सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार रवीश कुमार और विषमताओं में बुलंदियों पर पंहुचने वाली सात विदूषियां सम्मानित
उत्तर प्रदेशीय महिला मंच के संस्थापक और कलम के योद्धा रहे स्व0 वेद अग्रवाल की स्मृति में दिए जाने वाला साहित्य-पत्रकारिता-2011 पुरस्कार मेरठ के चैंबर हॉल में सामाजिक सरोकारों से जुड़े जुझारू पत्रकार रवीश कुमार को दिया गया तो उपस्थित लोगों ने करतल ध्वनि से उसका स्वागत किया। वरिष्ठ पत्रकार और भास्कर समूह के संपादक श्रवण गर्ग और अप्रतिम कथाकार चित्रा मुदगल के हाथों सम्मान लेते रवीश के साथ-साथ ऑडीटोरियम में बैठा जनसमूह अपने को भी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। इस अवसर पर साहित्य-पत्रकारिता के साथ अपनी माटी से जुड़ी, हौंसलों और मजबूत इरादों से लबालब ऐसी स्त्रियां भी सम्मानित हुईं जिन्होंने विषम परिस्थितियों में न केवल एक मुकाम बनाया बल्कि असंभव को संभव कर दिखाया। सजगता व आत्मविश्वास के बूते जिन्होंने अबला से सबला तक का सफर तय किया और अपने सशक्तिकरण के लिए उन्होंने न उम्र को आड़े आने दिया और न सामाजिक विषमताओं या परिस्थितियों को बाधा बनने दिया। इस अवसर पर उत्तर प्रदेशीय महिला मंच की अध्यक्ष डा0 अर्चना जैन, महामंत्री ऋचा जोशी, 'आमीन' के रचयिता आलोक श्रीवास्तव और शिक्षाविद डा0 राधा दीक्षित मौजूद थीं।
'मंच' के 26 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जिन सात महिलाओं को 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत किया गया उनमें सत्तर साल की युवा शूटर प्रकाशो देवी, मंदबुद्धि बच्चों के विकास में लगीं प्रमिला बालासुंदरम, सौ से ज्यादा महिलाओं को ट्रैक्टर चलाना सिखा चुकीं शालिनी, उत्तराखंड की संस्कृति और कला के उन्नयन में जुटीं लोकगायिका बसंती बिष्ट, महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाने वाली रेलवे कुली मुंदरा देवी, तीन हजार रूपये से अपना उद्यम शुरु कर बीस देशों तक अपने उत्पाद पंहुचाने वाली प्रेरणा और शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाली प्रशासनिक अधिकारी डा0 अमृता सिंह हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों से आईं इन सात देवियों का जब परिचय पढ़ा गया तो उनकी पृष्ठभूमि, संघर्ष, जिजीविषा और उपलब्धियों को सुनकर ऑडीटोरियम में बैठे लोगों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उनका अभिवादन किया।
इस मौके पर बोलते हुए भास्कर समूह के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि गर्व होता है जब रवीश जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी बेवाक पत्रकार को देखते हैं। उससे भी ज्यादा गर्व तब होता है जब प्रकाशो, बालासुंदरम, शालिनी, मुंद्रा या प्रेरणा जैसी महिलाओं का सम्मान होता है क्योंकि अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चारों ओर से उनके जलाने, लूटने या इज्जत से खिलबाड़ की खबरें आ रही हैं और इन सब के बीच ऐसी महिलाएं एक ताकत बनकर उभरती हैं और हमें बताती है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है और होने भी नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि अखबारों में ये खबर तो छपती है कि 'एक किसान मर गया लेकिन ये खबर नहीं छपती वह किसान अपने पीछे एक औरत को भी मरने के लिए छोड़ गया क्योंकि औरत तो हर जगह मरती है, चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सांप्रदायिक दंगे या फिर बिगड़ते पर्यावरण के चलते सूखते कुंए या झरने। यदि एक कुंआ सूखता है तो गांव में एक महिला के लिए पीने के पानी की दूरी और बढ़ जाती है। पानी के झरने लगातार सूख रहे हैं लेकिन महिलाओं के आंसू लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उनकी पीठ लगातार कमजोर हो रही है या टूट रही है। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया भर की संस्था हमें बता रही हैं कि हिंदुस्तान में महिलाओं की संख्या भले ही पुरुषों के आसपास हो लेकिन उच्च पदों पर उन्नति प्राप्त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत दस से बारह के आसपास ही है। उन्होंने कहा कि ये सारी परिस्थितियां बताती हैं कि हम जिस तरक्की या आर्थिक विकास दर की बात करते हैं वह उन महिलाओं तक नहीं पंहुचा है जो बीस रूपये में अपना घर चला रही है, अपने बच्चों को पढ़ा रही है और अंधेरे में अपनी आंखे फोड़ रही है। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने कहा कि अल्प संसाधनों में अपने बूते काम कर रही उत्तर प्रदेशीय महिला मंच समाज के शोषितों, दलितों और पीडि़तों के लिए जिस तरह से काम कर रही है और जमीन से जुड़ी महिलाओं की हौंसलाअफजाई कर रही है वह एक उम्मीद पैदा करता है।
