देश भर में 12 मई 2014 को सोलहवीं लोक सभा के लिए मतदाता सभी दलों और प्रत्याशियों का भाग्य ईवीएम या मतपेटियों में बंद कर चुके होंगे। 16 मई को जब चुनाव परिणाम आना शुरु होंगे तो सारा देश मोदी की कथित लहर के परिणामों की प्रतीक्षा कर रहा होगा। उस दिन यह तय हो जाएगा कि देश में इमेज बिल्डिंग के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने का देश की जनता पर क्या प्रभाव पड़ता है। यह भी तय होगा कि इस बार भी धर्म और जाति की राजनीति करने वालों के झांसे से देश की आम जनता निकल पाई या नहीं। दिल्ली विधान सभा के चुनावों के बाद हो रहे चुनावों के बाद नजरें इस बात पर भी टिकी होंगी कि आम आदमी आदमी पार्टी का झाड़ू कहां चला और देश में उसका कितना असर रहा। लेकिन गन्ने की मिठास वाले मेरे क्षेत्र में यह आम चुनाव चौधरी चरणसिंह की विरासत को तय करेंगे। गन्ना और किसानों की राजनीति में सिरमौर रहे चौधरी चरणसिंह के वारिस अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल अपना अस्तित्व बचा पाती है या नहीं। यही कारण है कि जाटलैंड की वेस्ट यूपी की यह दस सीटें अजित सिंह के साथ सभी राजनीतिक दलों का गणित उल्टा-पुल्टा कर सकती हैं।
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद इन सीटों पर जहां राष्ट्रीय लोकदल का गणित गड़बड़ा गया है, वहीं इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हो सकता है। इस बार मीडिया की खबरों के मुताबिक जहां अजित सिंह भी अपना चुनाव हार सकते हैं, वहीं यहां की जमीन और राजनीति को समझने वाले अभी तक ऐसी खबरों को गले से नीचे नहीं उतार पा रहे। पूरे चुनाव में मीडिया का फोकस मोदी पर रहा है और अखबारों से लेकर सोशल मीडिया तक में मोदी को हैवीवेट बताया जा रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि इस चुनावी महाभारत का शकुनि असल अखाड़े में पहलवानी कर चुका ऐसा मुलायम शख्स है जिसके राजनीतिक चातुर्य को समझ पाना आसान नहीं है। हकीकत यह है कि पहलवान रहे सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह ने राजनीति के चरखे पर इतना महीन सूत काता है कि अगर किसी का स्पष्ट बहुमत न आए तो चुनाव बाद तीसरे मोर्चे का रथ राजपथ के दंगल में जब उतरे तो उत्तर प्रदेश में उनकी टक्कर पर कोई दूसरा पहलवान बचे ही नहीं।
हांलाकि राजनीति के गलियारों में यह कानाफूसी तेज हो गई है कि सेक्यूलर या कहिए कि मुसलमानों की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह ने परदें के पीछे भाजपा से हाथ मिला रखा है लेकिन अगर यह सत्य भी हो तो मेरा मन इसे स्वीकार नहीं करता। मन भले ही स्वीकार न करे लेकिन यह भी सच है कि मुलायम सिंह ने जिस तरह के उम्मीदवार अपनी पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतारे हैं, उनमें से ऐसे प्रत्याशियों की संख्या काफी है जो खुद तो नहीं जीत सकते लेकिन सेक्यूलर फोर्स कही जाने वाली पार्टियों को पटखनी देने के लिए काफी हैं। अगर ठीक से विश्लेषण करें तो यह साफ लगता है कि मुलायम ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर सोच-समझ कर ऐसी ब्यूह रचना की है कि किसी भी हालत में बसपा, कांग्रेस या लोकदल यहां से सीटें न निकाल पाएं। शायद उनका मानना है कि पीएम की कुर्सी तक वह तभी पहुंच सकते हैं जब इन पार्टियों पर ब्रेक लग जाएं क्योंकि वेस्ट यूपी में उनका अपनी जीत का कोई समीकरण नहीं है।
