां उनसे भावनात्मक स्तर पर जुड़ी थीं। बल्कि मां केलिए श्याम ने कई लड़ाइयां लड़ी थीं। दादी के आतंक से कई बार मां को बचाया। उनकी फटी पुरानी धोतियों की पोटली बना पापा केसामने रख आते और कहते कि मेरी मां इन कपड़ों में दिखती है, मुझे शर्म आती है, पता नहीं आपको क्यों नहीं आती। जब सरला होनेवाली थी, श्याम अपनी मां को ले कर बहुत भावुक हो जाया करते थे। अपने किशोर बेटे के सामने पेट छिपा कर घूमती मां। श्याम सबसे छिपा कर मां के लिए कभी दोनेवाली चाट ले आते, तो कभी परांठे के ऊपर खूब मलाई और पिसा गुड डाल कर रोल सा बना उनके मुंह में ठूंस देते। श्याम को मां पर नहीं, पिता पर गुस्सा आता। इस उम्र में मां के साथ ये ज्यादती? नसबंदी क्यों नहीं करवा लिया?
मां को दवाखाने वही ले जाते, अपनी साइकिल पर। मां लंबा घूंघट करके निकलती। घर के सामने साइकिल पर बैठते हिचकिचाती। सास देख लेंगी, तो ना जाने क्या कहेंगी? वैसे भी जवान लडक़े के साथ साइकिल पर जाती वे अच्छी थोड़े ही ना लगती हैं? श्याम जिद करते। धूप में मां पैदल जाए? फिर घर का इतना काम कि सुबह से शाम तक सिर उठाने की फुरसत नहीं।
सरला केपैदा होने के बाद मां की तबीयत भी गिरी गिरी रहने लगी। श्याम की कोशिश होती कि घर में कामों में वे उनकी मदद कर दें। लेकिन दादी को बिलकुल पसंद नहीं था कि श्याम भैंस दुहें, चूल्हा फंूकें या बहन को संभालें। श्याम ने कभी परवाह नहीं की। दादी को भी सुना देते कि वे बैठे-बैठे रोग पाल लेंगी, इससे अच्छा है कि अपनी बहू के साथ काम में लग जाएं। दादी पिताजी से शिकायत करती। पिताजी कर्कश आवाज में मां-बेटे को गाली देते। कभी कभार श्याम को इतना तेज गुस्सा आ जाता कि वे पलट कर पिता को सुना दिया करते।
गांव में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बनारस गए बीए करने। वहीं से कलेक्टर बनने का भूत सवार हुआ तो दिल्ली आ गए कोचिंग लेने। इसी बीच पिताजी और दादी ने शादी का इतना जोर डाला कि श्याम तो करनी ही पड़ी।

इस बार गांव और घर का आलम ही अलग था। घर का हाल बुरा था। मां बूढ़ी लगने लगी थीं। पिताजी के सिर पर सफेद बाल नजर आने लगे थे। श्याम चुपचाप जा कर कामकाज में लग गए। उनके बचपन के सखा और भाई ज्ञान की शादी थी। ज्ञान का मन पढऩे-लिखने में नहीं लगा। सो चाचा ने गांव में ही एक दुकान खुलवा दिया। गाहे बगाहे दुकान पर बैठ लिया करता था। मां के मुंह से ही सुना कि ज्ञानुवा को बहुत सुंदर दुल्हिनया मिली है।
शादी के चार दिन पहले ज्ञान ने श्याम को मन्नू से मिलवाया। बिलकुल साफ रंग की बेहद खूबसूरत छोटी सी खरगोश की तरह लगी मन्नू। उन आंखों में ना जाने क्या था कि श्याम ने आंखें ही चुरा ली।
वह अपनी सहेली के साथ चूडिय़ां खरीदने निकली थी। पहले से तय था कि वह ज्ञान की दुकान पर आएगी। पीले रंग की छींटदार साड़ी में मन्नू आई। श्याम को दया सी आ गई उस पर। जानतेबूझते इसके माबांप ज्ञान के पल्ले क्यों बांध रहे हैं? ज्ञान खिलंदड़ प्रवृत्ति का है। पीना पिलाना, औरतबाजी सारे शौक रखता है। चाची का मानना है कि शादी के बाद ज्ञान सुधर जाएगा।
श्याम को कम उम्मीद थी इस बात की। शादी से एक दिन पहले घटना घट गई। शुरुआत शायद दादी की तरफ से हुई-वे देखना चाहती थीं कि शादी में मन्नू को जो गहने दिए जा रहे हैं वे असली हैं या नकली। ना जाने किस बहाने से वे गहने वहां से निकाल सुनार को दिखा आईं, पर आते ही शोर मचा दिया कि गहनों में पीतल ज्यादा है, सोना कम।
खूब हल्ला हुआ। शादी रोकने तक की नौबत आ गई।
श्याम के पिता घर में सबसे बड़े थे। सुबह-सुबह मन्नू के घर के मर्दों ने आ कर अपनी पगडिय़ां पिताजी केकदमों पर उतार दिए। बेटी का मामला, इज्जत की दुहाई। दादी थीं की टस से मस नहीं हो रही थीं। आखिर तय हुआ कि ऊपर से दस हजार रुपए दिए जाएंगे।
श्याम को बहुत बुरा लग रहा था सबकुछ। वे कुछ कह नहीं पाए। फेरे के वक्त क्षण भर के लिए मन्नू के चेहरे से घूंघट हटा, तो श्याम को उसका आंसुओं से भीगा चेहरा दीख गया। उनके कान में बात पड़ी थी कि कल की घटना के बाद मन्नू शादी के लिए मना कर रही है। पर उसकी सुनता कौन?
श्याम शादी के तीन दिन बाद दिल्ली लौट आए। जाने से एक दिन पहले पिताजी से जम कर झगड़ा हुआ। पिताजी को शिकायत थी कि वे शादी के बाद अपने मां बाप को भूल गए हैं। पढ़ी-लिखी लडक़ी से तो गांव की लडक़ी अच्छी, जो ससुराल की तो हो कर रहे। श्याम तर्क देने के मूड में नहीं थे। पिताजी ने तो यहां तक कह दिया कि वे उन्हें अपना बेटा ही नहीं मानते।
बहुत कुछ हो रहा था उनकी जिंदगी में जो उनकेबस में नहीं था। जी चाहता था कि नौकरी-वौकरी छोड़ कुछ ढंग का काम करें। अपने लिए नहीं, समाज के लिए देश के लिए। लौटे तो दूसरे ही दिन खबर आई कि मन्नू के पिता ने आत्महत्या कर ली है। कर्ज के बोझ तले वे समझ नहीं पाए कि जिंदगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ाना है। गांव की जमीन गिरवी थी, उसे बेच पैसे दिए थे शादी में। मन्नू की मां तो पहले ही गुजर चुकी थीं। शादी के बाद मायका ही नहीं रहा।
साल भर बाद ज्ञान मन्नू को ले कर दिल्ली आया, तो काफी कुछ बदल चुका था। इमर्जेंसी हट चुकी थी। श्याम की दूसरी बेटी अंतरा का जन्म हो चुका था। श्याम ने क्रांति का इरादा मुल्तवी कर दिया था। जिंदगी ढर्रे पर चलने लगी। ऊबाऊ और नीरस सी जिंदगी। एक से सुर। एक से लोग।
ज्ञान के सपत्नीक आने की खबर से रूमा खुश नहीं हुई। कहां ठहराएंगे? देखभाल कौन करेगा? खर्चा कितना होगा जैसे तमाम सवाल। श्याम निरुत्तर थे। लेकिन ज्ञान को कह दिया था कि वो आ जाए।
मन्नू को देखते ही श्याम ने भांप लिया कि वह खुश नहीं है ज्ञान के साथ। सफेद चेहरे पर पीलापन। पहले से दुबला शरीर। आने के बाद ही श्याम को पता चला कि ज्ञान बीमार है। दो महीने से जीभ पर बहुत बड़ा सा छाला हो गया है, जो ठीक होने के बजाय फैलता ही जा रहा है। श्याम उसे ले कर एम्स गए, तो उनसे सीधे कह दिया गया कि जीभ की बायप्सी होनी है। श्याम को आशंका थी, कहीं ये कैंसर तो नहीं?
तो क्या ज्ञान को ले कर मुंबई जाया जाए? टाटा कैंसर अस्पताल से बढिय़ा और कौन सा होगा? दिल्ली में कैंसर के लिए अलग अस्पताल नहीं। बायप्सी का परिणाम आने तक सब तनाव में रहे। श्याम बेहद ज्यादा। क्योंकि रूमा से उन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिल रहा था। वह अकसर अपने कमरे में बंद रहती। तर्क देती कि अभी बच्चा हुआ है। वह बीमार आदमी के संग नहीं रहेगी।
श्याम ने बहुत समझाने की कोशिश की। रूमा का व्यवहार कठोर होता जा रहा था। ऑपरेशन की तारीख तय हो गई।
दो दिन पहले रूमा ने जिद की कि वे सप्ताह भर का राशन-पानी-सब्जी वगैरह ला कर रखे। फिर तो उन्हें फुर्सत नहीं मिलेगी। श्याम चलने को हुए, तो उनके साथ मन्नू और बच्चे भी तैयार हो गए। अनिरुद्घ और उज्जवला को स्कूटर पर आगे खड़ा कर और सहमती सी मन्नू को पीछे बिठा कर वे पहले ओखला सब्जी मंडी गए और वहां से आइएनए मार्केट आए। कोने की पर चाट की दुकान लगती थी। मन्नू के आने केबाद पहली बार उन्होंने उसे बाहर ले जा कर चाट खिलाया। अपने जेठ से बचते-बचाते और आंचल संवारते मन्नू ने जैसे ही गोलगप्पा मुंह में रखा, पचाक से पानी छलक कर उसकी साड़ी पर आ गिरा। श्याम की नजर पड़ी, तो जेब से अपना रूमाल निकाल कर दे दिया।
मन्नू के चेहरे पर दिनों बाद उन्होंने हंसी देखी। ढलका आंचल, खिला चेहरा और चेहरे पर लाज और ठिठोली की कशिश। श्याम ने देखा, तो देखते रह गए। कौन है ये शापित कन्या? इतनी आकर्षक, इतनी वांछनीय? मन काबू में नहीं। भावनाएं उछाल भर रही हैं। पल भर को मन्नू से उनकी नजरें मिलीं और श्याम को अपने तमाम प्रश्नों का उत्तर मिल गया।
बच्चे खापी कर खुश थे। श्याम ने उस शाम मन्नू को इंडिया गेट दिखलाया। इंडिया गेट की लॉन पर पांव सिकोड़ कर बैठी मन्नू के करीब बैठ गए श्याम। बदन की खुशबू और सामीप्यता को पूरी तरह अपने अंदर भर लेना चाहते थे। पता नहीं ऐसा फिर कभी कर पाएं भी या नहीं?

उस वक्त अगर जमीं धंस जाती, धडक़नें रुक जाती, आसमां टूट पड़ता तो भी अफसोस ना होता। एक पल में भी तो जीने का आनंद लिया जा सकता है। उसके लिए देह का मिलना क्या जरूरी है?
लेकिन वे पल कुछ समय बाद वहीं बिखरे से रह गए। लौटे तो एक हादसा हो चुका था।

ज्ञान का इस तरह से मरना बहुत समय तक श्याम को मंजूर ना हुआ। समय से पहले। कुछ तो वक्त था हाथ में।
बहुत टुकड़ों में उन्होंने बात समझने की कोशिश की। घर में रूमा थी अपनी बच्ची के साथ अपने कमरे में बंद। अचानक ज्ञान के सिर में दर्द उठा, लगा दिल की धडक़न ही रुक जाएगी। हथेलियों में पसीना। घबरा कर ज्ञान रूमा के कमरे का दरवाजा खटखटाने लगा। अंदर रूमा ने तेज गाना चलाया हुआ था, ऊपर से कूलर की खरखर की आवाज। ज्ञान ने तीन चार बार कोशिश की, फिर शक्ति चुक गई, तो जमीन पर गिर पड़ा।
जिस समय श्याम बच्चों के साथ लौटे, देर तक घंटी बजाने के बाद ही दरवाजा खुला। रूमा दरवाजे पर अवाक खड़ी थी,'पता नहीं ज्ञान भाई साब को क्या हो गया है? दरवाजे पर गिरे हुए हैं।'
श्याम लपक कर अंदर गए। ज्ञान का शरीर टटोला, गरम था, लेकिन सांस रुक चुकी थी।
उस रात उन्होंने रूमा को खूब लताड़ा। इतना कि खुद पछाड़ खा कर रोने लगे। रूमा को भी अहसास था कि उसकी गैरजिम्मेदारी की ही वजह से ज्ञान की मौत हुई है।

जब श्याम और मन्नू का संबंध बना, रूमा ने एक बार श्याम से कहा भी,'मेरे अंदर एक बोझ सा है। मैं कभी तुमसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करूंगी कि मन्नू से तुम्हारा क्या संबंध है और उसे तुम क्या दे रहे हो? हां, कभी मेरी और बच्चों की कीमत पर तुम उसे कुछ देने की हिम्मत मत करना। अपनी सीमा नहीं लांघोगे, तो मैं भी यह बात दिल में रखूंगी।'
एक बार मन्नू से शारीरिक संबंध होने के बाद श्याम रूमा से शरीर के स्तर पर कभी नहीं जुड़ पाए। उसने शिकायत भी नहीं की। बस अपने इर्दगिर्द पंजा कसती चली गई।

सरला कब एक बच्ची से युवती हो गई, पता ही नहीं चला। बीच के दस साल श्याम ने यूं ही गुजार दिए। मन्नू के साथ, उसका घर बनाने में, उसका साथ निबाहने में। जिस मन्नू को देख उनका दिल पिघला था, वह उनके नजदीक आते ही और भी मोहिनी बन गई। वह कहती श्याम राम हैं और वो अहिल्या। श्याम ने जो छुआ, तो वह जीवित हो उठी।
मन्नू की जिंदगी श्याम से ही शुरू होती थी और उन्हीं पर खतम। मायका ना के बराबर। ससुराल से तो कब का नाता टूट गया। श्याम का साथ एक सम्मानजनक ओट था जीने के लिए।
बहुत बाद में अहसास हुआ था मन्नू को कि जिंदगी यूं ही निकल गई श्याम के नाम। हाथ कुछ ना आया। यह अहसास भी हुआ कि कहीं छली तो नहीं गई वह श्याम के हाथों?