लब्धप्रतिष्ठ कथाशिल्पी चित्रा मुदगल ने अपने संबोधन में कहा कि ये महिलाओं की मेहनत का ही नतीजा है कि वह आज अपनी पहचान अपने ही बलबूते पर बनाने में सफल हो रही हैं। उन्होंने 'मंच' द्वारा प्रदत्त 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत महिलाओं के कार्यों और सफलताओं से अभिभूत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी यात्रा में मुश्किलें या रुकावटें न आईं हों लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह मुश्किलों से जूझी होंगी, टूटी होंगी, हालात पर झल्लाई होंगी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और न ही हालात के साथ समझौता किया। इसलिए उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिला। उन्होंने सत्तर की उम्र पार कर चुकी प्रकाशो देवी के हौंसले और मेहनत का जिक्र किया जिसने साठ साल की उम्र में चूल्हे पर रोटियां सेकने और गोबर पाथने के साथ-साथ हाथों में बंदूक थाम कर निशानेबाजी सीखी और एक ही साल में स्टेट के नौ मेडल जीतकर सबको एक बार फिर बताया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आज प्रकाशो की बदौलत न केवल उसके घर की बहु-बेटियां बल्कि बागपत का जौहड़ी गांव अचूक निशानेवाजी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। कथा शिल्पी चित्रा मुदगल ने कहा कि आगरा कैंट रेलवे स्टेशन की पहली महिला कुली मुंद्रा हो या महिलाओं को ट्रैक्टर की स्टेयरिंग थमाने वाली शालिनी; इन सभी के भीतर कई कालजयी रचनाएं छिपी हैं और यही हमारे असल आयकॉन होने चाहिएं लेकिन दुर्भाग्य से अभी ऐसा नहीं है, पर मन में विश्वास है कि एक दिन ऐसा होगा।
सम्मान ग्रहण करने के बाद रवीश कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आप सबको ये समझ लेना चाहिए कि 'न्यूज' आपके लिए नहीं हैं क्योंकि आप दो पैसे भी नहीं देते। टेलीविजन का सारा खेल टीआरपी का है और विज्ञापनदाताओं के लिए है। हम इस तरह से उनके प्रति सम्मुख, उन्मुख और जिम्मेदार बना दिए गए हैं क्योंकि चार टीआरपी मीटर वाले बक्से जो तय करेंगे वही हम होंगे। इसलिए आप जो हमसे अपेक्षा रखते हैं, कुछ दिन बाद हम वह नहीं रह जाएंगे और कुछ दिन बाद अगर यही हालत रही तो आप लोगों को पत्रकारों को बुलाकर सम्मानित करने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी बल्कि चौराहों पर घेरकर पीटने की या फिर गाली देने की नौबत आ जाएगी। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इसके लिए पत्रकारों को ही संघर्ष करना होगा बल्कि इस संस्था या इस पेशे को बचाने के लिए जब आप संघर्ष करेंगे तभी ये बच सकेगी क्योंकि वोट की जगह इस समस्या के निदान का रिमोट भी आपके ही हाथ में है। उन्होंने लोगों से कहा कि वह बहुत दिन तक दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकते क्योंकि सारा काम या कुकर्म उन्हीं के नाम पर यानी दर्शकों की पसंद और नापसंद के नाम पर ये सब किया जा रहा है। अगर दर्शकों ने सक्रियता नहीं दिखाई तो कुछ कॉरपोरेट हाउस इस देश को ऐसा बना देंगे जैसा वह दिखता नहीं है और जैसा वह दिखना नहीं चाहिए।
मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ इतनी भर है कि साथ काम करने वाली कोई स्त्री जैसी लगती है। लड़की जैसी लगती है। उसके मुद्दे, उसके अहसास, उसके अधिकार, ये सब नज़र नहीं आते। न्यूज़ चैनलों में आप लड़कियों की संख्या से खुश होना चाहते हैं या उनके दखल से। प्लास्टिक की गुड़ियाओं की मांग आने वाले दिनों में टीवी में बढ़ेगी। बल्कि अभी भी प्लास्टिक नुमा लड़कियां ही ख़बरें पढ़ रही हैं। फर्क इतना आएगा कि जो पूरी तरह प्लास्टिक और झुर्रियों से मुक्त होगी वही एंकर होगी। मीडिया में स्त्रियों की मौजूदगी स्क्रीन पर है। स्क्रीन के बाहर