Sunday, August 3, 2008

ये कैसा इंसाफ!

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

सदियों ने खता की थी, लम्हों ने सजा पाई है। कुछ ऐसा ही होता आया है हमारे इर्द-गिर्द। ऐसा अक्सर सुनने में आता है कि गुनहगार आजाद घूम रहा है और बेगुनाह सलाखों के पीछे पंहुच गया लेकिन मेरठ में दो मासूम जिंदगियां अपने ही जन्मदाताओं के गुनाह की सजा सलाखों के पीछे रहकर नहीं बल्कि हमारे समाज में खुले आसमान के नीचे रहकर भुगतने को मजबूर हैं।
जी हां ! ये पहली बार नहीं हुआ। अक्सर हमारे समाज में होता रहता है क्योंकि कानून न किसी की भावनाएं देखता है, न किसी की लाभ-हानि और न किसी का जीवन-मरण। वह तो देखता है तो बस कानून की किताब के पन्ने, गवाह और सुबूत। इन्हीं तीन चीजों की परिधि में सिमट जाता है कानून का संसार। इसी कानून के संसार यानी मेरठ की एक अदालत के एक इंसाफनामे ने पांच साल के रूद्र, उसकी बीस दिन पहले जन्मी दुधमुंही बहिन और उसकी मां को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से जीवन का सफर बेहद पेचीदा हो जाता है। मजबूरी ये है कि मुश्किलों भरे इस सफर में ढकेलने वाले इंसाफ के खिलाफ कोई टिप्पढ़ी भी नहीं कर सकता लेकिन हम ये तो पूछ ही सकते हैं कि इंसाफ के इन तथाकथित मंदिरों में बैठने वाले देवताओ! सामने नंगी आंखों से दिखाई देने वाले सच को न देखने के लिए कब तक आपकी आंखों पर पट्टियां बंधी रहेंगी? आईए पहले आप पूरा किस्सा सुन लीजिए....
मेरठ के विनोद और ममता का गुनाह इतना था कि वह दोनो एक दूसरे से बेपनाह मौहब्बत करते थे और करते हैं। उनका गुनाह ये था कि वह दोनों अपने सपनों का संसार बसाने के लिए छह साल पहले अपने-अपने मां बाप का घर छोड़कर चले गए थे। या कहिए कि भाग गए थे। अगर भागे भी तो इसलिए कि ये दकियानूसी समाज प्रेम विवाह को आज भी एक गुनाह मानता है। इसके बाद वही हुआ जो हर उस लड़की का मां-बाप करता है जिसकी लड़की प्रेम विवाह के लिए विद्रोह कर घर छोड़ देती है। ममता के घर वालों ने थाने में विनोद के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी कि वह उनकी नाबालिग बेटी को बहला-फुसला कर ले गया है। फिर पुलिस ने वही किया जो कानून कहता है। ममता और विनोद जब एक मंदिर में शादी करने के बाद उसे रजिस्टर्ड कराने कचहरी पंहुचे तो कचहरी के दरवाजे पर ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया। ममता चींखती रही कि विनोद न उसे जबरदस्ती लेकर गया है और न बहला-फुसला कर बल्कि दोनो एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं लेकिन उस की आवाज किसी ने दिल से नहीं सुनी और कानून की किताबों के मुताबिक ममता को नारी निकेतन भेज दिया गया और विनोद को जेल। ममता का मेडीकल चैकअप हुआ और उसे सत्तरह साल की उम्र वाली लड़की घोषित किया गया। मेडीकल में उसके साथ शारीरिक संसर्ग होना भी स्थापित हुआ। लिहाजा विनोद पर अपहरण और बलात्कार का मुकदमा दर्ज हुआ। कुछ महीनों बाद विनोद को जमानत मिली तो नारी निकेतन से अपने मां बाप की सुपुर्दगी में आ चुकी ममता एक बार फिर विनोद के पास चली गई। उसके बाद से पुलिस और कचहरी के बीच झूलते हुए दोनों ने अपना घर वसा लिया। इस बीच ममता ने दो बच्चों को भी जन्म दिया। छह साल बीत गए और समय आया छह साल पहले दर्ज हुए मुकदमें के इंसाफ का। मेडीकल रिपोर्ट को सुबूत मानते हुए विद्वान न्यायाधीश ने विनोद को कुसूरवार माना और सुनाई पांच साल की कैद बामशक्कत।
अब सोचिए कि इंसाफ का हुक्मनामा आने में छह साल लगे। विनोद और ममता के सपनों का घर एक क्षण में ही दरकता हुआ दिखाई देने लगा। विनोद जेल चला गया और ममता दोराहे पर आकर खड़ी हो गई। अदालत को सिर्फ तकनीकी सुबूत दिखाई दिए। इंसाफ के मंदिर को ममता और विनोद के सपनों का मंदिर दिखाई नहीं दिया। उसने छह साल में ममता की आवाज को भी नहीं सुना। इसको भी दरकिनार कर दिया कि ममता और विनोद एक छत के नीचे रह रहे हैं और उनके दो बच्चे भी हैं। यह भी नहीं सोचा कि सजा विनोद को नहीं बल्कि ममता के साथ पांच साल के रूद्र और बीस दिन की दुधमुंही बच्ची को मिलेगी। क्या यही इंसाफ है? ऐसे कानून और इंसाफ से किसको फायदा है? हुक्मरानों को मोटी तन्ख्वाह मिलती है, वकील मोटी फीस खसोटते हैं और कदम-कदम पर कटती है इंसाफ मांगने वाले या चाहने वाले की जेब।
अब आप सोचिए और बताईए कि ममता व विनोद का क्या कुसूर था। अगर वह प्रेम उनका गुनाह भी है तो उन दो मासूमों की परवरिश कैसे होगी? उनका कुसूर क्या है। जब आप आंख खोलकर देखेंगे तो ऐसी कई ममताएं, कई विनोद और कई रूद्र दिखाई देंगे। चिंतन कीजिए और ऐसी ममताओं के लिए मदद को हाथ बढ़ाइए।