सरला की शादी। मन्नू को लगने लगा था कि कहीं कुछ दरकने लगा है उसके और श्याम के बीच। वो पहले सी मोहब्बत ना रही। सरला की शादी को ले कर श्याम तनाव में थे--पिताजी ने मुझसे कुछ मांगा नहीं। जिससे सरला की शादी कर रहे हैं, उम्र में उससे बारह साल बड़ा है, दो बच्चे हैं। पहली पत्नी को मरे अभी साल नहीं हुआ। कैसे निबाएगी सरला? पिताजी को ना जाने क्या सूझी, कम पैसे वाला ही सही, कुंआरा लडक़ा खोजा होता...
श्याम रो पड़े। फफक फफक कर।
'मैं अपनी बहन के लिए कुछ नहीं कर पाया। मैं किसी काम का नहीं... देखो क्या हो गया...'
मन्नू ने उन्हें प्रलाप करने दिया। श्याम की तबीयत ठीक नहीं थी। सडक़ पर चक्कर खा कर गिरने के बाद डॉक्टर को दिखाया। ब्लड प्रेशर देखते-देखते चक्करघिन्नी सा ऊपर नीचे होने लगता। डॉक्टर की हिदायत थी कि वे ज्यादा तनाव ना पालें। सुबह-शाम सैर करें।
क्या करे मन्नू? कैसे कहे कि बहन के लिए इस तरह रोने की जरूरत नहीं। शादी में कुंआरा और विधुर क्या है? शादी शादी है और मर्द मर्द। अगर उसकी संवेदनाएं सही स्थान पर हैं तो औरत की इज्जत करेगा। श्याम रोते रहे। अगले दिन उन्हें शादी के लिए निकलना था।
मन्नू ने उनको उसी तरह विलाप करने दिया। घर में एक अलमारी थी। कभी श्याम ने ही दिलवाई थी। उसी अलमारी के एक खाने में एक पुराने दुपट्टे में बांध कर गहने रखा करती थी। करीब बीसेक तौला सोना। कुछ शादी के समय मायके से आया हुआ, बाकि श्याम का दिलाया। हर साल श्याम दीवाली पर उसे कुछ दिलाते थे।
गहनों की पोटली खोल मन्नू ने एक नौलखा नेकलेस निकाल कर अलग रखा। मां की निशानी। हालांकि चमक पुरानी पड़ गई है, लेकिन गहने का गढऩ लाखों में एक। सोने की अमिया नुमा झालरों पर जड़ाऊ नग। बाकि गहनों को बिना देखे पुटलिया सी बना दी।
कमरे में लौटी तो श्याम उसी तरह कुरसी पर सिर टिकाए लेटे थे। मन्नू ने उन्हें टहोक कर कहा,'ये ... अपनी बहन को दे देना। मन में यह शिकायत मत रखो कि बहन के लिए कुछ किया नहीं।'
ऐसा नहीं था कि उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने नहीं आए, संबंध बनाए नहीं रखा। उस दिन जो हुआ मन्नू के साथ ही हुआ। मन के कांच में तिरक लग गया। श्याम को जो अलकोंपलकों पर बिठा रखा था, जो जिंदगी की धुरी मान रखी थी, उसे दिल ने नीचे धकेल दिया। श्याम पहले की ही तरह आते मन्नू के पास। लेकिन मन्नू बदल गई। पहले वह घर से बाहर निकलती ही नहीं थी। श्याम ने जो राशन-पानी ला दिया, उसीसे गुजारा चलाती। अब उसने अपनी बंद दुनिया की किवाड़ें खोलनी शुरू कर दी। श्याम आते तो पाते कि बिस्तर पर पड़ोस का चार साल का बेटा सो रहा है।
कभी मन्नू बरामदे में बैठ कर दो तीन औरतों केसाथ अचार या बडिय़ा डाल रही है।
मन्नू हंसने लगी थी, श्याम के बिना भी। रोती नहीं थी श्याम के जाने पर।
दुबली पतली बाइस इंची कमर की मन्नू ने अपने को भी खुला छोड़ दिया। मोटापे ने घेरा, तो श्याम ने कह ही दिया,'क्या हाल बना लिया है तुमने अपना? एकदम भैंसी होती जा रही हो। मैं यहां किसलिए आता हूं? दो घड़ी चैन मिलता था तुमसे, अब वो भी नहीं...'
मन्नू रोई नहीं। उस दिन अपने रूखे बालों में ढेर सा तेल लगा रखा था उसने, वो भी सरसों का। श्याम ने आते ही साथ कहा था कि बाल धो ले।
ढीलेढाले सलवार कमीज में ऊपर से ही उसके अंग-प्रत्यंग टटोल कर श्याम ने इशारा कर दिया था कि आज वे समागम के मूड में हैं। पता नहीं कैसे मन्नू ने पहली बार उनके आग्रह को ठुकरा दिया। ना बाल धोए, ना कपड़े बदले। ढीठ सी बैठी रही टीवी के सामने। बेकार सी फिल्म चल रही थी। नायिका का दो बार बलात्कार हो चुका था। नायक उससे कहने आया था कि बावजूद इसके वह उससे शादी करना चाहता है। मन्नू ने तुरंत प्रतिक्रिया की,'बकवास। औरत में हिम्मत हो, तो उसे नहीं करनी चाहिए शादी। एक के चंगुल से निकली, दूसरे में फंसने चली। क्या होगा इस आदमी के साथ रह के? कौन सी जिंदगी सुधर जाएगी? हरामी, वो भी वही सब करेगा... उसने जबरदस्ती की, ये शादी के नाम पर करेगा।'
श्याम हतप्रभ रह गए। मन्नू ऐसा सोचती है पुरुषों के बारे में? क्या वह उन्हें भी इसी श्रेणी में आंकती है? मन्नू की आंखों में अब भी क्षोभ था। अपने तेल से सने बालों में उंगलियां घुमाते हुए बड़ी अजीब निगाहों से टीवी पर नजरें गड़ाए थी। श्याम की मन्नू नहीं थी वह। वह एक ऐसी मन्नू थी, जिसने अपने ढंग से अपने विचारों के साथ जीना सीख लिया था।

उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने कभी नहीं आए। बल्कि मरनेेसे कुछ समय पहले उन्होंने मन्नू को एक लंबा पत्र लिखा, यह कहते हुए कि वे उसके लिए कुछ कर नहीं पाए। तमाम दुख। मन्नू के गहने लेने का दुख। रूमा की बेरुखी का गम।
श्याम लिखते समय शायद जल्दी में थे। मन्नू ने सुना था कि उनको दिल के तीन दौरे पड़ चुके हैं। इन दिनों नौकरी पर भी नहीं जा पा रहे। घर पर ही रहते हैं। मन्नू ने कभी जा कर उनसे मिलने की कोशिश भी नहीं की।
श्याम ने पत्र में यही लिखा था--तुम बहुत छोटी और नासमझ थी, जब मेरे एक बार कहने पर मेरे साथ चली आई। अब सोचता हूं, तो मसोस उठती है कि तुम्हारी मैंने दोबारा शादी क्यों ना की? ना मैं तुम्हें नाम दे पाया ना बाल-बच्चे। मुझे इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा।
मन्नू्...एक बात बड़े दिनों से साल रही है, मन करता है तुमसे बांटने को। जब मैं तुमसे मिला और ज्ञान की मृत्यु हुई, मन में एक ललक थी किसीके लिए कुछ करने की। सोचा तुम्हें एक जिंदगी दे कर अपनी यह इच्छा पूरी करूंगा।
वह पांच लडक़े जो चौदह साल पहले मेरे अंदर एक आग सी जला गए, उसकी आंच मैंने रोक ली मन्नू। मैं आज भी गुनहगार महसूस करता हूं अपने को, शोभा के लिए और तुम्हारे लिए। देश की तो छोड़ दो, मैं तो अपने आसरे जो आया, उसके लिए भी कुछ कर ना पाया।
अब मेरे शरीर में ताकत ना रही। तन-मन से खोखला हो चला हूं। बस, एक ही काम कर पाया, वो घर तुम्हारे नाम कर दिया है, रूमा को बता कर ही। तुम हो सकेतो अपना घर बसा लो। सरला का ही देख लो, एक बच्चा हो गया। ठीक चल रही है उसकी गृहस्थी। तुमने अपना क्या कर डाला है? ऐसे जिंदगी से उम्मीद मत छोड़ो। कभी न कभी कुछ होगा तुम्हारा भी।
मैं अगले इतवार को ऑपरेशन करवा रहा हूं। तुम मत आना। घर से सब आ रहे हैं। पिताजी भी। बच गया तो कभी आ कर तुमसे मिलूंगा।
मेरी तरफ से अपना मन दुखी ना करना।
पत्र पढ़ कर दो-चार दिन मन्नू विचलित रही। पर श्याम को अनुमान ना था कि वे उसकी जिंदगी से बहुत दूर चले गए हैं। श्याम को कहने की जरूरत ही नहीं कि वो उनसे मिलने ना आए। वो खुद अब श्याम से अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाती।
बस, एक बात कहना चाह रही थी श्याम से-- यह कहने में देर कर दी कि शादी कर लो, बच्चे पैदा कर लो। दो महीने पहले उसे भयंकर रूप से रक्त स्त्राव हुआ। इतनी पीड़ा... पड़ोसिन डॉक्टर के पास ले गई। सारे टेस्ट हुए। डॉक्टर ने कहा कि उसे समय से पहले मेनोपॉज हो रहा है। यह उसीके लक्षण हैं। अब वह हर महीने की परेशानी से मुक्त है। मन्नू ने अंदर बहुत खालीपन महसूस किया। उन पीड़ा के क्षणों में आंसुओं से कई बार चेहरा धुंधलाया। लेकिन कहीं ना कहीं इस अहसास ने उसे राहत दी कि अब वह मातृत्व के लिए कामना नहीं करेगी। अब उसकी जिंदगी उसकी अपनी है। कोई श्याम आ कर यह दलील नहीं देगा कि तुमको मैंने मां बनने का सुख नहीं दिया।
काहे का सुख, काहे का मातृत्व? कहां से अपूर्ण हूं मैं? पहली बार अपने को यह कहते सुना मन्नू ने। पर श्याम यह सुनने के लिए बचे नहीं।

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Tuesday, September 23, 2008

औरतें रोती नहीं

प्रसिद्ध कथाकारा जयंती रंगनाथन के उपन्यास 'औरतें रोती नहीं' की दूसरी कड़ी


प्रथम कड़ी में आपने पढ़ा-
मन्नू श्याम के भाई ज्ञान की पत्नी है। ज्ञान की मौत के बाद श्याम ने उसे सहारा दिया और मन्नू को मिला आसरा, हर तरह का। श्याम ने शादी की रूना से, लेकिन जल्द ही अनुमान हो गया कि रूना के सपने और ख्वाहिशें अलग है। एमरजेंसी के दौरान श्याम की बदली एक ऐसे कस्बे में होती है, जहां उनकी मुलाकात कमल नयन से होती है। कमल नयन एक वेश्या शोभा से शादी कर श्याम के घर ले आते हैं। आगे की कहानी-