कुछ अपवादों, कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो कुछ नहीं है। हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं है। इंग्लिश में कुछ महिला पत्रकारों ने वाकई कई धारणाओं,सीमाओं और कई चीजों को तोड़ते हुए जगह बनाई। लेकिन ये जगह बनाने वाली सभी महिलाएं एक खास वर्ग विशेष तबके से आती हैं। किसी बड़े अफसर की बेटी हों, या किसी बड़े संपादक की पत्नी या किसी बड़े कालेज की स्नातक। कहने का मतलब है कि इसकी वजह से उन्हें मौके मिले और इनमें से कई ने उन मौकों का इस्तमाल प्लास्टिक की गुड़िया बनने में नहीं किया बल्कि जगह बनाने में किया। यह बदलाव और ही अच्छा लगता जब इंग्लिश मीडिया में कोई छोटे कस्बे की अंग्रेज़ी बोलने वाली उतने ही प्रयास, उतने ही समय में वैसी जगह बना लेती जो एक खास तबके के महिलाओं ने बनाई। हिन्दी मीडिया में तो इतना भी नहीं हुआ। एक तो पुरुषवादी ढांचे की मज़बूती। दूसरा जूझ कर, टूट कर और फिर उठ कर जगह बनाने की होड़ या भूख कम लोगों में नज़र आई। पेशेवर होने के पैमाने पर भी साबित करने की भूख बढ़ती या कर पातीं, उससे पहले उन्हें स्त्री से भी ज्यादा स्त्री बना कर मेकअप लगाकर स्टुडियो में भेज दिया गया। जहां कठपुतली होना ही नियति है। फिर भी कुछ लड़कियां अच्छा काम कर रही हैं। कुछ यूं ही काम किए जा रही हैं जैसे कुछ लड़के किये जा रहे हैं। यह मेरा नज़रिया नहीं है जो देख रहा हूं अपने पेशे में उसकी लाइव कमेंट्री है। आप चाहें तो आराम से असहमत हो सकते हैं।
समारोह में अनेक विभूतियां मौजूद रहीं। संस्था के संपादक स्व0 वेद अग्रवाल का परिचय युवा लेखिका/पत्रकार आकांक्षा पारे ने पढ़ा। इस अवसर पर 'वरदा-2011' का विमोचन और वितरण भी हुआ।
'मंच' के 26 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जिन सात महिलाओं को 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत किया गया उनमें सत्तर साल की युवा शूटर प्रकाशो देवी, मंदबुद्धि बच्चों के विकास में लगीं प्रमिला बालासुंदरम, सौ से ज्यादा महिलाओं को ट्रैक्टर चलाना सिखा चुकीं शालिनी, उत्तराखंड की संस्कृति और कला के उन्नयन में जुटीं लोकगायिका बसंती बिष्ट, महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाने वाली रेलवे कुली मुंदरा देवी, तीन हजार रूपये से अपना उद्यम शुरु कर बीस देशों तक अपने उत्पाद पंहुचाने वाली प्रेरणा और शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाली प्रशासनिक अधिकारी डा0 अमृता सिंह हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों से आईं इन सात देवियों का जब परिचय पढ़ा गया तो उनकी पृष्ठभूमि, संघर्ष, जिजीविषा और उपलब्धियों को सुनकर ऑडीटोरियम में बैठे लोगों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उनका अभिवादन किया।
इस मौके पर बोलते हुए भास्कर समूह के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि गर्व होता है जब रवीश जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी बेवाक पत्रकार को देखते हैं। उससे भी ज्यादा गर्व तब होता है जब प्रकाशो, बालासुंदरम, शालिनी, मुंद्रा या प्रेरणा जैसी महिलाओं का सम्मान होता है क्योंकि अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चारों ओर से उनके जलाने, लूटने या इज्जत से खिलबाड़ की खबरें आ रही हैं और इन सब के बीच ऐसी महिलाएं एक ताकत बनकर उभरती हैं और हमें बताती है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है और होने भी नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि अखबारों में ये खबर तो छपती है कि 'एक किसान मर गया लेकिन ये खबर नहीं छपती वह किसान अपने पीछे एक औरत को भी मरने के लिए छोड़ गया क्योंकि औरत तो हर जगह मरती है, चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सांप्रदायिक दंगे या फिर बिगड़ते पर्यावरण के चलते सूखते कुंए या झरने। यदि एक कुंआ सूखता है तो गांव में एक महिला के लिए पीने के पानी की दूरी और बढ़ जाती है। पानी के झरने लगातार सूख रहे हैं लेकिन महिलाओं के आंसू लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उनकी पीठ लगातार कमजोर हो रही है या टूट रही है। