Sunday, April 19, 2009

ये धंधे हैं जो मंदे हैं

बुलंदशहर के एक ग्रामीण इलाके से गुजरते हुए आवाज़ सुनाई पड़ी, सिलबट्टा ठुकवाए लो। गाड़ी रोक दी, कन्फर्म किया आवाज़ वही थी। बातचीत की तो पता चला कि गांव के लड़कों को शादी के दहेज में मिक्सी तो मिल गई हैं लेकिन बिजली आती नहीं लिहाजा फिर से लौट आये हैं सिलबट्टों के दिन। सिलबट्टा यानी पत्थर के वो दो छोटे-बड़े टुकड़े जो दाल पीसने या चटनी पीसने के लिये इस्तेमाल होते हैं। और इन्हीं के साथ लौट आये हैं दिन छैनी-हथौड़ा से सिलबट्टा ठोकने वालों के। मेरी आंखों में आंसू आ गये उस बाबा की तरह जो 30 साल पहले हर महीने डेढ़ महीने में हमारे घर आता था सिलबट्टा ठोकने। एक रुपया लेता था और दो रोटी। मांगकर लेता था एक उबला आलू, उस पर नमक और लाल मिर्च डालकर सब्जी बना लेता था। नल से पानी पीकर चला जाता था, महीने-डेढ़ महीने बाद फिर आने के लिये।
एक दिन आया तो मां ने कह दिया, बाबा अब तो हमने मिक्सी ले ली है। समझ नहीं पाया बेचारा, जब समझाया तो बोला..ऐ बामे का पथरा नाय लगत (उसमें क्या पत्थर नहीं लगता)। अपनी आंखों से मिक्सी देखी, चलवाई, चटनी पिसवाई उस चटनी के साथ दो रोटियां खाईं। बहुत देर तक सुमित की मिक्सी देखता रहा फिर बोला..का-का मशीन आ गईं। सबकी सब हमाई दुस्मन। अब हमे रोटी को देगो।“
बाबा चला गया...उसकी आंखों में भरे आंसू मुझे आज तक याद हैं। तय है कि वहां से कुछ दूर जाते ही फूट पड़े होंगे। वो नज़र नहीं आया उस दिन के बाद। मेरी मां के मन में हमेशा अपराध बोध रहा क्यों उसे हकीकत बताई। मैं भी उस अपराध बोध में शरीक रहा। बुलंदशहर में जब मुझे सिलबट्टा ठोकने वाला दिखा तो सबसे पहले उसी बाबा की याद आई। मुझे बाबा तो नहीं उसकी आत्मा दिखी उस युवक के रूप में जो सिलबट्टा ठोकने की आवाज़ लगा रहा था। उसका धंधा ज़िंदा हो गया है।
बाबा, जहां भी हो देख लेना। तुम्हारी छैनी-हथौड़ी जीत गई है।
वो मशीन हार रही है जिसने तुम्हारी रोज़ी-रोटी छीनने की कोशिश की।

35 comments:

डॉ .अनुराग said...

एक अजीब से अहसास से गुजरा ....उस बाबा की एक तस्वीर दिमाग ने जैसे खुद बखुद गढ़ी....सिलबट्टा .ओर चटनी....का स्वाद जैसे जीभ को छूकर गुजर गया..

seema gupta said...

बाबा, जहां भी हो देख लेना। तुम्हारी छैनी-हथौड़ी जीत गई है।
वो मशीन हार रही है जिसने तुम्हारी रोज़ी-रोटी छीनने की कोशिश की।
" सच मे भावुक कर गयी ये कहानी.....और बाबा भी जहाँ पर भी होंगे उन्होंने भी जरुर देखा होगा ....अपनी जीत को "

regards

राजेन्‍द्र said...

सिलबट्टा, चटनी और बाबा के माध्‍यम से आपने इतने सवाल जेहन में ठूंस दिए हैं जो कई दिनों तक झकझोरते रहेंगे।

हिन्दीवाणी said...

एक तल्ख हकीकत। हम लोग इससे मुंह नहीं चुरा सकते।

Udan Tashtari said...