शोभा शांत थी। चाय बनाया, नाश्ता बनाया। श्याम का मन ही नहीं किया कि दफ्तर जाएं।
वे यूं ही निकल गए पैदल-पैदल, मंदिर और आगे जंगल। पगडंडियों से होते हुए। चलते रहे बस चलते रहे। जंगल के बीचोबीच एक झरने के किनारे पुराना सा मंदिर था। अहाते में कमर तक पीली धोती चढ़ाए एक बाल ब्रहृमचारी चंदन घोंट रहा था। श्याम को देख उसने हाथ रोक लिया।
श्याम हांफ से गए थे। इतना चलने की आदत नहीं रही। ना जाने क्या सोच कर बालक एक लोटे में पानी ले आया। वे गटागट पी गए। छलक कर पतलून में आ गिरा। श्याम ने कुछ रुक कर पूछा,'क्यों छोरे, कुछ खाने का इंतजाम हो जाएगा? रूखा-सूखा कुछ भी चलेगा।'
बालक लोटा नीचे छोड़ दौड़ता हुआ मंदिर के अंदर घुस गया। पांच मिनट बाद निकला तो एक बड़ी उम्र केलंबी दाढ़ी वाले साधू के साथ। नंगे पैर, ऊंची रंग उड़ी भगवा धोती, नग्न बदन। पूरे बदन पर भभूत का लेप। सिर के बाल जटा जूट से। आंखें भक्ख लाल। श्याम क्षण को डर गए। कौन है ये? कपाल साधक? सुन रखा था कि इस जंगल में नर बलि देनेवाले आदिवासी भी हैं।
श्याम उठ खड़े हुए। साधू ने बैठने का इशारा किया। वे खुद श्याम के बिलकुल सामने आलतीपालती मार कर बैठ गए।
आंखें बंद। खोलीं, तो मुलायम आवाज में पूछा,'बच्चा, कैसे आना हुआ?'
श्याम हड़बड़ा गए,'महाराज, बस ऐसे ही घर से निकला, रास्ता भटक गया, तो इधर चला आया।'
साधू जोर से हंसने लगे,'ऐसा कहो कि महादेव ने तुम्हें बुलाया है। बच्चा, तुम सही वक्त पर आए। आज शाम ही हमारा डेरा उठने वाला है यहां से। चले जाएंगे वहां, जहां स्वामी आवाज देंगे... बम बम भोले...' साधू ने आंख बंद कर लंबी डकार ली और जोर से कहा,'अरे ओ लुच्चे की औलाद, ए नित्यानंद... क्या बनाया है रे आज खाने को?'
बालक दौड़ता हुआ आया और उनके चरणों को छू कर बोला,'बाबा, आटा गूंध लिया हूं। दूध रक्खा है...'
'ऐ मूरख... देखता नहीं अतिथि आए हैं। दूध-रोटी खिलाएगा? चल, जल्दी से आलू उबाल। आज तेरे हाथ के आलू के परांठे जीमेंगे महाराज। घी पड़ा है कि भकोस लिया तेने?'
'जी। घी डाल कर परांठे बना लूंगा। दस मिनट लगेंगे महाराज।'
बालक कूदता हुआ चला गया। साधू फैल कर बैठ गए। कमर सीधी कर चिलम सुलगा ली और श्याम की आंखों में सीधे देखते हुए बोले,'हमें ऐसा-वैसा ना समझ बच्चा। हम पिछले पचास साल से गुरूदेव की साधना कर रहे हैं। याद नहीं कहां जन्म हुआ... हां पता है बच्चे, मरना यहीं है गुरूदेव केचरणों में... अलख निरंजन...' साधू ने इतनी ऊंची गुहार लगाई कि पास के पेड़ पर बैठे पंछी चहचहा कर उड़ गए।
श्याम ने घड़ी देखी। तीन बजने को आए। सुबह के निकले हैं। लौटने में जल्दी नहीं करेंगे, तो राह ही भटक जाएंगे। दिन में जंगल का यह तिलिस्मी रूप है तो रात में क्या होगा?
साधू ने जैसे उनके मन की बात समझ ली, 'जाने की सोच रहे हो बच्चे? चिंता ना करो। हम तुम्हें रास्ता बता देंगे। दिखाओ तो अपना मस्तक... चिंता की रेखाएं हैं। अच्छा चलो हाथ की लकीरें पढ़ते हैं।'
श्याम का कतई विश्वास नहीं था हाथ बंचवाने में। रूमा ने कितनी बार कहा अपनी कुंडली बनवा लो, दिल्ली में एक अच्छे पंडित है, बंचवा लेंगे। उन्होंने मना कर दिया। लेकिन साधू ने जब उनका दाहिना हाथ खींच हथेली अपनी गोद में धर लिया, तो वे कुछ कह नहीं पाए।
अचानक उनकी हथेली अपनी पकड़ से निकल जाने दी साधू ने और गंभीर आवाज में बोले,'अपनी जनानी से परेशान हो बच्चा। लेकिन मुक्ति नहीं मिलेगी। वो ही बनेगी तुम्हारे स्वर्गवास का कारण। बच्चों से सुख नहीं है तुम्हें। लडक़ा है, ठीक निकलेगा। लड़कियां... बड़ी की जिंदगी तुम्हारे जैसी होगी। अधेड़ उम्र के बाद मिलेगा साथी। संभल के रहना बच्चा, एक औरत आ रही है तुम्हारी जिंदगी में। बहुत मुश्किलें साथ लाएगी। उम्र में छोटी। तबीयत सही नहीं रहेगी। बाबा का नाम लो सुबह-शाम।
श्याम तुरंत हाथ बांध कर खड़े हो गए। माथे पर पसीना। तलब हो आई एक सिगरेट पीने की। मन हुआ साधू के हाथ से चिलम ले कर एकाध काश मार ही लें।
कहां फंस गए? पता नहीं बालक खाना बना कर खिला रहा भी है या नहीं?
पांचेक मिनट बाद बालक दो बड़ी-बड़ी कांसे की थाल में गरम रोटी रख गया। रोटियां मोटी थी, पर घी से तर। साथ में कटा हुआ प्याज, आम की चटनी और लोटे में पानी। श्याम खाने पर ऐसे टूटे, जैसे बरसों बाद नसीब हुआ हो। साधू हंसने लगा। उसने अपने पुष्ट हाथों में रोटी रख उसका चूरा सा बनाया और मुंह में पान की तरह दाब लिया।
एक के बाद पांच रोटियां खा गए श्याम। आलू के पिठ्ठे से भरी रोटी। कच्ची मिर्च की सोंधी खुशबू और घी की मदमाती गंध। इतना स्वाद तो खाने में पहले कभी आया ही नहीं। ऊपर से झरने का निर्मल मीठा पानी। तो इसे कहते हैं वैकुंठ भोजन।
साधू खा पी कर वहीं लेट गया। डकार पर डकार। उसने हुंकारा भर कर कहा,'बच्चे, आज तो तुमने गुरूदेव का प्रसाद चख ही लिया। बड़े विरलों को ही मिलता है उनका प्रसाद। अब घर जाओ बच्चा। सब अच्छा होगा...'
क्षण भर बाद ही आंखें बंद कर साधू खर्राटे लेने लगे। बालक प्लेट उठाने आया। साधू ने प्लेट में खाना खा उसी में हाथ धो कर थूक दिया था। लडक़े ने बुरा सा मुंह बनाया और श्याम के सामने साधू को जोर की लात मारी।
श्याम हतप्रभ रह गए। साधू की आंख नहीं खुली। लडक़ा हंसते हुए बोला,'बिलकुल बेहोश हैं साब। अब शाम को आंख खुलेगी। इस बीच गरदन भी काट डालूं, तो ये उठेगा नहीं साब।'
वाकई साधू परमनिद्रा में लीन थे। खर्राटों की उठती-गिरती लय के साथ उनका भारी बदन हाथी के शरीर की तरह झूम रहा था। बालक झूठन उठा कर जाने लगा, तो श्याम ने पूछ लिया,'यहां से बाहर जाने का रास्ता बताओगे? महाराज कह रहे थे कि यहां से सीधा रास्ता है।'
'इनको क्या पता साब। ये इधर थोड़े ही रहते हैं। अफीम की पिनक में कुछ भी बोल जाते हैं। आप ऐसा करो, ये सामने जो पगडंडी है, उससे हो कर निकल जाओ। इससे ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता। यहां कोई नहीं आता साब। बस हम दोनों रहते हैं। हम चले जाएंगे, तो मंदिर सूना पड़ा रहेगा।'
श्याम झटपट खड़े हो गए। शाम ढलने लगी थी। बस जरा सी देर में अंधेरा हो जाएगा, तो पांव को पांव नहीं सूझेगा। झरने के पार पहुंचने के बाद श्याम असमंजस में खड़े हो गए, अब आगे कैसे जाएंगे? बहुत दूर उन्हें रोशनी सी नजर आ रही थी। टिमटिमाता हुआ दिया। वे उसी दिशा में चल पड़े। पास गए, तो देखा आठ-दस युवक थे। हाथ में लाठी-भाला लिए। कइयों की दाढ़ी बढ़ी हुई। श्याम डर गए। कौन हो सकते हैं? डाकू-लुटेरे? इनसे जा कर कैसे पूछें कि रास्ता बताओ।
श्याम को पास आता देख वे युवक खुद ही चुप हो गए। एकदम नजदीक जाने के बाद श्याम ने देखा कि उनमें से एक युवक जमीन पर चित्त पड़ा था। पैर में घाव। खून केथक्कों के बीच लेटा बेजान युवक। श्याम सकते में आ गए। कुछ हकलाते हुए पूछा,'मैं रास्ता भटक गया हूं। बता सकते हैं क्या?'
उन युवकों के चेहरे पर गुस्सा था। तमतमाया हुआ चेहरा। एक ने कुछ चिढ़ कर कहा,'नहीं पता। यहां मरने क्यों चले आए?'
उसे शांत किया एक लंबे कद के शालीन युवक ने,'इन पर गुस्सा हो कर क्या मिलेगा तुम्हें? अरे भाई, रास्ता तो जरा टेढ़ा है। सामने टीले तक सीधे जाओ, फिर ढलान से उतर जाओ। बायीं तरफ से हो कर सीधे निकल जाना...'
श्याम ने सिर हिला दिया, पर समझ कुछ नहीं आया। वे अचानक पूछ बैठे,'ये... इन्हें क्या हुआ? घायल कैसे हो गए?'
किसी ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। श्याम नीचे बैठ कर घायल युवक का नब्ज टटोलने लगे। सांस बाकि थी। स्कूली दिनों में डॉक्टर बनने की उत्कठ इच्छा थी। दूर के चाचा थे भी डॉक्टर। उनके साथ कई बार श्याम हो लेते थे मरीज को देखने। यहां तक कि छोटे-मोटे ऑपरेशन करने भी।
नीचे बैठते ही साथ वे भांप गए कि युवक को गोली लगी है। पांव में। पता नहीं क्या हुआ उन्हें। झटपट उन्होंने उसका पैंट खींच कर उतारा और उसे कस कर जांघों में बांध दिया। घुटने की नीचे लोथड़ा सा निकल आया था। अगर कहीं से गरम पानी और चाकू मिल जाता तो कुछ कर लेते। अचानक उन्हें मंदिर का ख्याल आया। बालक नित्यानंद वहीं होगा। उन्होंने कुछ रौबीले आवाज में कहा,'इसे उठा कर मेरे साथ मंदिर तक आओ। वरना ये बचेगा नहीं।'
पता नहीं क्या बात थी उनकी आवाज में कि उनके हुक्म की तुरंत तामील हुई। उस युवक को कंधे पर लाद जैसे ही श्याम मंदिर के अहाते में पहुंचे, नित्यानंद भागता हुआ आ गया,'क्या हो गया? आप काहे फिर आ गए? गुरू जी को तो होश ही नहीं आया अभी तलक।'
श्याम ने कुछ जोर से कहा,'चल बकवास छोड़। एक बड़े बरतन में पानी गरम कर ला। सुन... बच्चे, सब्जी काटने वाला चाकू है ना उसे आग में तपा कर ले आ। कुछ कपड़े पड़े हों तो लेते आना।'
अगले एक घंटे में श्याम ने एक व्यक्ति की जिंदगी की डूबती नब्जों को नए सिरे से प्राण फूंक लौटा दिया। थक कर पस्त हुए, तो किसी ने उनकेहाथ चाय की प्याली पकड़ा दी। तब जा कर उन्होंने पाया कि रात घिर आई है। हवा चलने लगी है। नित्यानंद ने मंदिर में दिए जला दिए। हलकी रोशनी।
सभी युवक पस्त से हो चले थे। उनमें से एक श्याम के पास आ बैठा। वही लंबे कद का शालीन युवक प्रवीर। अपने हाथ की जली सिगरेट श्याम को थमाता हुआ बोला,'यू आर लाइक गॉड सेंड। हम सोच भी नहीं सकते थे कि विनोद को बचा पाएंगे।'
श्याम ने सिगरेट की कश ली। अच्छे ब्रांड की सिगरेट थी। तंबाखू की सुगंध से उनके नथुने फडक़ने लगे। इस वक्त जैसे उन्हें किसी की चिंता नहीं थी। ना घर लौटने की, ना शोभा की ना अंधेरे की। अच्छा लग रहा था इस तरह अनजाने युवकों के साथ एक अनजानी सी जिंदगी जीना।
वे युवक नक्सली थे। महाराष्ट्र से भाग कर यहां पहुंचे थे, छिपते-छिपाते। बीस साल के युवक। देश की तसवीर को बदल देने का जज्बा रखने वाले गरम खून से लबालब।
'यू ऑर सो इग्नोरेंट।' प्रवीर ने कुछ जज्बाती हो कर कहा,'आपको पता है देश लहूलुहान हो चुका है? हर तरफ न्याय की गुहार लगानेवालों का गला घोंटा जा रहा है। हम अपनी मरजी से बगावती नहीं बने। किसने बनाया हमें? बोलिए... आपको पता भी है इमेरजेंसी के पीछे का सच क्या है? कत्ल, दहशत और तानाशाही। पिछले तीन महीने से हम भाग रहे हैं। हमें पता है कि इसी तरह भागते-भागते हम दम तोड़ देंगे एक दिन।'
श्याम सोचने लगे... वाकई वे देश-दुनिया से कट गए हैं। कमलनयन कभी कभार चरचा कर लिया करता था जय प्रकाश नारायण और उनके आंदोलन की। पर श्याम ने कभी रुचि नहीं ली। उनके लिए आपातकाल का मतलब था समय से ट्रेन का आना, दफ्तर में समय पर जाना और समय पर राशन मिलना। अपनी छोटी सी दुनिया के छोटे से बाशिंदे। बीवी, घर-परिवार इससे ज्यादा क्या सोचे? पांच साल में दो बच्चे हो गए हैं। खरचे बढ़ गए। नौकरी ऐसी कि एक जगह टिकने की सोच नहीं पा रहे। जबसे इस कस्बे में आए हैं खानेपीने केही लाले पड़ गए हैं। ऐसे में देश की सोचे भी तो क्या? एक वक्त था जब वे खुद आइएएस बन कर मुख्य धारा में बहना चाहते थे। अब लगता है नसों में खून में उबाल ही नहीं रह गया। खून है कि पानी। शायद वो भी नहीं। होगा कोई गंदला, गंधहीन और नशीला द्रव।
उस रात उन्हें लगा कि जिंदगी वो नहीं जो वे जी रहे हैं। जिंदगी तो जी रहे हैं प्रवीर, विनोद, कश्यप, लखन और वेणु। जोश से लबालब। आग लगा दो इस दुनिया को ये दुनिया बेमानी है-- आग अंतर में लिए पागल जवानी... आग...आग...आग।
संसार को बदलना है। अन्याय से लडऩा है। कानून किसी की बपौती नहीं। हम भी जिएंगे खुल कर अपनी तरह से।
साधू महाराज उसी तरह बेहोश पड़े थे। लडक़ों ने बहला फुसला कर नित्यानंद से परांठे बनवा लिए थे और अब चिलम का घूंट लगाए बेसुध हो रहे थे।
आधा चांद, मंदिर के पास बूढ़े बरगद के ऊपर टंगा हुआ चांद। श्याम ने उस रात जी भर चांद को देखा, मधुमालती की सुगंध को अंतस में भर प्रण किया कि वे बेकार सी जिंदगी नहीं जिएंगे। कुछ तो अर्थ हो, मकसद हो सांस लेने का।
मंदिर के अहाते में पूरी रात बीत गई। हलका सा उजास हुआ, तो श्याम उठ खड़े हुए। प्रवीर ने ही पूछा,'हम साथ चलें? दो चार दिन। कोई दिक्कत तो नहीं होगी?'
बिना सोचे समझे श्याम ने हां कह दिया। रास्ता ढूंढना उतना मुश्किल ना था। घर की राह आते ही श्याम आशंका में पड़ गए। कमलनयन ने आज लौटने की कही थी। शोभा ने पता नहीं रात क्या किया होगा? घर के सामने ही शोभा दीख गई। बरामदे में गीले बाल सुखाती हुई। श्याम को इतने सारे युवकों के साथ देख कर थोड़ा अचकचा गई। श्याम ने अटपटा कर कहा,'चाय पिलाएंगी?'
प्रवीर ने टहोका, तो श्याम हड़बड़ा कर बोले,'मेरे दोस्त की बीवी है। यहीं रहते हैं दोनों।'
शोभा चुपचाप सबके लिए चाय और मठरियां ले आई। नहा-धो कर श्याम दफ्तर के लिए निकल गए। शोभा को यह भी बता कर नहीं गए कि खाना पकाओ, नहीं पकाओ। लडक़े यहीं रहेंगे या चले जाएंगे।
दिनभर इंतजार करते रहे कि कमलनयन लौट आएगा तो आगे की भूमिका वह संभाल लेगा। शाम तक वह नहीं आया। श्याम बैंक से लौटे। सारे लडक़े उनके तीन दीवारों वाले घर में जमे थे। विनोद की तबीयत ठीक लग रही थी। पूरे कमरे में सिगरेट का धुआं। कागज इधर-उधर बिखरे हुए। शोभा रसोई में थी। साग चुन रही थी। श्याम को देखा तो चेहरे पर बेबसी के से भाव आए। श्याम को दया आ गई। साथ बैठ गए और धीरे से बोले,'देखो, कमलनयन के लौटते ही तुम दोनों अलग कमरा ले कर चले जाना। तुम्हें आराम मिलेगा। इस तरह मेहमान की तरह कब तक रहोगी?'
शोभा ने पलकें उठा कर श्याम की तरफ देखा। चेहरे पर अजीब से भाव। उसके होंठ फडक़े। वह धीरे से बोली,'वे नहीं आएंगे अब।'
'क्या? क्यों? तुमसे कुछ कह कर गए क्या? बोलो तो?' श्याम सिटपिटा से गए। आवाज शायद थोड़ी ऊंची हो गई।
शोभा शांत थी। उसी तरह साग चुनने में लगी रही। रुक कर बोली,'समझ में तो आ ही जाता है ना श्याम जी। उनका इस तरह से जाना... पल्ला झाड़ कर ही तो गए हैं। हमें क्या पता नहीं? आप बताओ, आपको तो बता कर गए होंगे कि ... हमारा क्या करना है?'
श्याम को गुस्सा आ गया। सब पर। पहले कमल नयन पर, फिर अपने आप पर भी। अगर शोभा सच कह रही है तो क्या करेंगे उसका? वापस जाए वहीं जहां से आई थी?
'मुझे कुछ नहीं पता। ... पता करने की जरूरत भी नहीं है।' वे भन्ना कर उठ गए वहां से।
सीधे ढाबा जा कर सबके लिए रोटी और दाल मखानी बनवा लाए। लडक़े खा-पी कर सो गए। उसी एक तीन दीवारों वाले कमरे में पांच लडक़े, एक अधेड़ आदमी और शोभा-- इतनी जगह भी नहीं थी। गनीमत थी कि गरमियों के दिन थे। वरना उनकेपास इतने आदमियों के लिए बिस्तर और रजाइयां कहां थी?
शोभा रसोई के बाहर फैल गई। श्याम को लग रहा था इतने मर्दों के रहते उसे रसोई में सोना चाहिए। एक आदमी के लिए वहां जगह कम नहीं।