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया भर की संस्था हमें बता रही हैं कि हिंदुस्तान में महिलाओं की संख्या भले ही पुरुषों के आसपास हो लेकिन उच्च पदों पर उन्नति प्राप्त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत दस से बारह के आसपास ही है। उन्होंने कहा कि ये सारी परिस्थितियां बताती हैं कि हम जिस तरक्की या आर्थिक विकास दर की बात करते हैं वह उन महिलाओं तक नहीं पंहुचा है जो बीस रूपये में अपना घर चला रही है, अपने बच्चों को पढ़ा रही है और अंधेरे में अपनी आंखे फोड़ रही है। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने कहा कि अल्प संसाधनों में अपने बूते काम कर रही उत्तर प्रदेशीय महिला मंच समाज के शोषितों, दलितों और पीडि़तों के लिए जिस तरह से काम कर रही है और जमीन से जुड़ी महिलाओं की हौंसलाअफजाई कर रही है वह एक उम्मीद पैदा करता है।
लब्धप्रतिष्ठ कथाशिल्पी चित्रा मुदगल ने अपने संबोधन में कहा कि ये महिलाओं की मेहनत का ही नतीजा है कि वह आज अपनी पहचान अपने ही बलबूते पर बनाने में सफल हो रही हैं। उन्होंने 'मंच' द्वारा प्रदत्त 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत महिलाओं के कार्यों और सफलताओं से अभिभूत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी यात्रा में मुश्किलें या रुकावटें न आईं हों लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह मुश्किलों से जूझी होंगी, टूटी होंगी, हालात पर झल्लाई होंगी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और न ही हालात के साथ समझौता किया। इसलिए उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिला। उन्होंने सत्तर की उम्र पार कर चुकी प्रकाशो देवी के हौंसले और मेहनत का जिक्र किया जिसने साठ साल की उम्र में चूल्हे पर रोटियां सेकने और गोबर पाथने के साथ-साथ हाथों में बंदूक थाम कर निशानेबाजी सीखी और एक ही साल में स्टेट के नौ मेडल जीतकर सबको एक बार फिर बताया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आज प्रकाशो की बदौलत न केवल उसके घर की बहु-बेटियां बल्कि बागपत का जौहड़ी गांव अचूक निशानेवाजी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। कथा शिल्पी चित्रा मुदगल ने कहा कि आगरा कैंट रेलवे स्टेशन की पहली महिला कुली मुंद्रा हो या महिलाओं को ट्रैक्टर की स्टेयरिंग थमाने वाली शालिनी; इन सभी के भीतर कई कालजयी रचनाएं छिपी हैं और यही हमारे असल आयकॉन होने चाहिएं लेकिन दुर्भाग्य से अभी ऐसा नहीं है, पर मन में विश्वास है कि एक दिन ऐसा होगा।
सम्मान ग्रहण करने के बाद रवीश कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आप सबको ये समझ लेना चाहिए कि 'न्यूज' आपके लिए नहीं हैं क्योंकि आप दो पैसे भी नहीं देते। टेलीविजन का सारा खेल टीआरपी का है और विज्ञापनदाताओं के लिए है। हम इस तरह से उनके प्रति सम्मुख, उन्मुख और जिम्मेदार बना दिए गए हैं क्योंकि चार टीआरपी मीटर वाले बक्से जो तय करेंगे वही हम होंगे। इसलिए आप जो हमसे अपेक्षा रखते हैं, कुछ दिन बाद हम वह नहीं रह जाएंगे और कुछ दिन बाद अगर यही हालत रही तो आप लोगों को पत्रकारों को बुलाकर सम्मानित करने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी बल्कि चौराहों पर घेरकर पीटने की या फिर गाली देने की नौबत आ जाएगी। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इसके लिए पत्रकारों को ही संघर्ष करना होगा बल्कि इस संस्था या इस पेशे को बचाने के लिए जब आप संघर्ष करेंगे तभी ये बच सकेगी क्योंकि वोट की जगह इस समस्या के निदान का रिमोट भी आपके ही हाथ में है। उन्होंने लोगों से कहा कि वह बहुत दिन तक दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकते क्योंकि सारा काम या कुकर्म उन्हीं के नाम पर यानी दर्शकों की पसंद और नापसंद के नाम पर ये सब किया जा रहा है। अगर दर्शकों ने सक्रियता नहीं दिखाई तो कुछ कॉरपोरेट हाउस इस देश को ऐसा बना देंगे जैसा वह दिखता नहीं है और जैसा वह दिखना नहीं चाहिए।
मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ इतनी भर है कि साथ काम करने वाली कोई स्त्री जैसी लगती है। लड़की जैसी लगती है। उसके मुद्दे, उसके अहसास, उसके अधिकार, ये सब नज़र नहीं आते। न्यूज़ चैनलों में आप लड़कियों की संख्या से खुश होना चाहते हैं या उनके दखल से। प्लास्टिक की गुड़ियाओं की मांग आने वाले दिनों में टीवी में बढ़ेगी। बल्कि अभी भी प्लास्टिक नुमा लड़कियां ही ख़बरें पढ़ रही हैं। फर्क इतना आएगा कि जो पूरी तरह प्लास्टिक और झुर्रियों से मुक्त होगी वही एंकर होगी। मीडिया में स्त्रियों की मौजूदगी स्क्रीन पर है। स्क्रीन के बाहर कुछ अपवादों, कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो कुछ नहीं है। हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं है। इंग्लिश में कुछ महिला पत्रकारों ने वाकई कई धारणाओं,सीमाओं और कई चीजों को तोड़ते हुए जगह बनाई। लेकिन ये जगह बनाने वाली सभी महिलाएं एक खास वर्ग विशेष तबके से आती हैं। किसी बड़े अफसर की बेटी हों, या किसी बड़े संपादक की पत्नी या किसी बड़े कालेज की स्नातक। कहने का मतलब है कि इसकी वजह से उन्हें मौके मिले और इनमें से कई ने उन मौकों का इस्तमाल प्लास्टिक की गुड़िया बनने में नहीं किया बल्कि जगह बनाने में किया। यह बदलाव और ही अच्छा लगता जब इंग्लिश मीडिया में कोई छोटे कस्बे की अंग्रेज़ी बोलने वाली उतने ही प्रयास, उतने ही समय में वैसी जगह बना लेती जो एक खास तबके के महिलाओं ने बनाई। हिन्दी मीडिया में तो इतना भी नहीं हुआ। एक तो पुरुषवादी ढांचे की मज़बूती। दूसरा जूझ कर, टूट कर और फिर उठ कर जगह बनाने की होड़ या भूख कम लोगों में नज़र आई। पेशेवर होने के पैमाने पर भी साबित करने की भूख बढ़ती या कर पातीं, उससे पहले उन्हें स्त्री से भी ज्यादा स्त्री बना कर मेकअप लगाकर स्टुडियो में भेज दिया गया। जहां कठपुतली होना ही नियति है। फिर भी कुछ लड़कियां अच्छा काम कर रही हैं। कुछ यूं ही काम किए जा रही हैं जैसे कुछ लड़के किये जा रहे हैं। यह मेरा नज़रिया नहीं है जो देख रहा हूं अपने पेशे में उसकी लाइव कमेंट्री है। आप चाहें तो आराम से असहमत हो सकते हैं।
समारोह में अनेक विभूतियां मौजूद रहीं। संस्था के संपादक स्व0 वेद अग्रवाल का परिचय युवा लेखिका/पत्रकार आकांक्षा पारे ने पढ़ा। इस अवसर पर 'वरदा-2011' का विमोचन और वितरण भी हुआ।
सम्मानित होने वाली विभूतियां
रवीश कुमार : जो लोग टीवी देखते हैं या ब्लॉग पढ़ते हैं या सामाजिक सरोकारों से सरोकार रखते हैं उनके लिये रवीश कुमार को जानना अनिवार्य मजबूरी है। एनडीटीवी देश के सबसे ब्रान्ड्स में से एक है लेकिन रवीश कुमार ने इस ब्रांड की छाया में ही एक ब्रांड अपना भी बना लिया...रवीश की रिपोर्ट। कुछ लोग इसे मेहनत कह सकते हैं और कुछ सयानापन लेकिन हकीकत ये है कि रवीश की रिपोर्ट..अगर वो बंद नहीं हुई है तो..खूब देखी जाती है और उस पर खूब चर्चा होती है। दिल्ली के पास बसे धारावीनुमा खोड़ा पर प्रोग्राम देखने के बाद उत्तर प्रदेश जैसी सरकार 300 करोड़ का पैकेज दे देती है, खोड़ा के लोग लाइन लगाकर रवीश कुमार का सम्मान करते हैं, पहाड़गंज का प्रोगाम महेश भट्ट मुंबई में मंगवाकर देखते हैं, एक रुपया रोज़ में काम करने वालों की कहानी मोंटेक सिंह आहलुवालिया के दफ्तर में देखी जाती है, और सबके लिये यूनिक आई कार्ड बनाने वाली अथार्टी के मुखिया नंदन निलेकणी किसी से कहलवाते हैं...यार एक प्रोग्राम हमारे लिये आधार पर बना दो। टीआरपी की दौड़ में बने रहते हुए वो देश की, समाज की, लोगों की चिंता कर लेते हैं। जब टीवी चैनल टीआरपी मीटर वाले एपीएल (एबोव पॉवर्टी लाइन) दर्शकों की चिंता करते हैं तब रवीश कुमार बीपीएल पर प्रोग्राम बना देते हैं। मॉल कल्चर वाले दर्शकों को वो निपट देहाती गढ़ मेले के बारे में बताते हैं। जब लोग मेट्रो के गुण गाते हैं तो रवीश कुमार बताते हैं कि डीटीसी कितने कमाल की है। ये किसी पॉज़ीटिव चीज़ को निगेटिव नज़रिये से देखने की कोशिश नहीं, बल्कि निगेटिव में पॉज़टिव ढूंढने की हिमाकत है। सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे जिन विषयों को टीवी में कोई छूने में भी डरता है रवीश कुमार पूरा अभियान चला डालते हैं। रवीश कुमार नई पीढ़ी के पत्रकार हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी सा अनुभव उनकी कलम और चित्रों में दिखता है। दलितों और मुसलिम बिरादरी का हाल रवीश कुमार का प्रिय विषय रहा है, लेकिन आजकल राज तो नौ बजे प्राइम टाइम में वो मिडिल क्लास की मकान की ईएमआई की भी चिंता करते हैं।टीवी इंडस्ट्री में बहुत बड़े-बड़े किस्सा गो हैं लेकिन रवीश कुमार ने टीवी में किस्सागोई का एक नया अंदाज़ बनाया है। हो सकता है कि बिहार से निकले रवीश कुमार ने दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही बिहार की बहुत सी बातों को भुला दिया होगा लेकिन उनके प्रोग्राम देखकर, उनको पढ़कर और उनसे बातें करते पता चलता है कि उनको अब भी कितना याद है, अपनी भाषा और मिट्टी के बारे में। रवीश कुमार सबसे अलग हैं, अनोखे हैं इसीलिये उत्तर प्रदेश महिला मंच ने उनको अपने संस्थापक की स्मृति में दिए जाने वाले सम्मान के लिए चुना है।