वेस्ट यूपी की हर सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है और मोदी व भाजपा के खिलाफ अगर वह एकजुट होकर बसपा या लोकदल के साथ चले जाते हैं तो इस इलाके में आते ही भाजपा के रथ को खींच रहा घोड़ा लंगड़ा जाएगा। सेक्यूलर राजनीति करने वाले या मोदी विरोधी दल भले ही देश भर में जगह-जगह इस घोड़े को लंगड़ाता हुआ देखना चाहें लेकिन मुलायम इस सबसे अलग अपनी नजरें सिर्फ और सिर्फ मछली की बायीं आंख पर टिकाए हुए हैं। राजनीति के ऊंट की करवट को दूर से ही भांप लेने वाले मुलायम जानते हैं कि उत्तर भारत के राज्यों के अलावा एक-दो और राज्यों पर केंद्रित भाजपा के लिए लोकसभा में मेजिकल फिगर तक पहुंचना बहुत मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन सा है। वह अपनी जनसभाओं में कहते भी रहें हैं कि केंद्र की कुर्सी को उत्तर प्रदेश तय करेगा और उत्तर प्रदेश में जिसके पास भाजपा के सामने ज्यादा सीट होंगी, वही पीएम की कुर्सी तक पहुंचेगा। इसलिए उन्होने अपने आधार वोट बैंक वाली सीटों के अलावा प्रदेश की दूसरी सीटों पर ऐसे प्रत्याशी उतारे हैं जिससे युपीए का गणित किसी भी दशा में बनने न पाए।
उदाहरण के लिए चौधरी चरणसिंह की कर्मभूमि रही बागपत सीट पर सपा ने ऐसा दमदार मुस्लिम प्रत्याशी उतारा जो बागपत संसदीय क्षेत्र में आने वाली विधानसभा सीट सिवाल खास से विधायक है। राजनीति का ककहरा जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि सालों से इस बेल्ट में जाट और मुसलमान एकजुट होकर वोट करते रहे हैं लेकिन इस बार मुजफ्फरनगर दंगो के बाद यह कांबीनेशन चरमराता दिखाई पड़ा। मुलायम जानते थे कि ऐसे में यदि उन्होने कोई दूसरे आधार वाला प्रत्याशी दिया तो मुस्लिम वोट एक बार फिर अजित पर खिसक सकता है क्योंकि मुस्लिमों को जाटों के मुकाबले मोदी ज्यादा बड़ा खतरा लगते हैं। ऐसे में अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त होकर बसपा पर भी खिसक सकता था लेकिन मुलायम सिंह ने वहां अपना दमदार मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा कर अल्पसंख्यक वोटों का डायवर्जन कर दिया। ऐसे में बहुत मुश्किल नहीं कि अजित के किले की दीवारें दरक जाएं। दूसरी तरफ भाजपा ने इस सीट पर मुबंई के पुलिस कमिश्नर और इसी इलाके के रहने वाले जाट सत्यपाल को खड़ा कर जाट वोटों को हथियाकर जीत के सपने बुने लेकिन 16 मई को जब वोटों की गिनती शुरु होगी तो पता चलेगा कि असल धरातल पर सपने का क्या हुआ।
इसी तरह जाटलैंड की हर उस सीट पर अजित की घेराबंदी कर यूपीए का रथ रोकने की कोशिश भाजपा ने ही नहीं बल्कि मुलायम सिंह की ब्यूह रचना ने भी की है। अजित सिंह के बेटे जयंत के सामने हेमामालिनी को खड़ा कर उन्हें कड़ी चुनौती दी गई तो मुजफ्फरनगर व आसपास की सीटों पर दंगों के बाद से सांप्रदायिक विभाजन ने अजित सिंह की राह में कांटे बिछा दिए। अब यह मतगणना वाले दिन साफ होगा कि चौधरी चरणसिंह की विरासत का आखिरी किला भी बच पाता है या उसकी दीवारें और पिलर भरभरा कर धराशायी हो जाते हैं।
5 comments:
अजित का किला बचे या नहीं लेकिन यह बताईए कि क्या आम आदमी के हक और हित में क्या होगा?
भाई साहब मुझे इतना पता है कि महीन कातने मै आप का कोई जबाब नही.........
बढ़िया विवेचन...इन चुनावों में ऐसा बहुत कुछ है चुनाव परिणाम के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा ....
कोई ढह गए कोई बन गए
waah bahut khoob behtareen articles
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