भावुक कर देने वाली कथा- उम्दा लेखनी.

jamos jhalla said...

uncle joshi chainee hathoraa tabhee jeetataa hai jab tak usme nirbhartaa aur vishvaas ki dhaar banee rehtee hai.moujudaa chaineehathore waalon ki laalee feekee ho rahee hai.isiliye 15vi loksabhaa main shaayad hi choraas kaa dilip kumar waalaa paigaam pahuch sake.phir bhee silbatte ki chatnee ke liye saadhuvaad.
jhallevichar.blogspot.com

संगीता पुरी said...

मशीनो के आने से लोगों की रोजी रोटी की जो समस्‍याएं आयी हैं ... उसको चित्रित करती है यह कहानी ... कहानी नहीं यह हकीकत ... कितनू लोगों का रोजगार छीना है इन मशीनों ने ... ईश्‍वर करे सचमुच छेनी हथौडी हार जाए।

सतीश पंचम said...

सोचता हूँ उस वक्त उन आँखों के जरिये दिमाग में कितनी और कैसी हलचल मची होगी जो अपने सामने अपना पेट सीले जाते हुए देख रहे होंगे कभी मिक्सी के रूप में तो कभी किसी और मशीन के रूप में।

दिनेशराय द्विवेदी said...

भाई मेरे मशीन तो आएगी उसे आप रोक नहीं सकते। इन्सान ने हमेशा अपने श्रम को कम से कम करने के लिए नए नए यन्त्र ईजाद किए हैं। लेकिन जब मनुष्य का श्रम कम होता है तो इस का लाभ समाज के सभी हिस्सों को मिलना चाहिए और जिन का रोजगार छिनता है उन को वैकल्पिक रोजगार मिलना चाहिए। समाज को इस की व्यवस्था करनी चाहिए। वास्तविक समाजवाद यही है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था पुराने कारीगरों और मजदूरों का रोजगार छीनती है और श्रम के हलके होने का लाभ केवल और केवल नए उत्पादन साधनों के स्वामी ले जाते हैं। इस से विपुल मात्रा में पूंजी का निर्माण होता है जो फिर से नये यंत्रों पर कब्जा कर फिर से उन का सारा लाभ जीमने लगती है। यह क्रम चलता रहता है। आज हालात ये हैं कि आधुनितम तकनीक के साथ काम करने वालों को भी 12-18 घंटे काम करना पड़ता है अपना जीवन स्तर बचाए रखने के लिए। यही मौजूदा समय का अंतर्विरोध है। यह समाप्त तभी हो सकता है जब उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व कायम हो और उन का उपयोग समाज के लिए हो न कि दुनिया के चंद लोगों के लिए।
बिजली जाने से सिलबट्टा याद आ सकता है उसे ठोकने वाला भी। लेकिन वह सिलबट्टा ठोकने वाले को फिर से रोजगार नहीं मिल सकता।

L.Goswami said...

दिनेश जी से सहमत हूँ..वैकल्पिक व्यवस्था होनी ही चाहिए ..आप तकनीकी विकास को अवरुद्ध नही कर सकते हैं

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत अच्छा सँस्मरण !
- लावण्या

Ashok Pandey said...

मशीन आदमी से कभी भी जीत नहीं सकती। लेकिन दिक्‍कत यह है कि आज आदमी ही मशीन हो गया है, संवेदनाएं मर गयी हैं।

भावुक कर गयी आपकी पोस्‍ट।

Rajnish Chauhan said...

गुरु जी सुबह के पांच बज रहे हैं जब मैंने आपका ये लेख पढ़ा... सुबह की ताजगी में आपका ये लेख पढ़कर वाकई कई विचार जहन में उठ गए.. इस लेख के जरिये न केवल एक सिलबट्टे वाले की पीडा को अपने सामने रखा है बल्कि वो तमाम लोग जो आज मशीनों के कारण बेरोजगार हैं ये उन सबकी पीडा है.. काश्तकारों से भरे इस देश में मशीनों के आने से ऐसे बहुत से घर हैं जिनके चूल्हे आज ठंडे पड़े हुए हैं..

इरशाद अली said...