क्रमशः......................

Monday, September 22, 2008

करवट बदलने से टूट जाते हैं सपने



जयंती किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। फिर भी हम बता दें कि जयंती रंगनाथन ने अपने कैरिअर की शुरुआत जानीमानी हिंदी पत्रिका धर्मयुग से की। इसके बाद तीन साल तक सोनी एंटरटैनमेंट चैनल से जुड़ीं। महिला पत्रिका वनिता में बतौर संपादक रहने के बाद दैनिक अमर उजाला में फीचर संपादक का पदभार संभाला। संप्रति साउथ एशिया वॉयस में संपादक है और बच्चों की पत्रिकाएं मिलियन वर्ड्स और लिटिल वर्ड्स का प्रकाशन और संपादन कर रही हैं। उनके दो उपन्यास आसपास से गुजरते हुए (राजकमल), औरतें रोती नहीं(पेंगुइन/यात्रा) से प्रकाशित और खानाबदोश ख्वाहिशें (सामयिक) से प्रकाशन को तैयार हैं। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के निबंध संग्रह का अनुवाद भारतीय अर्थ व्यवस्था पर एक नजर: कुछ हट कर (पेंगुइन), कहानी संग्रह सन्नाटे, देहरी भई विदेश (राजेंद्र यादव द्वारा संपादित) में कहानियां/ लेख प्रकाशित हुए हैं।
देश के अग्रणी पत्र पत्रिकाओं में कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। हम इर्द-गिर्द पर उनके आगामी उपन्‍यास के अंश तीन किश्‍तों में प्रकाशित कर रहें हैं।


मन्नू की नजर से: १९८९

'मन्नू, मैं बहुत परेशान हूं। मैं शायद अब आ नहीं पाऊंगा...'
मन्नू हाथ में कांच की कटोरी में चना-गुड़ लिए खड़ी थी, धम से गिर गई कटोरी। चेहरा फक। आंख में टपाटप आंसू भर आए। ऐसा क्यों कह रहे हैं श्याम? उसके पास नहीं आएंगे? उसका क्या होगा?
श्याम बैठे थे, आंखें बंद किए। मन्नू उनके पैरों के पास बैठ गई। आंसुओं से तलुआ धुलने लगा, तो श्याम के शरीर में हरकत हुई,'मत रो मन्नू। मैं रोता नहीं देख पाऊंगा तुझे। तू ही बता करूंक्या?'
'दिद्दा ने कुछ कहा क्या?' मन्नू ने सहमती आवाज में पूछा। श्याम की पत्नी रूमा को वह दिद्दा ही कहती थी।
श्याम धीरे से बोले,'तुम्हें कैसे बताऊं मन्नू? जिंदगी इतनी आसान नहीं, जितना हम समझते हैं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं... पर देखो ना, कुछ नहीं कर पाता। यहां आता हूं और अपनी परेशानियां तुम पर लाद कर चला जाता हूं। तुम अकेली हो, उधर रूमा के पास सब कुछ है भरापूरा घर, पैसा। एक पति होने की ताकत है रूमा के अंदर।'
'ऐसा नहीं सोचते। अगर दिद्दा नहीं चाहतीं, तो आप कभी मेरे पास ना आते।'
श्याम ने बहुत धीमी और लुप्त आवाज में कहा,'यहां आने की मैं कितनी बड़ी कीमत चुका रहा हूं, तुम्हें नहीं मालूम मन्नू।'
मन्नू को सुनाई दे गई श्याम की आवाज। इस आवाज के सहारे वह बहुत बड़ी लड़ाई लड़ रही थी जिंदगी से। किसी तरह अपने को संभाल कर वह दो रोटी और तुरई की रसेदार सब्जी बना लाई श्याम के लिए। जब उसके पास आते श्याम, तो खाना यहीं खा कर जाते। मन्नू के लिए वह दिन हर तरह से विशिष्ट होता। श्याम की पसंद का खाना बनाना, ठीक से काजल-बिंदी लगा कर तैयार होना, रंगीन साड़ी पहनना और जरा सा इत्र लगाना।
श्याम शाम को ही आते थे, दफ्तर से सीधे। पहले से बता जाते कि अगली बार शुक्र को आऊंगा। मन्नू की तैयारियां शुरू हो जाती। तन-मन से प्रफुल्लित। बेसब्री से इंतजार करती। श्याम चालीस पार कर चुके थे। पर अब भी शरीर बलिष्ठ था। बालों में हलकी सी सफेदी, हलका सा बड़ा हुआ पेट। हाथ और छाती में बाल ही बाल। घने काले बाल। घर पर होते तो कमीज कुरसी पर डाल सीना उघाड़ कर बैठते। मन्नू को उन्हें ऐसे देखना बहुत भला लगता। अपने सीने में उसका नन्हा सा सिर रख कर कहते,'तुम बिलकुल गुडिय़ा सी हो। हाथों में भर लूं, तो चेहरा आ जाए।'
मन्नू कभी गरम पानी से उनके पैर धोती, तो कभी नाखून साफ कर काटने बैठ जाती। मन होता, तो चमेली का तेल हलका गरम कर बालों में लगा सिर का मसाज करती।
श्याम को मन्नू के हाथों तेल लगवाना बेहद पसंद था। उस दिन तो दोनों ही तेल में गुत्थमगुत्था हो जाते। फिर चलता प्रगाढ़ता का लंबा दौर। अधेड़ श्याम के अंदर जैसे ऊर्जा का समंदर ही भर जाता। मन्नू उनकी गोद में बच्ची ही तो लगती थी। युवा मन्नू के चेहरे पर कमनीयता थी, पारदर्शी त्वचा, हलकेभूरे बाल। खूब मुलायम। छोटा कद, नाजुक बदन। श्याम उसे उठाते, तो लगता जैसे रुई का सुगंधित फाहा अपने पूरे अस्तित्व के साथ उड़ रहा हो। मन्नू जो उड़ती, तो साड़ी का पल्लू श्याम के चेहरे पर एक परदा सा बन उन्हें और मोहित कर जाता। हर बार मन्नू का सान्निध्य उन्हें चमत्कृत कर जाता। कितना प्यार है इस औरत के अंदर। प्यार मन्नू को बदल देता है। वह केंचुल उतार हंसिनी बन जाती है। बहुत बेबाक और उनमुक्त हो जाती है मन्नू। श्याम को कई बार डर लगता है। वे अब जवान नहीं रहे। ढल रहे हैं। मन्नू जितना सान्निध्य चाहती है, वे दे नहीं पाते। जब कभी मन्नू को मना कर वे लौट आते हैं रूमा के पास, धधक मची रहती है। मन्नू अभी युवा है, कहीं उसकी जिंदगी में कोई और आ गया तो?