9 comments:

राज भाटिय़ा said...

यह तो सचमुच मे एक दर्द नाक हे,जरुर ममता के घर बालो ने यह किया होगा,

परमजीत सिहँ बाली said...

तभी तो कानून की मूर्ती की आँखों पर पट्टी बँधी होती है।

Anonymous said...

कानून भावनाएं नहीं बल्कि तथ्य देखता है। उन गवाहों पर यकीन करता है जो सिर्फ कसम खाकर ये कह सकते हैं कि वह जो कुछ कहेंगे, सच कहेंगे। वह उस डाक्टर की मेडीकल रिपोर्ट पर भी विश्वास करता है जो आपरेशन करते समय किसी मरीज के पेट में तोलिया छोड़ चुका हो लेकिन उसे ममता की आवाज नहीं सुनाई पड़ती।

Unknown said...

आज का कानून पैसे वालों के हाथों की कठपुतली बन चुका है. मजाक बना दिया है इसे कानून के दलालों ने. आँखों पर पट्टी बांधे और हाथ में तराजू लिए कानून की देवी अब वही देखती है जो पैसे के जोर पर उसे दिखाया जाता है, वही सुनती है जो पैसे के जोर पर उसे सुनाया जाता है, उसी पक्ष में न्याय तौलती है जैसा उसे कहा जाता है. पुलिस, वकील, जज अब पैसे के हाथ में बिक कर सुपारी लेने वाले हो गए हैं. अदालतें अब न्याय के मन्दिर नहीं कत्लगाह हो गई हैं.

Ashok Kaushik said...

एक प्रेम कहानी का मार्मिक चित्रण है। लेकिन समझ में ये नहीं आता कि क्या मामले की सुनवाई के दौरान ममता की गवाही नहीं हुई... विनोद के वकील ने इस पक्ष को मजबूती के साथ क्यों नहीं रखा... दोनों ने अपनी शादी के प्रमाण कोर्ट में पेश किए थे या नहीं...इंसाफ की देवी की आंख पर भले ही पट्टी बंधी हो, लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि कानून साक्षों के चश्मे से देखता है।

Anonymous said...

भाई अशोक जी,
आपकी सारगर्भित टिप्पढ़ी के लिए आभार।
ममता की गवाही तो हुई लेकिन अदालत ने माना कि जब अपराध हुआ तब ममता 17 साल की यानी नाबालिग थी। नाबालिग के साथ शारीरिक संसर्ग को अदालत ने बलात्कार माना। इस तरह तकनीकी साक्ष्यों पर जज साहब ने फैंसला सुना दिया।

Anonymous said...