प्रकाशो तोमर : सीखने या पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। यह कहावत बागपत के जौहड़ी गांव की प्रकाशो दादी पर एकदम सटीक उतरती है। साठ साल की उम्र में बंदूकबाजी सीखकर प्रकाशो तोमर ने स्टेट लेबल पर जब नौ पदक जीते तब पूरे देश में प्रकाशो का नाम पूरे देश के खेल प्रेमियों की जुबान पर आ गया। उनके गांव में तो एक क्रांति ही आ गई और घर की बेटियों और बहुओं ने भी हाथों में बंदूके थाम लीं। आज प्रकाशो की बेटी सीमा तोमर ही नहीं बल्कि घर में उनके पोते-पोतियां भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा रहे हैं और सत्तर पार कर चुकी प्रकाशो दादी अब पूरे देश में घूम-घूमकर बेटियों को निशानेबाजी के गुर सिखा रहीं हैं। प्रकाशो को निशानेबाजी का कोई शौक भी नहीं था और न वह इस खेल के बारे में कोई विशेष जानकारी रखती थीं। घर में रोटियां सेकने, गोबर पाथने और खेतों में काम करने वाली प्रकाशो को निशानेबाजी का शौक तब परवान चढ़ा जब जौहड़ी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के निशानेबाज रहे राजपाल सिंह ने घास-फूस की रेंज बनाकर गांव के बच्चों को निशानेबाजी सिखाना शुरु किया तो साठ साल की प्रकाशो भी घर से चोरी-छिपे उस रेंज में जाकर निशानेबाजी में अपने हाथ आजमाने लगी। घर वालों को जब पता चला तो उन्होंने विरोध भी किया लेकिन प्रकाशो अपनी धुन की पक्की थीं। धीरे-धीरे प्रकाशो के बेटे-बेटियां और पोते-पोतियां भी उनका अनुसरण करने लगे।
प्रमिला बालासुंदरम : कर्नाटक की मूल निवासी प्रमिला बालासुंदरम पिछले 32 वर्षों से समाधान नाम की संस्था के माध्यम से मंदबुद्घि बच्चों के विकास के लिए संकल्पबद्घ हैं। अपनी भतीजी की शारीरिक अक्षमता को देखकर वह काफी परेशान रहती थीं और वही उनके सेवा कार्यों की प्रेरणा श्रोत भी बनी और शादी के बाद जब प्रमिला दिल्ली आईं तो उन्होंने देखा कि कोई भी सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों की पंहुच समाज के अंतिम छोर तक नहीं जा पाती। वह शारीरिक तौर पर अक्षम बच्चों को बुद्घि की कसौटी पर बेहतर पातीं लेकिन उनकी शिक्षा या पुनर्वास के कार्यक्रमों की शिथिलता से परेशान रहतीं। यही सब देखते और महसूस करते हुए प्रमिला को लगा कि इस दिशा में ठोस प्रयासों की जरुरत है और उन्होंने समाधान का गठन कर इसका रास्ता तैयार किया। तब से आज तक प्रमिला असहायों को संबल देने और उन्हें दक्ष बनाने में जुटी हैं। 1981 में उनके द्वारा रौंपा गया पौधा आज वटवृक्ष बन चुका है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान है। वर्तमान में वह एशियन फेडरेशन फॉर इंटलेक्चुअली डिसेबिल्ड की उपाध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त ·रने वाली वह पहली महिला हैं। उन्हें अब तक कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान है। वर्तमान में वह एशियन फेडरेशन फॉर इंटलेक्चुअली डिसेबिल्ड की उपाध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त ·रने वाली वह पहली महिला हैं। उन्हें अब तक कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
शालिनी माथुर : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की रहने वाली शालिनी माथुर को लोग ट्रैक्टर चलाने वाली मैडम के नाम से भी जानते हैं। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढाने का संकल्प लेकर शालिनी ने 1991 में पुरुषों का एकाधिकार माने जाने वाले ट्रैक्टर की स्टेयरिंग पर जब महिलाओं को बिठाना शुरु किया तो लिंग आधारित इस प्रभुत्व को पहली बार देश ने टूटते देखा।
