हमें इक दूसरे से गर गिला शिकवा नहीं होता|
तो फिर गैरों ने हम को इस तरह बाँटा नहीं होता|१|
नयों को हौसला भी दो, फकत ग़लती ही ना ढूँढो|
बड़े शाइर का भी हर इक शिअर आला नहीं होता|२|
हज़ारों साल पहले सीसीटीवी आ गई होती|
युधिष्ठिर जो शकुनि के सँग जुआ खेला नहीं होता|३|
अदब से पेश आना चाहिए साहित्य में सबको|
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता|४|
ज़रा समझो कि अब तो कॉरपोरेट भी मानता है ये|
गृहस्थी से जुड़ा इन्सान लापरवा[ह] नहीं होता|५|
नवीन सी चतुर्वेदी
Sunday, January 30, 2011
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता
Wednesday, January 26, 2011
गणतंत्र दिवस- आइये कुछ सोचें
आज हम गणतंत्र दिवस की ६२ वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। दुःख का विषय है की सियासतदानो ने इस पुनीत अवसर को भी राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। एक तरफ वो फिरकापरस्त लोग हैं जो कश्मीर की पावन भूमि पर पाकिस्तान का झंडा लहराकर गर्व अनुभव करते हैं और ऐतिहासिक लाल चौक पर भारत का तिरंगा लहराने में अपनी तौहीन समझते हैं। वहीँ दूसरी और कुछ अन्य लोग भी हैं जो इस अवसर का लाभ उठा कर राजनीति की शतरंज पर अपने मुहरे सिद्ध करना चाहते है। खेद का विषय यह है कि परिणाम से दोनों ही नावाकिफ है। अभी बहुत दिन नहीं बीते जब 'वन्दे मातरम' जैसे पावन गीत पर भी दोनों पक्षों द्वारा इसी तरह की राजनीति की गई थी। आज भी यह मुद्दा कभी भी गर्म हो उठता है।जहाँ देश के कर्णधारों को राष्ट्रगान भी पूरी तरह याद नहीं है , वे राष्ट्रगीत या राष्ट्र गान का अर्थ क्या समझ पाएंगे। इन गीतों को रटने मात्र से ही हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। क्या आज तक हम महज राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत गाने की औपचारिकता ही पूरी करते नहीं आ रहे हैं. उनके अर्थ का हमें पता ही नहीं है. कोई भी गीत या गान व्यक्ति के मानस में तभी घर बना सकता है जब वह पूर्णत: व्याख्यायित हो तथा उसका अर्थ पूर्णत: स्पष्ट हो. बिना अर्थ समझे किसी चीज का विरोध करना नाजायज ही नहीं दुखद भी है। वन्दे मातरम गीत संस्कृतनिष्ठ अधिक होने के कारण सभी के लिए समझना कठिन हैं, परन्तु दुःख की बात यह है की स्वतंत्रता के ६२-६३ साल के बाद भी इसको समझने -समझाने की कोशिश ही नहीं की गई. सम्पूर्ण गीत का अर्थ यदि ठीक प्रकार से समझा जाये तो मैं नहीं समझता की किसी हिन्दू-मुश्लिम या किसी और कौम को इस पर ऐतराज हो सकता है बशर्ते वह अपने को सच्चा हिन्दुस्तानी समझता है। वन्दे मातरम का सरल हिंदी में गीतात्मक अनुवाद करने की मैंने कोशिश की है और गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । शायद कुछ लोग समझ पायें और अपने विचारों में परिवर्तन कर ला पायें , इसी विश्वास के साथ गीत प्रस्तुत है :-
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
हम कोटि- कोटि जन की , हे कर्म भूमि वंदन।
नदियों में तेरी बहता, अमृत सा मीठा पानी
ताजे पके फलों के बागों पे है जवानी।
पर्वत मलय से आकार , शीतल सुखद हवाएँ
पावन धरा पे तेरी , चादर हरी बिछाएं
सुख समृद्दी से भरी तू, सोने सी है खरी तू
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
शुचि श्वेत चांदनी में रातें तेरी नहाये
फूलों फलों से लदकर , सब पेड़ लहलहायें
अधरों पे तेरे खेले मुस्कान मीठी मीठी
वाणी में बांसुरी की है तान मीठी मीठी
सुखदान देने वाली, वरदान देने वाली
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
तेरे करोड़ो बेटे , एक साथ जब गरजते
बासठ करोड़ बाजू , शास्त्रों को ले फड़कते
अबला न समझे कोई , इतनी तू शक्तिशाली
अदभुद है तेज तेरा , महिमा तेरी निराली
जन जन को अपने तारे, दुश्मन दलों को मारे
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्मभूमि वंदन.