वे खुद संभलना चाहते हैं। उनकी बड़ी बेटी उज्जवला सत्रह की हो जाएगी। छोटी अंतरा तेरह की। एक ही बेटा है अनिरुद्घ। सबसे बड़ा है। रूमा का एक तरह से दाहिना हाथ है। कॉलेज में है। रूमा अपने सभी बच्चों को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। श्याम महसूस करने लगे हैं कि घर का माहौल उनके लिए कठोर होता जा रहा है। रूमा ने बेशक उन्हें मन्नू के पास जाने से मना ना किया हो, वह दूसरी तरह से उनसे बदला ले लेती है। वे गांव में अपने माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर पाते। एक बहन है सरला, बिन ब्याही, शादी की उम्र बीत ही चुकी, वे कुछ नहीं कर पाए। अम्मा कह कर थक गईं। पिताजी का लीवर जवाब दे गया। रूमा ने मना कर दिया कि वे यहां ला कर इलाज नहीं करवाएंगी।
श्याम की आवाज घुट गई है।

उपन्‍यास अंश
उस शाम श्याम जब मन्नू के घर से लौट रहे थे, बस स्टॉप पर ही चक्कर खा कर गिर पड़े। लगभग दस मिनट की बेहोशी के बाद नींद टूटी, तो अपने आपको सडक़ किनारे लेटा पाया। माथे और घुटने छिल गए थे। खून निकल आया था। सिर चकरा रहा था। कुछ लोग उन्हें घेरे खड़े थे। उन्हीं में से एक ने झटपट उनके लिए पानी का इंतजाम किया।
श्याम की समझ नहीं आया कि उन्हें चक्कर कैसे आ गया। दोपहर को खाना खाया तो था। ठीक है कि चलते समय हमेशा की तरह गुड़-चने नहीं खाए, पर इससे चक्कर? लग रहा है जैसे शक्ति चुक सी गई है।
आधे घंटे तक वे बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। शरीर में ताकत आई, तो बस में बैठ गए।
लगा जैसे जिंदगी हाथ से निकलती जा रही है। अब ज्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बच्चों का क्या होगा? मन्नू का क्या होगा? पिताजी का इलाज? बहन? मां? इन सबके बीच रूमा का ख्याल जरा नहीं आया।
अंतरा घर के बाहर ही सहेलियों के साथ लंगड़ी बिल्लस खेल रही थी। पापा को देखते ही दौड़ी आई,'पापू, राजू चाचा आए हैं बुआ के साथ।'
श्याम चौंक गए। जरूर पिताजी ने भेजा होगा। इतने दिनों से बुला रहे हैं। तीन-चार पत्र लिख चुकेे। दसियों ट्रंकाल कर डाले। एकदम से उन्हें डर सा लगने लगा। पता नहीं रूमा ने राजू और सरला के साथ क्या किया होगा?
सरला बरामदे में ही बैठी थी। मेथी के पत्ते अलग कर रही थी। भैया को देखते ही खड़ी हो गई। पहले से ढल गया था सरला का चेहरा। मन्नू से एक ही साल तो छोटी है सरला। घर में सबसे छोटी। श्याम तेरह बरस के थे, तब पैदा हुई। गोद में लिए फिरते थे। बचपन में उसे खाना खिलाना, उसकी चोटी बनाना जैसे सारे काम वे ही करते थे। रूमा से शादी के बाद तो जैसे भूल ही गए अपनी बहन को। सरला को देख बहुत बुरा लगा श्याम को।
घर के अंदर ही राजू बैठा था अनिरुद्ध के साथ। श्याम ने रूमा को खोजने की कोशिश की। वह शायद अंदर कहीं थी। घर में शांति थी, इसका मतलब था कि राजू का मकसद पिताजी का संदेश लाना या पैसे मांगना नहीं था। श्याम राजू के पास बैठे ही थे कि उज्जवला हाथ में पेड़े का डिब्बा उठा लाई,'पापा, बुआ की शादी तय हो गई है। अगले महीने है।'
श्याम ने मिठाई का टुकड़ा उठा लिया। तो आखिरकार बहन का रिश्ता हो ही गया। इस बार पिताजी ने उसे बताया तक नहीं, अभी भी मेहमान की हैसियत से ही न्योता है। उन्हें भी पता है कि जरा सा कुछ मांग करते ही श्याम की बीवी बेटे की जिंदगी तबाह कर देगी।

रातभर इसी उधेड़बुन में रहे श्याम कि बहन को क्या दें? बहुत ज्यादा नहीं तो इतना कम भी नहीं कि पिताजी को धक्का ही लग जाए। पचास हजार तो होने ही चाहिए। उनकी शादी सन १९७० की गरमियों में हुई थी। उसी समय रूमा के घर वालों ने पचास हजार से ज्यादा खरचा था। श्याम के पिता के हाथ में नकद दस हजार रखे थे। पता नहीं पिताजी ने उन रुपयों का किया क्या? श्याम को लगा था कि उसकी शादी के बाद पिताजी उसकी मदद करते रहेंगे। वे गांव के डाकघर में बड़े बाबू थे।
जब अनिरुद्ध हुआ, तो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ चुका था। वे उन दिनों सिविल्स की तैयारी में लगे थे। घर के खर्चे के लिए एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थे, दो-चार ट्यूशन भी कर लेते। उस समय तक तो उनके पास साइकिल ही थी। रूमा पीछे पड़ी थी कि स्कूटर खरीदो। इस तरह साइकिल में घूमते हो, मेरे परिवार वालों की इज्जत क्या रहेगी? मेरे घर वाले दिल्ली रहते हैं। तुम्हारा क्या? कोई जानता भी है तुम्हें? बहुत संघर्ष भरे दिन थे। शादी तो कर ली थी, पर लगा कि इस तरह से ना पढ़ाई हो पाएगी ना नौकरी। घर चलाना इतना भारी काम है, इसका अंदेशा था ही नहीं। रूमा अलग परिवेश से आई थी। जिंदगी के मायने अलग थे। बहुत कोंचती--ये नहीं है, वो नहीं है। ऐसा नहीं, वैसा नहीं।
श्याम कुंठित रहने लगे थे। स्साला आइएएस बन कर करना क्या है? जिनकेलिए बनना चाहते हैं, वो तो उनकी औकात दो कौड़ी का भी नहीं आंक रहे। ठीक प्रिलिम परीक्षा से एक दिन पहले उन्होंने ठान लिया कि नहीं बनना कलेक्टर। नौकरी की खोज शुरू हुई। दो महीने बाद हाइ स्कूल में मास्टर बन गए। उसी बरस बैंक में क्लर्क के पद का इम्तहां दिया। छह महीने बाद पक्की नौकरी मिल गई । वहीं रहते-रहते प्रोबेशनरी ऑफिसर बन गए।
शुरू में भतेरे ट्रांसफर हुए। कभी अलीगढ़, तो कभी जौनपुर। एक बार तो झांसी से सौ किलोमीटर दूर एक मुफसिल से कस्बे में दो साल रहना पड़ा। एक रूखी जगह। घर के नाम पर तीन दीवारों वाला सीमेंट का मकान। एक दीवार मिट्टी की, जिससे बारिश के दिनों में रिस-रिस कर पानी अंदर आता था। खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं। एक ढंग का ढाबा नहीं। श्याम बुरी तरह उकता गए। कस्बे के लोग आलसी और दगाबाज किस्म के थे। पास ही वेश्याओं की पुरानी बस्ती थी। बैंक केआधे कर्मचारी सुबह-शाम वहीं पड़े रहते। वहीं रहते-रहते एक घटना हो गई।
श्याम के साथ काम करते थे कमलनयन। क्रांतिकारी किस्म के कम बोलने वाले आदमी। बनारस का पढ़ा लिखा। श्याम के वे एकमात्र हमप्याला-हमनिवाला थे। जब भी मौका मिलता, दोनों मिल बैठ कर बिअर पीते। कमलनयन का लगाव एक वेश्या के साथ हो गया। वह कभी-कभी उसे घर भी ले आते। शोभा नाम था उसका। उम्र बीसेक साल। पतली-दुबली शोभा के चेहरे का पिटा हुआ रंग श्याम को कचोट जाता। भूरे पतले बालों की दो चोटियां बना कर रखती। उसके शरीर के हिसाब से उसके वक्ष भारी लगते। लगता वक्षों के बोझ तले वह दबी हुई है। साड़ी ही पहनती थी शोभा, वो भी खूब चमकीली।
एक दिन कमल नयन शाम ढले लाल साड़ी में लिपटी शोभा को श्याम के तीन दीवारों वाले मकान में ले आए,'ले श्याम, मैं तेरे लिए भाभी ले आया...'
श्याम सकपका गए। शोभा शरमाती हुई पीछे खड़ी थी। अचानक वह तेज कदमों से श्याम के पास आई और उनके पैर छू लिए। कमलनयन हंसने लगे,'ऐसे क्या देख रहा है बे? शादी की है इनसे मंदिर में। इनकी अम्मा तो मान ही ना रही थी, बड़ी मुश्किल से पांच हजार का सौदा करके इन्हें ले आए हैं। क्यों ठीक है ना दोस्त? ज्यादा कीमत तो नहीं चुकी दी हमने?'
श्याम ने देखा, शोभा की आंखें पनीली हो उठी थीं। उसे अच्छा नहीं लगा था, अपने मोलभाव का खुला बखान। कमलनयन और शोभा उस रात श्याम केही पास रहे। कमलनयन के घर में बिस्तरे की व्यवस्था नहीं थी, फिर अपने मकानमालिक से भी उन्होंने शादी की बात नहीं की थी। श्याम बरामदे में सो रहे। अगले दिन सुबह उठ कर चाय शोभा ने ही बनाई। रात भर में उसका चेहरा बदल गया था। चेहरे पर लुनाई, एक सुरक्षा से भरा चेहरा।
वह उसे श्याम जी बुलाती थी। कमलनयन को साहब जी। कमलनयन ने बिना कुछ कहे श्याम के घर डेरा डाल लिया। श्याम डर रहे थे। हर साल गरमी की छुट्टियों में रूमा बच्चों को ले कर उनके पास आती थी। इस बार कह रही थी कि उसकी मां भी आना चाहती है। अगर उसे पता चल गया कि घर में उन्होंने एक वेश्या को पनाह दी है, तो उनकी खैर नहीं। कमल नयन अपने घर नहीं जाना चाहते थे। उस इलाके में हर कोई शोभा से परिचित था, कई तो उसके ग्राहक भी रह चुके थे।
श्याम केघर का इलाका अपेक्षाकृत सुनसान था, सौ मीटर की दूरी पर एक छोटा सा मंदिर था हनुमान का। उसके आगे जंगल।
श्याम के बहुत सहमत ना होने के बावजूद कमलनयन और शोभा वहां टिक गए। पहले दो दिन श्याम बरामदे में सोए, पर फिर कमरे मेें ही आ गए। वापस अपने तख्त पर। नीचे रजाई बिछा कर शोभा और कमल सोते। श्याम को संकोच होता। कई रातें उनके लिए मुश्किल हो जातीं। जमीन पर कमल और शोभा को संभोग करते देखना, सुनना उनके लिए असह्य हो जाता। वे मना कर सकते थे, पर एक किस्म का आनंद आने लगा था श्याम को। कमल नयन अच्छे प्रेमी नहीं थे, लेकिन शोभा पुराना चावल थी। पता नहीं अपने ग्राहकों को कितना संतुष्टि देती थी, अपने पति को तो सहवास का भरपूर सुख दे रही थी, वो भी प्राय: रोज ही। शोभा के सीत्कार श्याम को उत्तेजित कर देते। बिस्तर पर लेटे लेटे उनका हाथ सक्रिय हो जाता। वे आनंद में खो जाते और चरम पर पहुंच जाते। ना जाने कितनी रातें... ना जाने कितनी फंतासियां। पर उन्हें कभी नहीं लगा कि शोभा के साथ वे सेक्स करने को इच्छुक हैं। दिन की शोभा और रात की शोभा वे गजब का परिवर्तन था। वह नहा-धो कर स्टो जलाती। चाय बनाती। कभी पूरी, तो कभी परांठा बना कर दोनों दोस्तों को काम पर भेजती। दोपहर को चावल-दाल। रात को रोटी के साथ तरी वाली सब्जी।
श्याम को खानेपीने की सुविधा हो गई। घर व्यवस्थित हो गया। कमलनयन खर्चे बांट लेते। किराया श्याम देते, राशन-पानी कमल ले आते।
पूरे दो महीने यह व्यवस्था चली। श्याम को यह जान कर राहत मिली कि रूमा नहीं आ पाएगी। मां सीढिय़ों से गिर कर हाथ तुड़वा बैठी थीं। ऐसे में रूमा को वहां रहना जरूरी था।
श्याम को बहुत बड़ी नियामत मिल गई। रूमा के यहां आने के नाम भर से वे घबरा गए थे। पिछली गरमियों के एक महीने बहुत कष्ट में बीते थे। लगातार रूमा की शिकायतें सुनते-सुनते वे चकरा गए थे। इतने कि पंद्रह दिन की छुट्टी डाल वे सबको शिमला ले गए और वापसी में सबको दिल्ली छोड़ कर खुद यहां चले आए।
कमल नयन का परिवार बिहार के चंपारण क्षेत्र से था। वे जोश में बताते थे कि उनके परिवार में के कई लोग आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हैं। उनके परिवार में अब तक यह खबर नहीं पहुंची थी कि कमलनयन ने शादी कर ली है। इसी बीच कमलनयन के गांव से कोई परिचित आ पहुंचा। कमलनयन के पुराने घर गया, वहां से सीधे बैंक आ पहुंचा।
रंग उड़ा पाजामा-कुरता, बिखरे बाल और तनी हुई मुद्रा। कमलनयन उसे देख सकते में आ गए।
'ये हरामी का पिल्ला, ससुर कनाती देबुआ यहां कैसे आ पहुंचा?'
देबू एकदम से सामने पड़ गया। कमलनयन किसी तरह घेरघार कर उसे बाहर चाय पिलाने ले गए। उसे एक दिन बाद लौटना था और चाहता था कि रहे कमल बाबू के ही साथ। ऐसा चाट कि श्याम ध्वस्त हो गए। शाम को उन्हीं के साथ चल पड़ा देबू। कमल की बोलती लगभग बंद थी। घर पर कदम रखते ही कमल ने सबसे पहले यही कहा-श्याम, जरा भाभी से कह दो, खाना एक आदमी केलिए ज्यादा बना दे। दाल-भात चलेगा। घर जैसा।
श्याम सकपकाए। क्या कमल देबू का परिचय शोभा से नहीं कराएंगे? दूर की बात, कमल ने शोभा से बात ही नहीं। कुछ कहा भी तो श्याम के
मार्फत। वो भी भाभी कहते हुए। शोभा चुपचाप सिर पर आंचल रखे स्टोव फूंकती रही। खा-पी कर देबू और कमल बरामदे में आ गए। अंदर बिस्तरा लेने गए तो फुसफुसा कर श्याम के कान में कहा,'मैं भी जरा बाहर ही सो लूं। कुछ गांव घर की बात करनी है।'
श्याम अचकचा गए। बीवी अंदर उनके साथ? कमलनयन को किस बात की शरम है?
शोभा ने कुछ कहा नहीं। पर जमीन पर बैठी-बैठी वह रोती रही। श्याम ने उसके अपना तकिया और चादर दे दिया। शोभा का निशब्द रोना उन्हें अंदर तक साल गया। मन हुआ कि इसी वक्त दरवाजा खोल कमल का झोंटा पकड़ उसे अंदर खींच लाए। इस औरत ने गलत किया जो उससे मुंह छिपा रहा है?
लेकिन एक बात तो तय कर ही लिया श्याम ने कि कल कमल के रिश्तेदार के रवाना होते ही वे उससे साफ कह देंगे कि अब वो अपना दूसरा घर कर ले। उन्हें इस तरह किसी दूसरे की बीवी के साथ रहते असुविधा होती है। वैसे भी शोभा उनकी अमानत है, वे ही ख्याल रखें।
सुबह छहेक बजे दरवाजा ठेल कर कमल अंदर आ गए। उस समय भी शोभा जमीन पर ही टेक लगाए ऊंघ रही थी। कमल ने एक तरह से झकझोर कर श्याम को जगाया,'दोस्त, जरा देबू को झांसी तक छोडऩे जा रहा हूं। कुछ रुपए होंगे...?'
श्याम ने अपना पर्स टटोल कर उन्हें दो सौ रुपए दे दिए। महीने के अंत में इतना होना बड़ी बात थी। उस समय जब तनख्वाह साढ़े सात सौ रुपए हों।
श्याम पैसा ले कर बाहर निकले, फिर ना जाने क्या सोच कर अंदर आए। शोभा उसी तरह जमीं पर हक्की-बक्की सी बैठी थी। बस आंखें यह जानने का इंतजार कर रही थी--मेरे वास्ते क्या हुकुम साहिब?
उन दोनों को सुना कर बोले कमल,'कल तक आ जाऊंगा। ख्याल रखना...'
अपने रबर के जूते फरफर करते कमल बाहर निकल गए। श्याम बाहर लपके, यह कहने को कि कल तुम अपना कहीं प्रबंध करके ही आना, पर कमल जा चुके थे।

