उठ के देखा, तो रास्ता पाया,
दोस्त को, राह पर खङा पाया|
मिट गयीं सब शिकायतें दिल की,
दिल से दिलदार को जो चिपटाया|१|
कल जो बोया था, बीज कोशिश का,
आज उसका ही फल, 'बढा' पाया|
दोस्त, इन्सानियत के पेङों को,
सख्त तूफाँ भी ना झुका पाया|२|
वो उजाला भी क्या उजाला है,
जो अँधेरों को ना मिटा पाया|
इस अमीरों के मुल्क को यारो,
भुखमरी से, निरा, पटा पाया|३|
बात करता है वो, सलीके से,
उसकी नीयत में, 'खोट' सा पाया|
वोट ले कर, वो हो गया गायब,
हमने खुद को, ठगा ठगा पाया|४|
कामयाबी के जश्न से पहले,
देख, क्या खोया और क्या पाया|
बन गया 'साब' कल जो था 'लेबर'
फिर भी, 'रोटी' वो ना जुटा पाया|५|
इसलिये लोग बन गये 'अहमक',
सब को रब, 'अक्ल' ना लुटा पाया|
सैंकङों से, चुरा के सुन्दरता-
चंद रुख, खूबरू बना पाया|६|
उस[*] से लङता रहा हूं अरसे से,
उस को लेकिन, न मैं हरा पाया|
हर दफा, खुद को ही किया है चुप,
उस को खामोश ना करा पाया|७|
उसने पूछा, कयूं कहते हो गजलें?
कोई कारण नहीं बता पाया!
जो भी देखा, जिया, सुना, सोचा,
खुद ब खुद शेर में ढला पाया|८|
ऐसा सुन के, वो पूछता है फिर,
शेर पढ़ कर के, तुमने क्या पाया?
कश-म-कश थी, कि छोङती ही न थी
शेर कह कर, सुकून सा पाया|९|
अहमक = मूर्ख / बुद्धू
रुख = चेहरे
खूबरू = सुन्दर / खूबसूरत
[*] इस ग़ज़ल में 'उस' का सन्दर्भ:
पूछने वाला मेरे अंदर का भौतिक व्यक्ति
जवाब देने वाला मेरे अंदर का क्रियात्मक व्यक्ति
नवीन सी चतुर्वेदी
Thursday, November 18, 2010
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7 comments:
क्या निराले शेर हैं भाई
भावनाएं भी अच्छी लगीं
मेरी बधाइयां
बहन अलका सरवत जी आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए शत शत अभिनन्दन
उसने पूछा, कयूं कहते हो गजलें?
कोई कारण नहीं बता पाया!
जो भी देखा, जिया, सुना, सोचा,
खुद ब खुद शेर में ढला पाया
बहुत ही गहरे अर्थों वाली पंक्तियां हैं,
चतुर्वेदी जी, बधाई।
स्नेही महेंद्र वर्मा जी आप की पारखी नज़र को सलाम|
खूब!
आभार अमर ज्योति जी
वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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