दो ग़ज़लें
एक
बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं
जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं
मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं
जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं
ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं
इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं
सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं
मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं
भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं
पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं
मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं
पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं
दो
उसने मुझसे बोला झूठ
अपना पहला पहला झूठ
ताकतवर था खूब मगर
फिर भी सच से हारा झूठ
अब मैं तुझको भूल गया
आधा सच है आधा झूठ
सच से आगे निकल गया
गूंगा, बहरा, अंधा झूठ
कुछ तो सच के साथ रहे
ज्यादातर को भाया झूठ
जग में खोटे सिक्के सा
चलता खुल्लम खुल्ला झूठ
शक्ल हमेश सच की एक
पल पल रूप बदलता झूठ
सच से बढ़ कर लगा मुझे
उसका प्यारा प्यारा झूठ
माँ से बढ़कर पापा हैं
कितना भोला भाला झूठ
सच ने क्या कम घर तोड़े
बदनाम हुआ बेचारा झूठ
Tuesday, April 5, 2011
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