क्रमशः......................

Friday, September 19, 2008

इश्‍क-ए-बुतां!

हमारे एक मित्र हैं। आला अफसर। उल्‍टा पुल्‍टा......न न बाबा, ऐसा नहीं कहते। इसलिए आप चाहें तो उत्‍तम प्रदेश कह सकते हैं।....मैं तो फिलहाल यूपी कहकर ही काम चला लेता हूं। आप कुछ भी ! ...क्षमा कीजिएगा, मैं अपने मित्र की चर्चा करते हुए भटक गया था। मेरे मित्र यूपी से ही हैं। कथाकार-व्‍यंग्‍यकार हैं। सीधी-सपाट बात करते हैं और धारदार लिखते हैं लेकिन शायद इन दिनों थोड़े सहमे हैं। इसलिए, पहली बार वह अपनी पहचान छिपा रहे हैं लेकिन ये उनकी कलम से उनकी अपुन कहिन है।


आई, चली गई। आजकल सरकारें आती ही जाने के लिए हैं। सरकार बहादुर ने सिर्फ दो काम किए थे। वसूली-लक्ष्‍य पूरा किया था.....कर व‍सूली का नहीं, सुविधा-शुल्‍क वसूली का। दूसरा कार्य था राजधानी में विभिन्‍न स्‍थानों में बुत खड़े करने का। इसके अलावा सरकार ने कुछ नहीं किया। विकास कार्य एकदम ठहर गए, समस्‍याएं सुरसा हो गईं, गरीब ज्‍यादा गरीब हो गए।

अगली सरकार आई। उसके संकल्‍प .....पिछली सरकार से दोगुनी कमाई करना और दोगुने बुत बनबाना। प्रतियोगिता प्रदेश के विकास को लेकर नहीं, घूस और बुत को लेकर। सरकार ने चौराहों पर, पार्को में, फुटपाथों पर, ओनों-कोनो में, सार्वजनिक भवनों के सामने और भीतर भी इतने बुत बनवा डाले कि महापुरुषों की किल्‍लत पड़ गई। तब उसने मृत छुटभईयों के बुत खड़े करने शुरू कर दिए। बुत टन-दो टन हैसियत वालों के नहीं किलो-दो किलो हैसियत वाले अनजाने, अनचीन्‍हे, अबूझ, अनाम भूतों ......!

तीसरी सरकार आई। उसका संकल्‍प पिछली सरकार से तिगुनी कमाई करना और तिगुने बुत बनवाना था। सरकार जितनी ऊपरी कमाई करती थी उसी अनुपात से बुत बनवाती थी यानी बुत की गणना कर ऊपरी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता था या यूं कहें कि ऊपरी कमाई की जानकारी होने पर बुतों का अंदाजा लगाया जा सकता था। अंकगणित बहुत !

सरकार का चाल-चरित्र-चिंतन ऐसा कि लोगों में भय व्‍याप्‍त हो गया। जाने कब गोली मारकर कह दिया जाए कि 'अमुक जी' ने देश-समाज के लिए शहादत दी है और जीता-जागता व्‍यक्ति किसी चौराहे, पार्क, ओने-कोने या सार्वजनिक भवन में बुत में तब्‍दील हो जाए। लोग अंधेरे-उजेले निकलने में घबराने लगे। बुत देखकर कांप जाते...........कल मेरा भी यही हश्र न हो।

कुछ बात तो है मोमिन जो छा गई खामोशी,
किसी बुत को दे दिया दिल जो बुत बन गए।

सरकार जीवित व्‍यक्तियों के लिए कुछ न करती, पर मृत व्‍यक्तियों की प्रतीक-पूजा के लिए सदैव तत्‍पर रहती। वह लोगों से कहती, ''बुतों को देखो, इनसे प्रेरणा ग्रहण करो।''

लोग कहते, ''हमें बुत के भूत नहीं, रोटी चाहिए। हमारी खुद की जिंदगी बुत शरीकी हो गई है।''

सरकार कहती, ''रोटी? यह तो बहुत सामान्‍य चीज है। उससे कहीं ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्‍हें नमन करो, चरण वंदन करो, फूलमाला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जाग्रत होगी, चेतना से सामाजिक न्‍याय मिलेगा, सामाजिक न्‍याय से.......!''

सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लोग भूख से, गरीबी से त्रस्‍त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्‍मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही ........'' एक बुत बनाउंगा और तेरी पूजा करूंगा।'' सारा शहर बुतों से पट गया। सड़क हो या फुटपाथ, चलना मुश्किल। पार्कों में चहलकदमी भी कठिन। कौन-सी जगह जहां जलवा-ए-माशूक नहीं।

लोग दहशत के कारण शहर छोड़कर भागने लगे। शहर में सिर्फ बुत बचे या सरकारी भूत। बुत-लक्ष्‍य पूरा नहीं हो रहा था। सरकार ने तय किया कि वह अन्‍य बस्तियों के लोगों को शहीद कर बुत खड़े होने का लक्ष्‍य पूरा करेगी। ऐसे में आपको सतर्क करना मेरा परम पुनीत कर्तव्‍य है। सरकार के बुत- अभियान में कहीं आपका सिर न आ जाए ........! एवमस्‍तु न !

Tuesday, September 16, 2008

ये रंगभेद या जातिभेद से कम है भला?

(इंसान से सामान बनने की गाथा)