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
हम कोटि- कोटि जन की , हे कर्म भूमि वंदन।
नदियों में तेरी बहता, अमृत सा मीठा पानी
ताजे पके फलों के बागों पे है जवानी।
पर्वत मलय से आकार , शीतल सुखद हवाएँ
पावन धरा पे तेरी , चादर हरी बिछाएं
सुख समृद्दी से भरी तू, सोने सी है खरी तू
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
शुचि श्वेत चांदनी में रातें तेरी नहाये
फूलों फलों से लदकर , सब पेड़ लहलहायें
अधरों पे तेरे खेले मुस्कान मीठी मीठी
वाणी में बांसुरी की है तान मीठी मीठी
सुखदान देने वाली, वरदान देने वाली
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
तेरे करोड़ो बेटे , एक साथ जब गरजते
बासठ करोड़ बाजू , शास्त्रों को ले फड़कते
अबला न समझे कोई , इतनी तू शक्तिशाली
अदभुद है तेज तेरा , महिमा तेरी निराली
जन जन को अपने तारे, दुश्मन दलों को मारे
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्मभूमि वंदन.
Thursday, January 6, 2011
मेरी पसंद : राजेन्द्र चौधरी की रचनाएं
राजेन्द्र चौधरी श्रेष्ठ कवि, लेखक, अनुवादक और उससे भी बड़े चिन्तक हैं। इनकी रचनाएं अन्तंर्मन के अन्दर तक गहरे उतरती हैं और सोचने पर विवश करती हैं। विशेष बात यह भी है कि इनकी रचनाएं देश काल की सीमाओं में कभी नहीं बांधी जा सकतीं। इतिहास से वर्तमान तक और परंपराओं से आधुनिक परिवेश तक, इनकी रचनाओं में समाया हर एक शब्द अपना अलग अर्थ रखता है। संस्कारों की मिठास और दुनियावी तल्खियों के अनुभवों को अपने चिंतन में पिरो कर प्रस्तुत करने में इनका कोई सानी नहीं है।इर्द-गिर्द के पाठकों के लिए इनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत हैं।
आधार
जब भी कोई ऊँची इमारत मेरी नज़र से गुज़रती है
तो उसकी भव्यता निगाहों से दिल में उतरती है
नज़र को इमारत के बुलंद कंगूरों से वास्ता है
लेकिन मेरा मन ठिठकता है, कुछ और तलाशता है
वो जो दीख नहीं पाता लेकिन इस ऊँचाई का आधार है
मेरे मन को कंगूरों से नहीं, नींव के पत्थरों से प्यार है
वो पत्थर जो धरती में भी दस हाथ जाके धंसता है
और खुशी-खुशी गुमनाम अंधेरी गुफ़ा में फंसता है
ताकि इस इमारत को सौ हाथ ऊंची बुलंदी मिले
और इसके कंगूरों को नया रूप, नयी रोशनी मिले
वो पत्थर जिसने इमारत से अपने जीवन का मूल्य नहीं मांगा
और वर्तमान के कांधे पर कभी अतीत का नाम नहीं टांगा
वो पत्थर हर मंदिर के कलश, हर मस्जिद की गुंबद से ऊंचा है
क्योंकि उसने इस इमारत को अपने प्राण उत्सर्ग से सींचा है
मैं और तुम भी वर्तमान के लिए रीतते किसी अतीत के वंश हैं
निस्वार्थ गहराई तक आकर जुड़ो तो, हम किसी नींव के अंश हैं
लेकिन आज हर तरफ़ हर किसी को परकोटों का चाव है
आज मेरे दोस्त, नींव के पत्थरों का अभाव है
लेकिन रख सको तो याद रखना
ऊंचाई सापेक्ष है, मिटती रहती है, जीवन आधार का होता है
भवन उद़घाटित होते हैं, पूजन आधार का होता है
पूजन आधार का होता है।।
भवन उद़घाटित होते हैं, पूजन आधार का होता है
पूजन आधार का होता है।।
कुछ मुक्तक
एक
हम रिसाले तरक्की के पढते रहे,
वर्क गीता का लेकिन फटा ही रहा।
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मंत्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आंगन हमारा बंटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मंत्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आंगन हमारा बंटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।
दो
दोस्ती के गुलाबों में लिपटी हुई,
दुश्मनी की मिली हमको सौगात थी।
अर्घ्य देना पडा केक्टस को यहां,
सभ्यता की यह शहरी शुरुआत थी।
चांद रोटी सा हमको चिढाता रहा,
आप कहते हैं पूनम की यह रात थी।
सिर्फ सांपों को विषधर समझते थे हम,
आदमी से न जब तक मुलाकात थी।।
तीन
मैं इस दौर में तहजीब का ढहता मजार हूं
शीशे के मकानों से पुकारा न कीजिये।
अपनों से पाये ज़ख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा न कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा न कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा न कीजिये।
शीशे के मकानों से पुकारा न कीजिये।
अपनों से पाये ज़ख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा न कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा न कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा न कीजिये।
चार
जिनके चेहरे के खिलते कंवल हैं यहां
उनके पांव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।
उनके पांव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।
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