53 साल की शालिनी जिस काम में जुट जाती हैं, उसे अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लेती हैं। प्रबंधन में मास्टर डिग्री करने के बाद शालिनी सामाजिक विषमताओं को दूर करने में जुट गईं और 1980 तक विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ उन्होने स्वतंत्र रुप से सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के खिलाफ मोरचा खोले रखा। 1987 में शालिनी सुरक्षा नाम के संगठन से जुड़ीं। महिला अधिकारों के मुद्दों पर जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्धारण तक के मंचों पर शालिनी समान रुप से जूझती हुईं दिखाई देती हैं।
53 साल की शालिनी जिस काम में जुट जाती हैं, उसे अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लेती हैं। प्रबंधन में मास्टर डिग्री करने के बाद शालिनी सामाजिक विषमताओं को दूर करने में जुट गईं और 1980 तक विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ उन्होने स्वतंत्र रुप से सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के खिलाफ मोरचा खोले रखा। 1987 में शालिनी सुरक्षा नाम के संगठन से जुड़ीं। महिला अधिकारों के मुद्दों पर जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्धारण तक के मंचों पर शालिनी समान रुप से जूझती हुईं दिखाई देती हैं।
मुंदरा देवी : लोग अपना बोझ नहीं उठा सकते लेकिन मुंदरा महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाती हैं। उन्हें देखकर अक्सर लोग अचरज करने लगते हैं लेकिन जब उन्होंने कुलीगिरी करने का फैंसला लिया तो यह आसान नहीं था। मुंदरा देवी आगरा कैंट रेलवे स्टेशन पर पहली महिला कुली हैं। पुरुषों के एकाधिकार वाले इस क्षेत्र में मुंदरा जब पहली बार लाल वर्दी पहनकर रेलवे स्टेशन पर पंहुची तो लोगों ने उन्हें उपहास की दृष्टि से देखा लेकिन आज उन्होंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से तमाम पुरुषों को पीछे छोड़ रखा है। अक्सर उनके साथ ऐसा होता है कि महिला कुली से सामान ढुलवाने में कुछ मुसाफिर चुप्पी साध जाते हैं लेकिन इनकी हिम्मत, ताकत और फुर्ती का कमाल असमानता की हर खाई को पाट देता है। यूं तो मुंदरा का भरा-पूरा परिवार है लेकिन पति की कमाई इतनी नहीं थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बना पाती और शिक्षा के अभाव में उन्हें अपने लिए कुलीगिरी सबसे उचित लगी और उन्होंने एक दिन कुली का बिल्ला हासिल कर लिया। मुंदरा भले ही लिंग भेद मिटाने के लिए कोई प्रोजेक्ट न चला रही हों या किसी एनजीओ का हिस्सा न हों लेकिन वह खुद में एक ऐसी मिसाल बन गई हैं जिन्हें देखकर कोई भी महिला अपने को सबला समझ सकती है।
बसंती विष्ट : उत्तराखंड की विलुप्त होती संस्कृति को लोक गायिका बसंती विष्ट ने अपने शब्दों में पिरोकर न केवल जिंदा रखा है। बल्कि लोकगायिकी की इस विधा में पुरुषों के एकाधिकार को भी तोड़ा है। गढ़वाल की लोकगायन शैली जागर को बसंती विष्ट ने न केवल नई ऊंचाईया दीं बल्कि सीमांत गांवो तक सिमट कर रह गई इस विधा को जन-जन तक पंहुचाया। गढ़वाल और कुमाऊं की मिलीजुली थाती को संवारने वाली बसंती देवी के सुरों में इतनी मिठास है कि अपने छोटे से क्षेत्र की बोली को अपने गीतों के माध्यम से पूरे राज्य में पहचान दिलाई है। आज देश के संगीत समीक्षक उन्हें उत्तराचंल की तीजन वाई कहते हैं।
बसंती देवी ने अब तक अनेक गीत लिखे हैं और खास बात यह है कि वह स्वरचित गीतों को ही अपना स्वर देती हैं। जागर के अलावा वह मांगल, पाण्डवाणी, लोक गाथाएं एवं गढ़वाली तथा कुमाऊंनी लोकगीतों की भी गायिका हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके द्वारा रचित एक गीत 'वीर नारी आगे बढ़, धीर नारी आगे बढ़' उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के कंठ से हमेशा गूंजता रहता था। कारगिल युद्घ से लेकर सामाजिक विषमताओं तक पर लोकगीत रच कर उन्हें स्वर देने वाली बसंती विष्ट उत्तराखंड की संस्कृति को सहेजने और परंपराओं को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं।
