कविता
……….
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम
का
पथ
आलोकित
कर!
सौरभ
फैला
विपुल
धूप
बन
मृदुल
मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे
प्रकाश
का
सिन्धु
अपरिमित,
तेरे
जीवन
का
अणु
गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
तारे
शीतल
कोमल
नूतन
माँग
रहे
तुझसे
ज्वाला
कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय,
न
जल
पाया
तुझमें
मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
जलते
नभ
में
देख
असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय
सागर
का
उर
जलता;
विद्युत
ले
घिरता
है
बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
द्रुम
के
अंग
हरित
कोमलतम
ज्वाला
को
करते
हृदयंगम
वसुधा
के
जड़
अन्तर
में
भी
बन्दी
है
तापों
की
हलचल;
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!
मेरे
निस्वासों
से
द्रुततर,
सुभग
न
तू
बुझने
का
भय
कर।
मैं
अंचल
की
ओट
किये
हूँ!
अपनी
मृदु
पलकों
से
चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल!
सीमा
ही
लघुता
का
बन्धन
है
अनादि
तू
मत
घड़ियाँ
गिन
मैं
दृग
के
अक्षय
कोषों
से-
तुझमें
भरती
हूँ
आँसू-जल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!
तुम
असीम
तेरा
प्रकाश
चिर
खेलेंगे
नव
खेल
निरन्तर,
तम
के
अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट
चित्र
अंकित
करता
चल,
सरल-सरल मेरे दीपक जल!
तू
जल-जल जितना होता क्षय;
यह
समीप
आता
छलनामय;
मधुर
मिलन
में
मिट
जाना
तू
उसकी
उज्ज्वल
स्मित
में
घुल
खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम
का
पथ
आलोकित
कर!
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