केंद्रीय हिंदी संस्थन, आगरा जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है, पिछले दो वर्ष से बिना निदेशक के है और अब भी इस पद पर नियुक्ति हो पाने के आसार नहीं हैं, क्यों? हिंदी की सरकारी संस्थाएं किस तरह से काम करती हैं और किस हद तक चमचों, दरबारियों और छुटभइयों का अभयारण्य बन गई हैं इसका उदाहरण केंद्रीय हिंदी संस्थान है, जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है।
संस्थान में पिछले दो वर्ष से कोई स्थायी निदेशक नहीं है। इस बीच तीन बार निदेशक के पद के लिए विज्ञापन निकाला गया। पहली बार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सुधाकर सिंह का चुनाव भी हो चुका था पर बीच में ही मानव संसाधन विकास मंत्री के बदल जाने से सुधाकर सिंह की नियुक्ति इस तर्क पर नहीं हुई या होने दी गई कि वह अर्जुन सिंह के आदमी थे।
दूसरे व तीसरे विज्ञापन पर आये आवेदनों में चयन समिति को कोई ऐसा आदमी ही नहीं मिला जो इस पद के लायक हो। इसलिए केंन्द्रीय हिंदी संस्थान के वरिष्ठतम प्रोफेसर रामवीर सिंह को अस्थायी निदेशक बना दिया गया। ईमानदार रामवीर सिंह के लिए नये अध्यक्ष अशोक चक्रधर के चलते काम करना आसान नहीं हुआ (उदाहरण के लिए उनके फाइव स्टार होटलों के बिलों पर आपत्ति करना)। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव की भी यह कोशिश रही कि संस्थान में कोई निदेशक आए ही नहीं और वह सीधे-सीधे मंत्रालय से नियंत्रित होता रहे। जो भी हो, अंततः कपिल सिब्बल के छायानुवाद्रक (?) और कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार सामग्री तैयार करने वाले अशोक चक्रधर में मंत्री से अपनी नददीकी के चलते रामवीर सिंह को हटवा दिया और उनकी जगह तात्कालिक कार्यभार के. बिजय कुमार को सौंप दिया।
बिजय कुमार की हालत यह है कि वह पहले ही दो संस्थानों को संभाले हुए हैं। वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग के अध्यक्ष के अलावा वह केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली के निदेशक का अतिरिक्त भार भी संभाले हुए हैं। मजे की बात यह है कि वह हिंदी के आदमी ही नहीं है और पहले ही अपने काम से बेजार और रिटायरमेंट के कगार पर हैं। सवाल यह है कि जब नये निदेशक का चुनाव होने ही वाला था तो फिर रामवीर सिंह को क्यों हटाया गया? (क्या इसलिए भी कि वह अनुसूचित जनजाति के हैं ?) साफ है कि उपाध्यक्ष महोदय किसी ऐसे ही आदमी की तलाश में थे जिसकी और जो हो, हिंदी में कोई रूचि न हो। बिजय कुमार से बेहतर ऐसा आदमी कौन हो सकता था जो उपाध्यक्ष के मनोनुकूल निदेशक की नियुक्ति तक इस पद की पहरेदारी कर सके।
इससे यह बात फिर से साफ हो जाती है कि सरकार हिंदी और हिंदी की संस्थाओं के लिए कितना चिंतित है। एक आदमी जिसे एक संस्था का चलाना ही कठिन हो रहा हो, उस पर तीन संस्थाओं को थोपना सरकार की मंशा को स्पष्ट कर देता है। स्पष्ट है कि वृहत्तर हिंदी समाज की बात तो छोड़िये, हिंदी के बुद्वि जीवियों को भी इससे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यह अचानक नहीं है कि हिंदी की संस्थाओं पर मीडियाकरों का पूरी तरह कब्जा हो चुका है। इस संस्थाओं में हो क्या रहा है, इनकी क्या उपयोगिता है, यह सवाल शायद ही कभी पूछे जाते हों। जहां तक बुढा़पे में कवि बने कपिल सिब्बल का सवाल है उनकी रूचि हिंदी व उसकी संस्थाओं में तब हो जब उन्हें 2 जी स्पेक्ट्रम और अपने हमपेशेवर वकील अरूण जेटली से वाक्युद्ध करने से फुर्सत मिले। वैसे 2 जी स्पैक्ट्रम है तो दुधारी गाय पर फिलहाल इसकी हड्डी सरकार के गले में फंसी हुई है।