आप शब्दचित्र विधा में कहां लिखते है, लेकिन आज तो दिखा ही दिया कमाल, मार्मिक परन्तु वास्तविक धरातल से उठा संस्मरण है, जो मन के किसी कोने को कचोट भी रहा है। बर्तनों पर कलई करने वाले नही दिखते, खाट बुनने वाले नही दिखते, मेरठ की गलीयों में दो मोटे लाला घुमते थे चांदी की बालीयां-बुन्दे बेचते हुए, नही दिखते, तमाशा दिखाने वाले मदारी नही दिखते और बहुत लोग है जो ना जाने कहां चले गए। ये व्यवस्था उनको खा गयी है जो कभी हमारे बचपन की यादें रहे हैं।

Anil Kumar said...

दिल्ली में मेरे घर में आज भी सिलबट्टा है, और रोजमर्रा के उपयोग में भी आता है। जाने कितने बरसों पुराना होगा, शायद मेरी माताजी विवाहोपरांत अपने साथ लेकर आयीं थीं। उसका वो भूरा रंग और पास आने पर मिर्च और हल्दी की मिश्रित महक - एक क्षण में दिल्ली पहुँचा दिया आपने!

मानव और मशीन की जद्दोजहद भारत में बहुत पुरानी है, कभी दिलीप कुमार की "नया दौर" फिल्म देखें, इस कहानी को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए।

ओमकार चौधरी । @omkarchaudhary said...

इस पोस्ट ने गाँव की याद दिला दी. गनीमत है, गाँव में अभी सिलबट्टे वाले भी देखने को मिल जाते हैं और उन्हें इस्तेमाल करने वाले भी हैं. वजह सरकारें हैं, जो वादे तो करती हैं लेकिन कभी बिजली नहीं देती. तो मजबूरी में लोग अभी भी सिलबट्टे का ही उपयोग कर रहे हैं.

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

sirf sil batta he nahin. machino ne pata nahi kya-kya cheen liya hai. udarikaran ne to hamre kuteer udyogon ko cheen kar barozgari ko badhava diya hai

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

दिनेश राय द्विवेदी से सहमति.

समय चक्र said...

उम्दा पोस्ट धन्यवाद.

Dr. Amar Jyoti said...

एक निर्मम सामाजिक यथार्थ की मार्मिक अभिव्यक्ति।पर सामाजिक विकास तो ऐसे ही होता है। छेनी-हथौड़ी को सांस लेने के लिये कुछ पल भले ही मिल जायें मशीन के लिये तो उसे जगह देनी ही होगी।

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

बहुत सच बात लिखी है आपने ...मशीनों ने तमाम छोटे मोटे कम करने वालों का रोजगार छीन लिया है .
लेकिन ये नई मशीनें हमें वो सुख चैन स्वाद तृप्ति शायद नहीं दे सकेंगी जो पारंपरिक यंत्रों के प्रयोग से मिलता था .
हेमंत कुमार

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

मार्मिक रेखचित्र। आंखों में आंसू आ गए पढ़कर। हमारे यहां प्रौद्योगिकी को बिना सोचे-विचारे लाया जा रहा है। यह भूला जा रहा है कि हमारे देश में बेरोजगारी की दर बहुत ज्यादा है, और सही तरह के मशीन न आने से बेरोजगारी और बढ़ेगी ही।

देश के लिए मानव से मशीन ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं।

इसीलिए गांधीजी ने मशीनों का विरोध किया था और हाथ से बुनी खादी पर इतना जोर दिया था।

पर अब गांधीजी को हमने पुतलों में बदल दिया है और साल में केवल एक दिन याद करते हैं उन्हें।

मैं उन लोगों से भी सहमत नहीं हूं जो यह कहते हैं कि प्रौद्योगिकीय विकास को रोका तो नहीं जा सकता।

नहीं रोका जा सकता है, लेकिन प्रौद्योगिकी के आने से जो लोग सड़कों में फेंक दिए गए हैं, उनके लिए पहले व्यवस्था करनी चाहिए थी। यह तो किया नहीं है, बस प्रौद्योगिकी ले आए।

लोगों को सड़कों में फेंकने का काम एक अन्य चीज भी बड़े पैमाने पर कर रही है। वह है सरकार, व्यवसाय, न्यायालय आदि में अंग्रेजी का प्रयोग। इसके कारण अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी अनियोजनीय (unemployable)होते जा रहे हैं और सड़क की खाक छानने को मजबूर हैं।

अंग्रेजी भी एक गलत प्रकार की प्रौद्योगिकी है जो देश को बर्बादी की ओर ले जा रही है।