तीन चार रोज़ पहले एक हिंदी अखबार में अंदर के पन्नों पर छोटी सी खबर पढ़ी कि गाज़ियाबाद के फटफट वाले मोटी सवारियों को बिठाने में तो हीलहुज्जत तो करते ही हैं उनसे दोगुने पैसे भी मांगते हैं। खबर पढ़कर अपने जैसे वजनदार लोगों की हालत पर हंसी भी आई और गुस्सा भी आया उन फटफट वालों पर जो इंसान को माल समझकर माल काट रहे हैं। मैं आमतौर पर फटफट में बैठता नहीं हूं लेकिन रंगभेद से भी ज़्यादा अमानवीय दिख रहे इस भेद के बारे में आज तक सोच रहा हूं।
हमारे गांव में 20-22 साल पहले तक मोटे आदमी को सेहतमंद माना जाता था। कहा जाता था खाता-पीता है या खाते-पीते घर का है। लेकिन पिछले कुछ सालों में तनाव, अनियमित सोना-जागना और वक्त बेवक्त के खाने ने मोटापे को एक नया ही रूप दे दिया है, बीमारियों का घर। चार-पांच साल पहले जब वजन बढ़ना शुरु हुआ और एक दिन अचानक दफ्तर में सिर में बहुत दर्द हुआ तो डॉक्टर से पता चला कि मेरा ब्लड प्रेशर काफी बढ़ा हुआ है। तुंरत कई सारी दवाइयां, कसरत करने, वक्त पर सोने-जागने, गाड़ी ना चलाने और नियमित खान-पान की सलाह दे दी गई। लेकिन इन बातों पर ध्यान दूं तो नौकरी कैसे करूं। नतीजा सामने है, शर्ट और पेंट का नंबर हर साल दो की गति से बढ़ रहा है। उस समय पिताजी जीवित थे और उन्होने भी वही बोली थी जो डॉक्टर बोल रहे थे लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। फटफट वाले ध्यान ना दिलाते तो शायद अब भी ध्यान नहीं देता। लेकिन अब इंसान से सामान बन जाने के अहसास ने परेशान कर दिया है।
पर क्या सचमुच मोटा होने मात्र से आप इंसान से सामान बन जाते और किराये की जगह आपसे भाड़ा वसूल किया जायेगा। तो क्या फटफट वाले पतले लोगों से आधा किराया लेंगे, शायद नहीं। सच बताऊं फटफट वालों की कफनचोरी जैसी इस मनोवृत्ति से मन बड़ा परेशान है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में डायटिंग करके 11-12 किलो वजन घटा चुकी मेरी पत्नी का कहना है कि मैं बेवजह परेशान हो रहा हूं, ये दरअसल फटफट और रिक्शे वालों का लूटने का एक नया अंदाज़ है। वैशाली से आनंद विहार होकर गुजरते समय मैं अकसर देखता हूं कि फटफट वाले या रिक्शे वाले किस तरह एक ही सवारी से एक ही बार में लखपति बनने के जुगाड़ में रहते हैं। ज़रा सी बारिश हो जाये, धूप निकली हो या ठंड पड़ रही हो किराया एकदम दोगुना हो जाता है। और अगर सवारी कोई बुज़ुर्ग हो, महिला हो, बीमार हो या बच्चों के साथ परिवार हो तो पैसे मांगने के लिये मुंह सुरसा की तरह खुलता है। बेशर्मी की हद देखिये एक रिक्शे वाले ने मना कर दिया तो दूसरा उससे ज्यादा ही किराया मांगेगा कम नहीं। कुछ कहिये तो, तर्क ये कि पसीना बहाते हैं। आप में से कौन है जो पसीना बहाये बिना कमाता है। पसीना बहाने का तरीका अलग हो सकता है लेकिन हम सब खून पसीने की ही कमाई खाते हैं। इस कमाई की होड़ में या दौड़ में अगर कुछ लोग मोटे हो गये हैं तो वो भी गुनाह हो गया।
लेकिन मैं बता दूं गुनाह मोटा होना नहीं है गुनाह मोटा होने का एहसास कराना है। कोई और देश होता तो इस तरह की हरकतों के खिलाफ आंदोलन हो जाते सरकारें आदेश पास कर देती और ज्यादा किराया लेने वाले जेल की हवा खा रहे होते। लेकिन हिंदुस्तान के उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद में भला किसकी चलती है।
मोटापा जिसे अंग्रेजी में शायद ओबेसिटी कहते हैं, बड़ी तेजी से बढ़ रही बीमारी है। कहते हैं डायनोसोर अपने वजन की वजह से ही मर जाते थे। यानी ज़्यादा वजन जब खुद को ही झेलना हो तो जानलेवा तो होगा ही। लेकिन सबसे जानलेवा है वो अहसास जो गाज़ियाबाद के फटफट और रिक्शे वाले करा रहे हैं कि कुछ इंच और कुछ किलो ज़्यादा होने की वजह से वजनदारों की बिरादरी अलग है। यानी जो अपने शरीर से ज़्यादा परेशान हैं उनको खर्च भी ज़्यादा करना होगा। हमारे ग्रंथों में कहीं लिखा बताते हैं कि मोटापा दरिद्रता लाता है। लेकिन इस देश के ज़्यादातर राजे महाराजे भारी वजन के ही इंसान रहे हैं। इस समय भी मैसूर के राजा वाडियार से लेकर राजस्थान के कई रजवाड़ों को आप देख सकते हैं। राजा यानी पालक..अन्नदाता। इस वजन ने वजनदारों को लोकतंत्र में भी राजा बना दिया है। ये वजनदार बाकी लोगों से ज्यादा किराया देकर ना जाने कितने फटफट और रिक्शे वालों के घरों का चूल्हा जला रहे हैं। सच बताऊं परोपकार का यही अहसास मुझे इंसान से सामान बन जाने के दुख से कुछ राहत दे रहा है शायद।
राग रसोई

Saturday, September 13, 2008

...भाषा पुल बने!

भाषा पुल है
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी

Tuesday, September 9, 2008

हमको मालूम है कयामत की हकीकत

आजकल मुझे बहुत डर लग रहा है। डर की वजह है मेरा खबरिया चैनलों से प्यार, ये जितना डराते हैं मैं उतना ही उनसे चिपक जाता हूं। सचमुच मैं बहुत डरपोक हूं इसलिए इन्हें छोड़ नहीं पा रहा। मुझे लगता है कि डर दूर करने की दवा भी यही बताएंगे। बिल्कुल वैसे ही जैसे वह गीत- तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना। या जिस तरह रेगिस्तान में क्षितिज के आस-पास पानी दिखाई देता है। इल्यूजन, मृग तृष्णा।

खैर! कविता छोड़कर सीधे पते की बात पर आते हैं। मुझे कुछ खबरिया चैनल डराए हुए हैं कि ये दुनिया तबाह हो जाएगी। एक चैनल ने तो घोषणा कर दी है कि कलयुग के सिर्फ इतने दिन/घंटे बाकी हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। हर दूसरे-तीसरे दिन या सुबह-शाम कोई ज्यातिषी सेलेबिल गेटअप में बुद्धु बक्से पर आकर फिट हो जाता है। भविष्यवाणी करता है या पौराणिक कथा सुनाता है और लिपीपुती एंकर डरा-डराकर किसी फिरंगी की भविष्यवाणी सुनाती है। तभी लगने लगता है कि बेटा अब दुनियादारी का कोई फायदा नहीं, तबाह तो होना ही है। अब तो ये खबरिया ठेकेदार तारीख तक ढूंढ लाए हैं। इस बार तो मामला आथेंटकि बताया जा रहा है। एकदम, सवा सोलह आने सच। अबकी खेल किसी गंडे बेचने वाले या राशिफल बताने वाले का नहीं बल्कि साइंस का है। आने वाले बुधवार को खेल खत्म। सच बताएं! रात भर नींद नहीं आई। तरह-तरह के ख्याल आते रहे। एक ख्याल आया कि घर वाली से चोरी करके जो पैसा शेयर बाजार में लगा रखा है, उसका क्या होगा? फिर अपनी ही गुद्दी पर धौल जमाया और कहा कि मूर्ख जब ब्रह्मांड ही नहीं रहेगा तो इनवेस्टमेंट कहां बचेगा। सोचा कि धरती ही नहीं रहेगी, ब्रहमांड ही नहीं रहेगा तो मैं भी न रहूंगा। इसी उधेड़बुन में ख्याल आया कि क्यों न नेट पर जाकर कयामत के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर ली जाए। सो अब हम अंधों में काना राजा बनकर लौटे हैं लेकिन इतना जान गए हैं कि भैय्या ये खबरिया चैनल अपनी दुकान हमे और आपको डरा-डराकर या सीधे-सीधे बेवकूफ बनाकर चला रहे हैं।

वो कयामत है क्या जिसने इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया है। बुधवार दस सितंबर दो हजार आठ को ब्रह्मांड की गुत्थी सुलझाने के लिए एक प्रयोग की शुरुआत हो रही है। इस प्रयोग का नाम है एलएचसी। अस्सी देशों के साइंसदां पिछले बीस सालों से इसमें लगे हैं। अपनी भारत की भी हैं। यूरोपीय परमाणु शोध संगठन ने फ्रांस और स्विटजरलैंड की सीमा पर सत्ताईस किलोमीटर लंबी सुरंग जैसी एक मशीन बनाई है। इस महामशीन का नाम रखा गया है- लार्ज हेड्रोन कोलाइडर जिसे शार्ट में एलएचसी कहा जा रहा है। सात दशमलव सात अरब डालर के खर्च से जमीन के अंदर सौ मीटर बनाई गई इस मशीन से न्यूक्लियर के सारे रहस्यों को हल कर लेने की उम्मीद है। यानी इस महाप्रयोग से जीवन के सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। इस प्रयोग में साइंटिस्ट दो साइक्लोट्रोन से निकलने वाली विद्युत आवेशित किरणों की टक्कर से निकलने वाली एनर्जी को एक टेस्ट ट्यूब में कैद कर ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों का अध्ययन करना चाहते हैं। इस मशीन से उतनी उर्जा पैदा करने की कोशिश की जाएगी जितनी बिग बैंग यानी महाविस्फोट के समानुपातिक उर्जा उत्पन्न होगी यानी सूर्य से एक लाख गुना ज्यादा गर्मी। इसके लिए साइक्लोट्रोन और सिंक्लोट्रोन के जरिए हाई वोल्टेज के मैग्नेटिक वेव्स के बीच हेड्रोन के प्रवाह से उर्जा पैदा की जाएगी।
ये तो हुई वैज्ञानिक बात जो हमारे जैसे लोगों के सिर के ऊपर से गुजर सकती है या गुजर रही है। लेकिन बवाल क्या है ये सबकी समझ में आ जाएगा क्योंकि हम बवाल समझने में कभी कोई कोताही नहीं करते। दरअसल यूरोप के कुछ वैज्ञानिक और मानवतावादी संगठन इस प्रयोग के खिलाफ खड़े हो गए हैं। ये लोग कोर्ट की शरण में भी पंहुचे लेकिन इनकी दलीलें नकार दी गईं। इनका तर्क है कि ब्रह्मांड की गुत्थी सुलझाने का ये प्रयोग कयामत ला सकता है। इन लोगों का मानना है कि इस विनाशकारी प्रयोग से धरती या सूरज ही नहीं बल्कि समूचे ब्रह्मांड का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। ब्लैक होल बनने से ब्रह्मांड का नामोनिशान भी नहीं रहेगा। लेकिन यूरोपीय परमाणु एजेंसी इस प्रयोग को एकदम सुरक्षित बता रही है। एजेंसी के मुताबिक प्रयोग के लिए टेस्ट ट्यूब के प्रत्येक चरण का टेस्ट किया गया है। सुरक्षा की दृष्टि से इसमें बड़-बड़े मैग्नेट लगाए गए हैं जो सुपर कंडक्टिंग नेचर के हैं। जिन तारों के गुच्छे में आवेशित कणों का प्रवाह किया गया है वह लिक्वीडेटर से जुड़े होने के कारण ठंडे रहते हैं। इसलिए विस्फोट की कोई गुंजाइश ही नहीं है। एलएचसी में ऐसे पार्टीकल का उपयोग भी किया गया है जिनसे उत्पन्न गुरूत्वाकर्षण शक्ति से ब्लैक होल जैसी स्थिति पैदा की जा सकती है। वैज्ञानिक इस प्रयोग के जरिए ब्लैक होल के रहस्यों को समझने का प्रयास भी करेंगे।

अब आपके सामने दोना पक्ष हैं। आप खुद फैसला कीजिए कि आपने खबरिया चैनलों पर क्या और किस अंदाज में देखा और सच्चाई क्या है।

Saturday, September 6, 2008

जब प्यार किया तो डरना होगा

क्योंकि वह एक गैर जातीय युवक से प्रेम करती थी। कुछ दिन पहले उसे खेत में गोली मारी गई। जब गोली से उसके प्राण नहीं निकले तो उसे भीड़ के सामने अस्पताल में दाखिल करा दिया गया, लेकिन बाद में मामला कुछ ठंडा होते ही उसकी अस्पताल से छुट्टी कराकर घर ले जाते समय हत्या कर दी गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाति बिरादरी में अपनी झूठी शान बनाये रखने के नाम पर इस तरह की बेशर्म हत्याएं यानी 'ऑनर किलिंग' अब आम हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में अक्सर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिनमें बाकायदा गांव की पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका के लिये मौत का फरमान सुना देती हैं। प्रेमी युगलों को पंचायत के सामने पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है। ऐसा भी नहीं कि प्रेम संबंधों में केवल प्रेमी मारे जाते हों बल्कि प्रेम के नशे में ऐसे बुजुर्गों की भी बलि चढ़ जाती है जो प्रेमियों को प्रेम में बाधक नजर आते हैं।

दक्षिण की मुझे जानकारी नहीं, इसलिए वहां के विषय में कुछ कहना बेमानी है। लेकिन ये सच है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इस मामले में खासे बदनाम है। इस बदनामी और कबीलाई संस्कृति पर अंकुश लगाने के लिए उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कबायद शुरू की है। हांलाकि सोशल पुलिसिंग की ये कबायद अभी कागजों पर है लेकिन पुलिस को कोसने का यदि हमें हक है तो उसकी अच्छी पहल या सिर्फ 'सोच' की भी तारीफ की जानी चाहिए। अब पुलिस अपने मुखबिर तंत्र के माध्यम से गली, मोहल्ले और गांवों में बढ़ती प्रेम की पींगों पर नजर रखेगी। यानी हर थाने में प्रेमी युगलों का डाटा बैंक तैयार होगा। ग्राम चौंकीदार, बीट कांस्टेबल और मुखबिरों के माध्यम से पुलिस को जैसे ही पनपते प्रेम की कोई कहानी पता चलेगी तो वह प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को सूचित करेगी। अगर प्रेम संबंध इतने पर भी जारी रहे, युवक-युवती नहीं माने और संबंध प्रगाढ़ हो गए तो दोनों के अभिवावकों को बिठाकर सम्मानजनक तरीके से हल कराने की दिशा में प्रयास करेगी। मतलब साफ है कि प्रेम विवाह में पुलिस बिचौलिए की भूमिका निभाने से भी नहीं हिचकेगी। अब आप सोच सकते हैं कि आपरेशन मजनू चलाने वाली या डंडे की भाषा समझने-समझाने वाली पुलिस दिल और दिल्लगी के मामलों में कैसे पड़ गई। खाकी वर्दी के भीतर से यकायक प्रेमरस कैसे टपकने लगा। दरअसल प्रेम जहां नई तरह से जिंदगी जीने की कला सिखाता है वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये अक्सर कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है। प्रेम संबंधों में हत्याएं ही नहीं दंगे तक हो जाते हैं, शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के पुलिस मुखिया ने सभी जिलों के थानों में टास्क आर्डर भेज कर पुलिस महकमे को एक नया काम दिया है। पुलिस विभाग का मानना है कि अक्सर युवा अपनी प्रेमिका को लुभाने के लिए अनाप-शनाप खर्च करते हैं जिसके लिए उन्हें हमेशा पैसे की दरकार रहती है। ऐसे में युवा लूट, चैन स्नेचिंग जैसे अपराधों की तरफ भी बढ़ जाते हैं। इसलिए पुलिस महकमें को आगाह किया गया है कि जैसे ही किसी युवा के प्रेम संबंधों का पता चले वैसे ही उन पर निगरानी बढ़ा दी जाए। उसकी आय, धन की आमद के सभी श्रोत और रंग-ढंग पर पैनी नजर रखी जाए। साथ ही प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को आगाह कर सामाजिक मान्यता दिलाने की पहल की जाए।