पर असली किस्सा है संस्थान के नये निदेशक की नियुक्ति को लेकर। गत जनवरी में इस पद के लिए पहला विज्ञापन निकाला गया था। 15 जून, 2010 को तीन सदस्यों की सर्च कमेटी, जिसमें श्याम सिंह शशि (प्रकाशन विभाग प्रसिद्धि के), नासिरा शर्मा और रहमतुल्ला थे, मीटिंग हुई। पर किसी उम्मीदवार को उपयुक्त नही पाया गया। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में दोबारा से इस पद के लिए संशोधित विज्ञापन निकाला। इस में पीएचडी आदि के अलावा, जो अनिवार्य योग्यताएं मांगी गई थी उनमें : - प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित कार्य और पुस्तकों के लेखन में प्रमाण के रूप में प्रकाशित कार्य -
प्रशासनिक अनुभव के तौर पर : संकायाध्यक्ष/स्नातकोत्तर कॉलेज के प्रिंसिपल/ विश्वविद्यालय का रेक्टर/पीवीसी/कुलपति/विश्वविद्यालय विभाग के अध्यक्ष के रूप में पांच वर्ष का प्रशासनिक अनुभव।
आवेदन आए। उसी पुरानी सर्च कमेटी की मीटिंग 21 फरवरी को रखी गई। कहा जाता है कि उपाध्यक्ष महोदय की रूचि अपने एक निकट के व्यक्ति/संबंधी की नियुक्त करने में थी। पर जिस व्यक्ति को अंततः चुना गया, वह थे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे मोहन (शर्मा) नाम के सज्जन, जो छह वर्ष पूर्व अचानक बर्धवान से सीधे दिल्ली में प्रकट हुए थे। मंत्रालय को भेजे गए एक गुमनाम पत्र में आरोप है कि इन्होंने दिल्ली में नौकरी पाने के लिए सीपीएम के दरवाजे खटखटाए थे। इस बार बतलाया जा रहा है कि इनकी सिफारिश ठोस कांग्रेस खेमे से सीधे हैदराबाद से होती हुई राज्य मंत्री की ओर से थी। जो भी हो फिलहाल जिन मोहन जी का चुनाव किया गया था वह चूंकि उपाध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय के आचार्यो की विख्यात टोली के निकट थे और उनका लचीलापन अब तक जग जाहिर है, इसलिए उपाध्यक्ष को उन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। मंत्रालय को भेजे गए इस गुमनाम पत्र लेखक ने मोहन जी की विशेषता कुछ इस प्रकार बतलाई है कि यह ‘‘प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के कारण या किसी प्रतिष्ठित लेखक के रूप में भी नहीं जाने जाते हैं।‘‘ बल्कि ‘‘इनको दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष (यानी सुधीश पचौरी) के क्लर्क के रूप में जाना जाता है।‘‘ साफ है कि जो आदमी जुगाड़ का ही माहिर हो और दिल्ली -कोलकाता-हैदराबाद को चुटकियों में साध सकता हो, उस बेचारे के पास लिखने-पढ़ने की फुर्सत ही कहां होगी। फिर पढ़ने से हिंदी में होने वाला भी क्या है, यहां तो जो होता है वह जुगाड़ से ही तो होता है। वह स्वयं इसके साक्षात उदाहरण हैं ही।
पर इस आदमी को चुनने के लिए जो तरीके अपनाए गए वे अपने आप में खासे आपत्तिजनक थे। उदाहरण के लिए सबसे पहले तो सर्च कमेटी की सदस्य नासिरा शर्मा को, जो अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व व निर्णयों के लिए जानी जाती हैं, कमेटी की मीटिंग की जानकारी ही नहीं दी गई। जब उन्हें यह बात पता चली तो इस वर्ष 22 फरवरी को उन्होंने एक पत्र मंत्रालय में संबंधित संयुक्त सचिव को यह जानने के लिए लिखा कि क्या जिस सर्च कमेटी में मेरा नाम है उसकी मीटिंग 15 फरवरी को हो चुकी हैं? इसके बाद 27 फरवरी को नासिरा जी ने दूसरा पत्र मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिख दिया।
इस पर संस्थान ने तर्क दिया कि हमने तो नासिरा जी को पत्र लिखा था अगर उन्हें नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं। यह गैरजिम्मेदाराना हरकत की इंतहा है। इस पर संबंधित अधिकारी को निलंबित किया जा सकता है। सरकार का इस संबंध में नियम यह है कि तब तक किसी भी सर्च कमेटी की बैठक नहीं की जा सकती जब तक कि उसके सभी सदस्यों को यथा समय सूचित कर उनकी सहमति नहीं ले ली जाती। अगर कोई सदस्य नहीं आना चाहता, यह भी उससे लिखित में लेने के बाद ही, उसके बगैर कमेटी की मीटिंग हो सकती है। नासिरा जी दिल्ली में ही रहती हैं। आखिर ऐसा क्या था कि उन्हें हाथों-हाथ मीटिंग के बारे में सूचित न किया जा सकता हो? साफ है कि विभाग की मंशा ही कुछ और थी और यह जानबूझ कर किया गया था।
