दो ग़ज़लें
एक :
सावन ने फिर दी है दस्तक, खोलो खिड़की दरवाजे
बंद रहोगे घर में कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
तरस रहे तुम से मिलने को, झोंके सर्द हवाओं के
तुम रूठे बैठे हो अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
मैं प्यासा हूँ तुम अमृत हो, फिर भी बाहर रहूँगा मैं
नहीं बुलाओगे तुम जब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
जब तक ये आकाश जलेगा, जब तक धरती सुलगेगी
यह बारिश भी होगी तब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
कुछ गीली मिट्टी की खुशबू, कुछ रिमझिम है सावन की
लेकर खड़ा रहूँ मैं कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
पानी में बच्चों की छप-छप, वो कागज की नाव 'अनिल'
जीवित हैं वो मंजर अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
दो :
बड़ी कंटीली राहों से हम गुजरे हैं अब तक
छाले हैं पांवों में फिर भी चलते हैं अब तक
तन पर तो हर जगह उम्र ने हस्ताक्षर कर डाले
लेकिन मन से सच पूछो तो बच्चे हैं अब तक
हवा चली तो सारे बादल हो गए तितर- बितर
इस सावन में धरती पर सब प्यासे हैं अब तक
सदा जोड़ने की कोशिश में होते खर्च रहे
इन कच्चे धागों में फिर भी उलझे हैं अब तक
कभी मिले फुर्सत तो उनके बारे में सोचो
प्रश्न कई जो सदियों से अनसुलझे हैं अब तक
Saturday, July 30, 2011
Subscribe to:
Posts (Atom)