पहले मास्साब का पेट तो भरो
देश में बेसिक शिक्षा का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराने की बात हो तो लोग शिक्षकों से लेकर नेताओं तक को गालियां देते नहीं थकते हैं लेकिन असली कारण की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। जिन शिक्षकों पर बेसिक शिक्षा का भार है उनको ६-७ माह तक वेतन नहीं मिलता है कोई जानता है इस बात को। क्या उनका परिवार नहीं है क्या उनके बीबी बच्चे नहीं हैं, क्या वो रोटी नहीं खाते हैं, क्या वो कपड़े नहीं पहनते हैं. क्या उनको मकान का किराया नहीं देना होता है. क्या उनके स्कूटर में पेट्रोल नहीं पड़ता है। ऐसी हालत में अगर उनसे पढ़ाने में कोई भूल हो जाये या कमी रह जाये तो हर तरह की मलामत। स्कूल इंस्पेक्टर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक बेचारे मास्टर की खाल खींचने को तैयार रहते हैं। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी के ही बगल में कुर्सी डालकर बैठने वाले उस लेखाधिकारी से कोई एक शब्द भी नहीं पूछता जो शिक्षकों के वेतन के बिल छह-छह महीने तक बिना किसी कारण के अटकाकर रखता है। देश का हाल मुझे नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा जैसी जगहों पर तो उस शिक्षक का यहीं हाल है जिसे राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है। किसी से शिकायत वो कर नहीं सकता क्योंकि फिर नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। शिक्षा विभाग का अदना सा बाबू उस शिक्षक या हेडमास्टर को चाहे जब सफाई लेने के लिये दफ्तर बुला लेता है जिसके पढ़ाये हुए कई बच्चे ऊंचे पदों पर बैठे हैं। बुलंदशहर के कई स्कूलों का हाल मुझे पता है जहां शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता है। कुछ स्कूलों में पिछले साल का बोनस अब तक नहीं मिला है जबकि कुछ में मिल चुका है। आखिर इसका क्या पैमाना है। बेसिक शिक्षा से जुड़े अफसरों की निरंकुशता के अलावा और क्या पैमाना हो सकता है इसका। ऐरियर का भी कोई हिसाब किताब नहीं है। शायद लेखाधिकारी महोदय के रहमोकरम पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। जो बेसिक शिक्षा इस देश के निर्माताओं की
नींव रखती है वो सरकार और अफसरों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं शायद। आखिर ऐसा कब तक चलेगा, दरमियाने अफसरों और छुठभैये बाबुओं के चंगुल से कब मुक्त होगी विध्या के उपासकों की बिरादरी।
तहसीलदार

Anonymous said...

पहले मास्साब का पेट तो भरो
देश में बेसिक शिक्षा का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराने की बात हो तो लोग शिक्षकों से लेकर नेताओं तक को गालियां देते नहीं थकते हैं लेकिन असली कारण की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। जिन शिक्षकों पर बेसिक शिक्षा का भार है उनको ६-७ माह तक वेतन नहीं मिलता है कोई जानता है इस बात को। क्या उनका परिवार नहीं है क्या उनके बीबी बच्चे नहीं हैं, क्या वो रोटी नहीं खाते हैं, क्या वो कपड़े नहीं पहनते हैं. क्या उनको मकान का किराया नहीं देना होता है. क्या उनके स्कूटर में पेट्रोल नहीं पड़ता है। ऐसी हालत में अगर उनसे पढ़ाने में कोई भूल हो जाये या कमी रह जाये तो हर तरह की मलामत। स्कूल इंस्पेक्टर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक बेचारे मास्टर की खाल खींचने को तैयार रहते हैं। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी के ही बगल में कुर्सी डालकर बैठने वाले उस लेखाधिकारी से कोई एक शब्द भी नहीं पूछता जो शिक्षकों के वेतन के बिल छह-छह महीने तक बिना किसी कारण के अटकाकर रखता है। देश का हाल मुझे नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा जैसी जगहों पर तो उस शिक्षक का यहीं हाल है जिसे राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है। किसी से शिकायत वो कर नहीं सकता क्योंकि फिर नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। शिक्षा विभाग का अदना सा बाबू उस शिक्षक या हेडमास्टर को चाहे जब सफाई लेने के लिये दफ्तर बुला लेता है जिसके पढ़ाये हुए कई बच्चे ऊंचे पदों पर बैठे हैं। बुलंदशहर के कई स्कूलों का हाल मुझे पता है जहां शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता है। कुछ स्कूलों में पिछले साल का बोनस अब तक नहीं मिला है जबकि कुछ में मिल चुका है। आखिर इसका क्या पैमाना है। बेसिक शिक्षा से जुड़े अफसरों की निरंकुशता के अलावा और क्या पैमाना हो सकता है इसका। ऐरियर को भी कोई हिसाब किताब नहीं है। शायद लेखाधिकारी महोदय के रहमोकरम पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। जो बेसिक शिक्षा शिक्षा इस देश के निर्माताओं की
नींव रखती है वो सरकार और अफसरों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं शायद।
तहसीलदार

प्रवीण त्रिवेदी said...

यह पोस्ट तो बेनामी होनी ही थी / आख़िर प्राइमरी का मास्टर ही रहा होगा / वास्तव में यह एक सच्चाई है .......और इससे समाज मुह नहीं मोड़ सकता है / समाज सेवक कि भूमिका निभाने का दायित्व बोध सुनते सुनते और अधिकारियों की कमीशन-खोरी को देखते हुए ही मन व्यथित हो जाता है / मन में इसी उलझन का ही परिणाम था
मेरा ब्लॉग
प्राइमरी का मास्टर
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तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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