हांलाकि डंडा चलाने वाली पुलिस के लिए ये काम आसान नहीं है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढांचे में प्रेम संबंधों के चलते होने वाले हीनियस क्राइम को रोकने के लिए शायद सोशल पुलिसिंग के अलावा कोई और चारा भी नहीं है। तो आप समझ लीजिए कि यदि आप उत्तर प्रदेश में रहते हैं, युवा हैं, आपका दिल किसी के लिए धड़कता है, आप प्रेम की पींगे बढ़ा रहें हैं तो सावधान रहें क्योंकि हो सकता है कि कुछ आंखे हमेशा आपकी टोह में पीछे लगी रहें।

हमारा मानना है कि मौजूदा समय में सोशल पुलिसिंग की बेहद जरूरत है लेकिन इसमें मतभेद हो सकते हैं कि सोशल पुलिसिंग का स्ट्रक्चर और चेहरा कैसा हो। हम चाहते हैं कि हमारे सुधी पाठक, चिंतक और समाज के अलंबरदार इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचें। कैसी हो सोशल पुलिसिंग? कैसा हो उसका स्वरूप? सीमाएं क्या हों? ऐसे तमाम मुद्दों पर आपकी विस्तृत राय की अपेक्षा है।

Wednesday, September 3, 2008

वाह, आह, हाय पुरस्कार

वे साहित्यकार थे । साहित्यानुरागी थे । अध्येता-विद्वान थे । सुधी पाठक थे और भी न जाने क्या-क्या। उनका बायोडेटा जेब से निकलकर मेरे सम्मुख भी पसर गया । मैंने उनकी तरफ देखा । उनकी आँखों बोली ‘‘मान गए’’
मेरी आँखें जो बोली उससे उन्होंने क्या अर्थ लगाया, पता नहीं, फिर उनके हाथ थैले में गए ‘‘इसे भी देख लीजिए’’ उन्होंने कहा, उनका अभिनंदन ग्रन्थ था, फिर वे कई-कई सन्दर्भ सुनाते रहे । बेलाग तरीके से उन्होंने कहा ‘‘अब तो मैं समझूं कि आप मुझे समझ गए होंगे ।’’
मेरे बोल फटे ‘‘हाँ, अरे आप क्या कह रहे हैं, आपको कौन नहीं जानता ।’’
‘‘जानते तो सब हैं पर मानता तो नहीं कोई ।’’
‘‘मतलब’’
‘‘मतलब यही कि देखिए अकादमी पुरस्कार गया, संस्था ‘क’ ने भी मुझे नहीं परखा, अब आप जैसे न्यायी लोग हैं तो उम्मीद बनती है ।’’
‘‘हाँ जी, सो तो है ।’’
‘‘तो मैं पक्का समझूँ ।’’
‘‘क्या ?’’ मैं भौंचक था ।
‘‘यही कि इस बार आप मुझे इसके लिए सुपात्र कहंेगे । देखिए आप गुणी, विद्वान पारखी हैं । जरूर साहित्य में उपेक्षितों पर आपकी नजर जानी चाहिए ।’’
‘‘सो तो है पर--।’’
‘पर-वर, किन्तु-परन्तु, अगर मगर ठीक नहीं है बंधु ----। आपको जरूर हमारा ध्यान रखना चाहिए आखिर --- ?’’
‘‘यही कि आप हम एक ही बिरादरी से हुए ।’’ ‘‘अरे ये क्या बात हुई, आप सम्माननीय हैं, लेकिन मैं ये बिरादरी का मामला समझता है यह तो साहित्य का सवाल है और --।’’ ‘‘अरे मैं भी तो उसी बिरादरी की बात कर रहा हूँ, अब यह अलग बात है कि आप भी पंडित है और हम भी, परन्तु विरादरी साहित्य की तो है ही, फिर हम रहने वाले भी ता एक ही तरफ के हुए ।’’
मैं चैंका, बिरादरी से बचे तो क्षेत्र पर जा अटके । बोला ‘‘सो तो हम सभी भारतीय ही हैं अब आपको ऐसी बातें षोभा देती है भला, बिरादरी ..... क्षेत्र ...... ।’’
‘‘सो मत मानिए पर जो है सो तो है अब आप यह तो मानिएगा कि चिन्टू की भतीजी मेरी भानजी हुई और वह आपके रामजी लाल जी घरवाली उसकी ......।’’ मैंने टालने के लिहाज से कहा ‘‘उससे मैं कब इनकार कर रहा हूँ परन्तु यहाँ आपका सब साहित्य-बायोडेटा है इस परिचय की जरूरत नहीं पड़ेगी, ऐसा मैं मानता हूँ ।’’ मेरा ऐसा कहते ही वे हत्थे से उखड़ गए-‘‘नवीन बावू मत मानियो, मैं भी नहीं मानूँगा, पर देखे पहली बार कमेटी में आये हो सो कहूँगा शुक्ला, शर्मा, बाजपेयी, सिंह जो जो कमेटी में रहे अपने लोगों को मान किया हम आप न मानें तो भी क्या फर्क पड़ जाएगा, वे तो यही करते हैं ।’’
पुरस्कार समिति का सदस्य बनते ही सदाषयता भरे ऐसे महापुरूषों/विदुषियों को मैंने कई दिन झेला, बहरहाल समिति में बाकी सदस्यों ने भी कुछ ऐसी ही बातें बताई और एक दिन पुरस्कार घोषित हो गया, जाहिर था कि मेरे मित्र, बिरादर, रिश्तेदार और क्षेत्रीय महान साहित्यकार को पुरस्कार नहीं मिला ।
अबके वे सीधे नहीं आए । प्रथमतः उनका एक निंदा पत्र आया, जिसमें तफसील से मुझे क्षेत्र, जाति, बिरादरी पर कलंक कहा गया था, फिर उन्होंने कहा कि मौका मिलने पर वे सार्वजनिक मंच से अपने विचार व्यक्त करेंगे ताकि इस तरह की पुरस्कार समितियों के चरित्र का सार्वजनिक लोकार्पण कर सकें । उन्होंने पुरस्कार के कारणों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला था, जिसमें जाति, क्षेत्र, विरादरी के अलावा धनबल द्वारा मतलब यह कि वे पुरस्कारों पर ही आयोग बिठाने की नौबत महसूस कर रहे थे । उन्होंने इसके लिए कुछ निष्पक्षों के नाम भी विचार किये थे।
अपने पत्र का जवाब न पाकर उन्होंने दूरभाष का हथियार अपनाया। सौभाग्यवश उनकी महान वाणी मुझ तक नहीं पहुँची, और घर में न होने के कारण मेरी बात नहीं होेने का सुख में कई दिनों तक अनुभव करता रहा, और उनकी चेतावनी याद करता रहा कि जल्दी ही आ रहा हूँ । सीधे बोले - ‘‘आपसे तो ऐसी आषा नहीं थी नवीन बाबू ।’’ मैंने जानबूझकर अनजान बनने की चेष्टा की और पत्र की भाषा को स्मरण करते हुए मन ही शान्तिवार्ता करने का प्रस्ताव रखते हुए कहा-
‘‘पानी लाओ, भाई साहब को पानी पिलाओ ।’’
‘‘पानी तो आप पिला चुके हैं भाई, चाय-वाय से ही काम चला लेंगे ।’’ वे बोले ‘‘आपने खुद को क्यों गिरवी रख दिया नवीन बाबू ।’’ गुस्सा आने क बावजूद घर आए आदमी को सम्मान देने की गरज से मैंने कहा ‘‘क्या आप भी गिरवी-विरवी की बात करते हैं । यह छोटे लोगों की बात है । आपका पत्र मैंने पढ़ा, प्रतिक्रिया इसीलिए नहीं दी कि आप तब तात्कालिक गुस्से में रहे होंगे । अभी गुस्सा शान्त नहीं हुआ, क्या ?’’
वे मुझे आँखें तरेरते रहे, मैंने तर्क के बजाए समरूने की गरज से कहा - ‘‘अब आरोप लगाना ठीक नहीं हैं । सहमति जब कवि अकेला के नाम की बन गई तो उनको पुरस्कार दे दिया गया ।’’
‘‘ऐसा क्या था उनके साहित्य में, आप लोगों की नजर में । एक भी संग्रह ऐसा नहीं जो किसी स्तरीय प्रकाषन ने छापा हो, किसी अच्छी पत्रिका ने उसकी प्रशंसा की हो या फिर कोई बड़ा समीक्षक उसे स्तरीय भी मानता हो ।’’
मैंने हंसते हुए कहा ‘‘तो क्या हुआ, अब हो जाएगा, जिस प्रकाशन का यह पुरस्कार है वह छाप रहा है पुस्तक को और समिति ने उनको अच्छा समझा समिति में तो प्रतिश्ठित लोग ही थे सो ठीक ही है ....।’’
‘‘यहीं तो चूक हो गई आपसे, वे दोनों सदस्य उसी इलाके के हैं जहाँ से आपने लेखक चयन किया है यह नहीं पकड़ पाये होंगे आप ।’’
‘‘सो तो मैं जानता हूँ ।’’
‘‘और बिरादरी देखी, समिति के दोनों सदस्य भी उसी बिरादरी से हैं कुछ तो आपको भी कहना चाहिए था । आखिर अपना आदमी पहली बार वहाँ तक पहुँचा था । ’’ वे अनमने से बोले ।
‘‘सो तो ठीक है परन्तु ..... विधा का भी सवाल था, उनकी पुस्तक इस विधा में मील का पत्थर होगी ।’’
‘‘हम क्या मील के रोड़े थे बाबू, हम भी मील के पत्थर हैं अब मेरी किताबें तो पहले से भी उस प्रकाशन से आ रही है और आप जानते ही हैं शुक्ला, षर्मा, सिंह, वाजपेयी ..... सभी तो तारीफ करते हैं मेरे साहित्य की ।’’
‘‘फिर भी . . . .।’’ मैंने बीच में टोकना चाहा ... ‘‘फिर --विर कुछ नहीं जी, वे बीच में रोकते हुए बोले’’ आप ठगे गए, और आज तक भी आपको इसका इल्म नहीं है, खैर आपको एक मौका मिला था, हमारे भी कुछ ......।’’
‘‘आपके कुछ क्या, और मौके की बात क्या है मैंने कहा ‘‘आप लगातार आरोप लगा रहे हैं सदाशयता की कोई तो सीमा होती है ।’’ ‘‘है ना --- है सीमा’’ वे बोले ‘‘आप तो हमारा बायोडेटा तक कैसे पढ़ रहे थे, इसका मुझे अन्दाज था, सो मैं समझ तो पहले ही गया था कि आप क्या करेंगे कृकृकृ ।
‘‘पुरस्कार दिया गया, उसके कारण रहे हैं उनके लेखन स्तर, विचार और कृकृकृ । इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ वे बीच में कूद पड़े ‘‘और ही तो मैं बताऊँगा, जो पुरस्कार के नाम पर जो और चला उसका मैं भण्डाफोड़ आप तीन लोगों ने मिलकर साहित्य विरादरी की नाक कटाई है, अच्छा होता अगर आप लोग क्षेत्र तथा जाति न देखकर साहित्य देखते ।’’ वे रौ में बोले जा रहे थे ।
अब बारी मेरी थी, मैंने कहा ‘‘जब आपके इन्हीं तर्को पर पुरस्कार की दलील लेकर आए थे, अब इन्हीं आधार पर दूसरे को पुरस्कृत करने का आरोप लगा रहे हैं । आपका चयन हो तो ठीक नहीं तो ऐसे आरोप । आपको शर्म आनी चाहिए । आपको मिले तो पुरस्कार ठीक नहीं तो जाति, विरादरी और रिश्तेदारी । यही आपको कहना था, अब आप जा सकते हैं ।’’
महान साहित्यकार अब न बैठ पा रहे हैं और न ही उठ पा रहे हैं । उनका तर्कजाल राजनीति की गंदी कीचड़ में उन्हें अन्दर तक पकडे़ कुर्सी से उठने नहीं दे रहा है । आप क्या ऐसे तर्क से इत्तफाक रखते हैं...........।

--डा. नवीन चन्द्र लोहनी

पुरालेख

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