बसंती देवी ने अब तक अनेक गीत लिखे हैं और खास बात यह है कि वह स्वरचित गीतों को ही अपना स्वर देती हैं। जागर के अलावा वह मांगल, पाण्डवाणी, लोक गाथाएं एवं गढ़वाली तथा कुमाऊंनी लोकगीतों की भी गायिका हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके द्वारा रचित एक गीत 'वीर नारी आगे बढ़, धीर नारी आगे बढ़' उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के कंठ से हमेशा गूंजता रहता था। कारगिल युद्घ से लेकर सामाजिक विषमताओं तक पर लोकगीत रच कर उन्हें स्वर देने वाली बसंती विष्ट उत्तराखंड की संस्कृति को सहेजने और परंपराओं को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं।
प्रेरणा वर्मा : धुन की धनी प्रेरणा वर्मा ने बचपन से ही उद्यमी होने का सपना संजोया था। लेकिन परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं थीं। उन्हें न तो विरासत में कोई उद्यम मिला था और न इतनी पूंजी कि उससे कोई कारोबार खड़ा हो सके। कानपुर की रहने वाली प्रेरणा मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और उनके पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था। यही कारण था कि इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली और यहीं से उनके मन में अपना उद्यम लगाने का विचार आया। परास्नातक की पढ़ाई पूरी की और कंप्यूटर का प्रशिक्षण लिया और 2004 में मात्र तीन हजार रूपये की पूंजी से अपना कारोबार शुरु किया। यहां से शुरु हुआ प्रेरणा के संघर्ष का सिलसिला। प्रेरणा बाजार में ठगी भी गई और उसे अपना उद्यम एक बार बंद भी करना पड़ा लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और इरादों को हमेशा बुलंद रखा। गुणवत्ता और नेकनीयती को अपना हथियार बनाया और फिर ·भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। धीरे-धीरे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ीं और घरेलू बाजार में पैर जमाने के बाद विदेशी बाजार में अपने पैर जमाने की दिशा में अपने कदम बढ़ाए। आज प्रेरणा वर्मा की औद्योगिक इकाई क्रिएटिव इंडिया बीस देशों में अपने लेदर एवं कॉटन से बने कलात्मक उत्पादों का निर्यात करती है और उनकी सालाना ग्रोथ अस्सी फीसदी तक पंहुच गई है, जो अपने आप में सफलता की कहानी बयां करने के लिए काफी है। उन्हें राज्य सरकार की तरफ से विशिष्ठ उत्पादकता पुरस्कार भी मिला है और आज वह अपनी लगन से नए उचाईयों की तलाश में जुटी हुई हैं।
डा0 अमृता सिंह : यूपी कैडर की पीसीएस अधिकारी डा0 अमृता सिंह ने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से हासिल की। 2001 में पीसीएस में चयन होने के बाद पहली पोस्टिंग में ही एक नहीं तीन जिलों का काम उन्हें सौंपा गया। एक अधिकारी होने के बावजूद इन्हें खुद को अपने शोषण से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो इन्होंने एक उच्चाधिकारी की गलत हरकतों से परेशान होकर नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था लेकिन दूसरे ही क्षण अंतरआत्मा की आवाज पर आरोपी बॉस को सबक सिखाने के लिए जी-जान से जुट गईं। अनेकानेक दवाबों के बाद भी झुकी नहीं। अमृता का मानना है कि महिलाएं यदि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखती हैं तो उन्हें उसी तरह रहना सीखना पड़ता है जैसे बत्तीस दांतो के बीच में जीभ रहती है लेकिन यदि स्त्रियां दृढ़ता और मजबूत इरादों का कवच पहन लें तो संसार का कोई भी पुरुष उनसे मनमर्जी नहीं कर सकता।
डा0 अमृता सिंह : यूपी कैडर की पीसीएस अधिकारी डा0 अमृता सिंह ने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से हासिल की। 2001 में पीसीएस में चयन होने के बाद पहली पोस्टिंग में ही एक नहीं तीन जिलों का काम उन्हें सौंपा गया। एक अधिकारी होने के बावजूद इन्हें खुद को अपने शोषण से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो इन्होंने एक उच्चाधिकारी की गलत हरकतों से परेशान होकर नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था लेकिन दूसरे ही क्षण अंतरआत्मा की आवाज पर आरोपी बॉस को सबक सिखाने के लिए जी-जान से जुट गईं। अनेकानेक दवाबों के बाद भी झुकी नहीं। अमृता का मानना है कि महिलाएं यदि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखती हैं तो उन्हें उसी तरह रहना सीखना पड़ता है जैसे बत्तीस दांतो के बीच में जीभ रहती है लेकिन यदि स्त्रियां दृढ़ता और मजबूत इरादों का कवच पहन लें तो संसार का कोई भी पुरुष उनसे मनमर्जी नहीं कर सकता।