जहां तक उपाध्यक्ष का सवाल है वह सारे मामले को स्वर्ण जयंती का बहाना बना कर अपनी ओर से आनन-फानन में निपटा, फरवरी में ही हिंदी का प्रचार करने अपनी टोली के साथ इंग्लैण्ड चले गए थे। फाइल मंत्री महोदय के पास पहुंच भी गई। पर तब तक नासिरा शर्मा का पत्र मंत्री महोदय को मिलने के अलावा विभिन्न अखबारों में भी छप गया। इस पर मंत्री ने उस फाइल को कैबिनेट कमेटी के पास स्वीकृति लेने के लिए नहीं भेजा। पर इस बीच मधु भारद्वाज नाम की एक उम्मीदवार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। इसमें आरोप है कि संस्थान ने अपने विज्ञापन में हिंदी की एक संस्था के निदेशक के पद के लिए हिंदी एमए की शैक्षणिक योग्यता ही नहीं मांगी। इसके कारण कई लोग आवेदन ही नहीं कर पाए। उनका कहना है कि यह जानबूझ कर भ्रम फैलाने के किया गया, क्योंकि मंत्रालय ने किसे लेना है इस बाबत पहले से ही मन बना लिया था। कोर्ट ने मंत्रालय से चार सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है।
इसी का नतीजा है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में, निदेशक के तौर पर के. बिजय कुमार का नाम छपा था। यानी मंत्री उस फाइल को आगे नहीं बढ़ा पाए हैं। देखना होगा कि क्या इस बार भी निदेशक की नियुक्ति हो पाएगी?
फिलहाल हिंदी संस्थान आगरा को लेकर दो समाचार हैं। पहला, इसके स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों की शुरुआत 28 मार्च से, आगरा में नहीं, दिल्ली में हो गई है। पर जैसा कि निमंत्रण पत्र में लिखा था यह सिब्बल के करकमलों से नहीं हो पाया है। संस्थान ने मंत्री महोदय के लिए सुबह साढ़े दस के समय को दस भी किया पर मंत्री महोदय ने न आना था न आए। यह दूसरी बार है जबकि मानव संसाधन विकास मंत्री ने संस्थान को ऐन वक्त पर गच्चा दिया था। नृत्यांगना राज्य मंत्री डी पुरंदेश्वरी ने भी हिन्दी को इस लायक नहीं समझा की दर्शन देतीं। इन लोगों की नजरों में हिंदी संस्थानों का महत्व अपने नाकारा लगुवे को चिपका सकने की जगहों से ज्यादा कुछ है भी नहीं।
दूसरा समाचार, जो जरा पुराना है, अशोक चक्रधर को मंत्री की सेवा करने के कारण उचित पुरस्कार मिल गया है। वह अगले तीन वर्ष के लिए उपध्यक्ष बना दिए गए हैं। पिछला एक वर्ष वह था जो रामशरण जोशी ने नये मंत्री के आ जाने के कारण नैतिक आधार पर छोड़ दिया था। कौन पूछने वाला है कि चक्रधर ने पिछले एक साल में केंद्रीय हिंदी संस्थान में पांच सितारा होटलों में ठहरने के अलावा क्या किया ? महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने सिब्बल को साधा और छायानुवाद की ‘जय हो‘ विधा को फिर से पुनर्जीवित किया।
यह आलेख ''समयांतर'' में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है.
6 comments:
हाँ हमारे संसथान ऐसे ही चलते हैं बस चलाने वाले को कुछ हाथ की सफाई ,थोड़ी चारण शैली में महारत और भरपूर चाटुकारिता आती हो .सरकार को ऐसे संस्थानों के लिए मुफ्त का मट्ठा पीकर हरदम मुस्कराते रहने वाले पालतू पिल्लों की दरकार होती है . ,.
आंखें खोल देने वाली सच्चाई है।
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बहुत तकलीफ़ होती है ऐसी बातों को पढ़ कर| खैर हमें तो बस अपना काम करते रहना है|
अफसोसजनक ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है.
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