ये कविता मैने करीब बीस साल पहले तब लिखी थी जब मेरठ दंगों की आग में झुलस रहा था। तब से अब तक मैने कई मेरठ झुलसते देखे हैं। गोलियां और मारक हुई हैं और बमों के फटने का सिलसिला थम नहीं रहा है। इस कविता में मैने जो सवाल बीस साल पहले उठाए थे वह आज और भयावह हो गए हैं। उम्मीद है आप इस कविता को गुनेंगे और मेरे दुख में शरीक होंगे।
कर्फ्यू, गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
आंचल में खून मां के
अश्कों से आंख है नम
कहां तक पाएंगे गम
कहां तक जाएंगे हम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
ये किताबें, ये धर्मस्थल
सब हो रहें हैं मक़त़ल
लिखें आदमी की किस्मत
कानून और राइफल
सबकी निगाह में दौलत
और बारूद पे कदम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
खेतों और खलिहानों में
सुरक्षा नहीं मकानों में
देश कहां है, पता नहीं
सब कुछ बंद बयानों में
रोजी रोटी सुख और गम
राजा रानी आप और हम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
Sunday, October 5, 2008
Subscribe to:
Posts (Atom)