हमारे देश में लोकतंत्र बस नाममात्र के लिए ही है। नहीं तो उस सिलबट्टा काटनेवाले को इतनी कष्टपूर्ण जिंदगी नहीं गुजारनी होती।

विदेशों में भी नई प्रौद्योगिकायां आने से लोग बेरोजगार होते हैं, पर इसका मतलब उनके लिए भुखमरी नहीं होती।

वहां सब तगड़ा सोशल सेक्योरिटी की व्यवस्था है, जो उनकी बुनायादी जरूरतों (भोजन, पानी, कपड़े, मकना की) की देखभाल कर लेता है।

यहां ऐसा कुछ है नहीं। सवाल यही है कि क्यों नहीं है?

के सी said...

आपकी इस संवेदनशील पोस्ट ने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप टिप्पणियां पाई हैं हरी जी आप और आपके पाठक बधाई के पात्र हैं.

Ria Sharma said...

भावुक संस्मरण

तकलीफ तो बहुत होती है ये सब देखकर
लेकिन सच्चाई को भी तो नहीं नाकारा जा सकता
इस अफरातफरी ,भागम भाग के दौर में ...

अच्छे लेखन के लिए बधाई !!!

admin said...

सही कहा आपने, मिक्सी के आने के बाद से इन पत्थरकटों का तो जैसा धन्धा ही मन्दा हो गया है। इस सामाजिक चेतना से भरी आपकी सोच को मेरा सलाम पहुंचे।

----------
TSALIIM.
-SBAI-

पृथ्‍वी said...

बहुत सुंदर, सही लिखा है आपने ...

रेखा मैत्रा said...

देर तक मन बचपन की गलियों में डोलता रहा.! बाबा के दुश्मन मिक्सी और उनकी भीगी आँखे पीछा करती रही. बहुत भावपूर्ण संस्मरण है.! बधाई !

Anonymous said...

अत्यंत सुन्दर द्र्श्य खींचा है आपने.बहुत अच्छा लगा.

एक सवाल मेरे व्यवसायी मन में ज़रूर उभरा :


क्या मिक्सी खराब नहीं होती.अगर बाबा मिक्सी बनाना सीख लें तो ?

Seasonviews... said...

good one..

सागर नाहर said...
This comment has been removed by the author.
सागर नाहर said...

पढ़ते पढ़ते ना केवल सिलबट्टा ठोकने वाले बाबा वरन, पीतल के बर्तनों पर कलई करने वाले बाबा, रूई को पींजने वाले बाबा और ना जाने किस किस तरह के बाबाओं के साथ बचपन याद आ गया।
धन्यवाद इस सुन्दर पोस्ट के लिये।
॥दस्तक॥गीतों की महफिलतकनीकी दस्तक

Abhishek Ojha said...

बाबा की याद ने झकझोर दिया... मिक्सी और बाबा दोनों ही एक प्रतीक की तरह दिखे... ऐसी कितनी ही मिक्सियों ने बाबाओं की रोटी छीनी है और हमने बाबाओं के लिए कभी कुछ नहीं किया :(

Sanjeet Tripathi said...

मार्मिक!

मानों आंखों के सामने घट सा गया सारा कुछ्।

सिल बट्टे की जगह मिक्सी ले सकता है लेकिन वह स्वाद नहीं दे सकता।

Arvind Mishra said...

चिंतन निमग्न करती प्रविष्टि !

Alpana Verma said...

बाबा, जहां भी हो देख लेना। तुम्हारी छैनी-हथौड़ी जीत गई है।
वो मशीन हार रही है जिसने तुम्हारी रोज़ी-रोटी छीनने की कोशिश की।

-भावुक कर गयी आप की यह पोस्ट..इस आधुनिक युग में भी उन पुरानी व्यवस्थाओं की हमें यदा कदा जरुरत पड़ती रहेगी..वह दिन दूर नहीं जब पेट्रोल की कमी के कारण फिर से सायकिल या तांगे की जरुरत आन पडे.

[आप को मेरा बाल-गीत पसंद आया..धन्यवाद.आप के परिचित के सुपुत्र ने क्या इसे स्कूल में पढ़ा अगर हाँ..तो सुनने वालों की प्रतिक्रिया क्या रही ..जरुरत बताईयेगा.]

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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