खबर सचमुच हिला कर रख देने वाली थी। दो दिन पहले ही मैने इर्द-गिर्द पर एक पोस्ट आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्या होगा? लिखी थी। इस पोस्ट पर पहली ही प्रतिक्रिया थी कि बाघ को क्या आदमी की कीमत पर संरक्षण दिया जाना चाहिए। ये सवाल लंबे समय से उठता रहा है। इसी कड़ी में कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं जिसमें से निर्मल गुप्त जी की प्रतिक्रिया भी कुछ इस तरह थी कि क्या आदमी को उदरस्थ करने के लिए बाघों को यूं ही खुला छोड़ देना चाहिए। सवाल गंभीर है लेकिन निर्मल जी उसका घर भी तो हमने ही उजाड़ा है। जंगलों का दोहन भी तो आदमी ने किया है अपने स्वार्थ के लिए और जब किसी का घर उजड़ता है, उसका भोजन छिनता है तो वह क्या करेगा। आबादी की तरफ भागेगा और वहां खेतों में झुक कर नियार खाती महिला को चौपाया समझकर हमला करेगा। या भूख से व्याकुल अपने भोजन के लिए कुछ भी करेगा। लेकिन आदमी और जानवर में फर्क होता है। क्या आदमी को भी जानवर हो जाना चाहिए। क्या हम इतने आधुनिक और तकनीकी तौर पर उन्नतशील हो जाने के बाद भी एक बाघ को (चाहें वह आदमखोर घोषित हो गया हो) जिंदा नहीं पकड़ सकते। बाघ को ट्रेंकुलाइजर गन से बेहोश कर घने जंगल में किसी दूसरी जगह भी शिफ्ट किया जा सकता था। लेकिन नहीं! बाघ को मारकर अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली टीम के साथ वन विभाग ने फोटो खिंचवाए। जश्न मनाया। क्या ये सचमुच वीरता या शौर्य का कार्य है।
सवाल उठता है कि बाघ जंगलों से निकलकर आबादी से आबादी में भागते रहे क्योंकि बाघ को भी अपनी जान का खतरा था। बाघ को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर संजोने वाले वन विभाग के 'काबिल' अधिकारी और कर्मचारी बाघ की इस तरह से घेराबंदी करते रहे कि वह जंगल की तरफ न जाकर आबादी की तरफ ही भागता रहा। इस बात से हर कोई इत्तफाक रखेगा कि बाघ चाहें कितना भी क्रूर और हिंसक क्यों न हो लेकिन पैंतरेबाजी में वह आदमी का मुकाबला कभी नहीं कर सकता।..और जब आदमी यह ठान ले कि उसे मारना है तो बाघ का जीवित रहना नामुमकिन है। वन विभाग भी कानून की ढाल बनाकर बाघ को आदमखोर घोषित कर पकड़ने या मारने का आदेश दे चुका था और जाहिर है कि उनकी नीयत बाघ को जीवित पकड़ने की होती तो उन्होंने उस तरह के इंतजाम किए होते। बंदूक हाथ में लेकर बाघ को पकड़ा तो नहीं जा सकता। बाघ भी कोई खरगोश का बच्चा तो है नहीं कि दौड़े और पकड़ लिया।
हमने ज्यों-ज्यों तरक्की की राह पकड़ी, सभ्य हुए, आधुनिकता का रंग चढ़ा; त्यों-त्यों साल-दर-साल बाघ गायब होते गए। कानून सख्त हुए, रखवाले बढ़ाए गए, अरबों रुपया प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर बहाया गया लेकिन जनता का वह पैसा भी पानी बन गया। कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्य जीव के तस्करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं। कुछ दिन बाद वह कानूनी दावपेंच के सहारे बाहर भी आ जाते हैं। क्यों होता है ऐसा? साफ है कि हमारा सिस्टम और सिस्टम को दुरुस्त रखने वाले ही उनके मददगार हैं। क्या ये लोग भी स्वात घाटी से आते हैं? क्या इन्हें भी आईएसआई और पाकिस्तानी हुकुमत मदद करती है? ट्रेनिंग देती है? वन माफिया हों या वन्य जीवों के तस्कर; इनके मददगार हमारे और आपके बीच के लोग हैं। वही इन भक्षकों के मददगार हैं जिन्हें हमने रक्षक बनाया है।
अगर हम एक आदमखोर बाघ को इस युग में भी कैद नहीं कर सकते तो इस विवशता पर भी विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है जब हम प्रोजेक्ट टाइगर की दशा और दिशा की चहुंमुखी समीक्षा करें। आज मैं इतना ही सोच पा रहा हूं; बाकी आप बताइए कि मेरी सोच गलत है या सही।