Friday, December 31, 2010

नव वर्ष - शुभकामनायें

समृद्धि , सुख, शांति के लेकर नव उपहार,
दो हज़ार ग्यारह खड़ा, मित्र आपके द्वार।

याद पुराने वर्ष की, रहे न कोई टीस
नए वर्ष के साथ हों ईश्वर के आशीष ।

नव आशा, नव कल्पना, नव चिंतन नव शोध
नया वर्ष दे आपको, नव जीवन का बोध ।

नव उमंग, संकल्प नव, मन में नव विश्वास
नया सूर्य लेकर उगे , नित्य नया उल्लास ।

सरस, सुवासित 'अनिल' का मिले सदा स्पर्श
यही हमारी कामना, शुभ हो नूतन वर्ष ।



दो गज़लें

(१)
नए वर्ष की नयी सुबह का स्वागत कर लें
नए सोच से, नई तरह का स्वागत कर लें

दिल के जिस कोने में कोई दर्द छिपा हो,
आओ मिल कर उसी जगह का स्वागत कर लें

बांधे है जो अनदेखे बंधन में हमको
स्नेह डोर की उसी गिरह का स्वागत कर लें

बिना वज़ह मिलता है कोई कहाँ किसी से
चलो आज तो किसी वज़ह का स्वागत कर लें।

(२)

आप खुशियाँ मनाएँ नए साल में
बस हँसे, मुस्कुराएँ नए साल में

गीत गाते रहें, गुनगुनाते रहें
हैं ये शुभ-कामनाएं नए साल में

रेत, मिटटी के घर में बहुत रह लिए
घर दिलों में बनायें नए साल में

अब न बातें दिलों की दिलों में रहें
कुछ सुने, कुछ सुनाएँ नए साल में

जान देते हैं जो देश के वास्ते
गीत उनके ही गायें नए साल में

भूल हमको गए हैं जो पिछले बरस
हम उन्हें याद आयें नए साल में

कुमार अनिल

Sunday, December 26, 2010

अलविदा 2010......स्‍वागत 2011....!!!

किससे गिला...किससे और कैसी उम्‍मीदें

तो सन २०१० हमसे हाथ छुड़ा कर विदाई मांग रहा है। जब आया था तो कोई बहुत बड़ी उम्मीदें नहीं बांधी थी हमने इससे। हां, मन में इच्छा जरूर थी कि काश यह साल पिछले गुजरे सालों से बेहतर साबित हो। घृणा, नफरत,हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद, अलगाववाद से कुछ तो मुक्ति मिले हमें। वैमनस्य की काली आंधी कहीं तो जाकर रुके। तरक्की की होड़ में शामिल होकर कहीं भी, कुछ भी करने को आतुर इंसान एक क्षण रुक कर कुछ तो सुस्ताये, कुछ तो सोचे। एक-दूसरे को खूब दुआएं-शुभ कामनाएं दीं। एस.एम.एस किए, कार्ड भी भेजे लेकिन जैसी औपचारिकताएं , वैसे ही परिणाम भी मिले। कुल मिला कर किसी तरह यूं ही गुजर सा गया यह साल।
हां! थोड़ी और तरक्की कर ली हमने। भ्रष्टाचार के मामलों में नए मानदंड स्थापित किए। लूट, हत्या, बलात्कार के मामलों में भी नए नए रिकॉर्ड बनाए। निरीह औरत की हत्या कर उसकी लाश के टुकडो को तंदूर से डीप फ्रीजर तक पंहुचा दिया; और इसमें न हमारे हाथ कांपे न ही आत्मा। राजनेताओं ने घृणा की खाईयों को पाटने की जगह और चौड़ा करने का अपना दायित्व बखूबी निभाया। मंहगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं पर राजनीतिक विचारहीनता और संवेदनशून्यता में और बढ़ोतरी की । अमीर और अमीर हुए; गरीब और गरीब। स्विस बैंकों में हम भारतियों का काला धन कुछ और बढ़ गया। साथ ही हर भारतीयों पर विदेशी कर्ज की मात्रा भी और बढ़ गई। दुनिया की तीसरी बड़ी महाशक्ति के रूप में उभर रहा भारत भुखमरी से लड़ने के मामले में ८४ देशों की सूची में ६७वें स्थान पर आ गया। बाल मृत्‍यु दर के मामले में हम पहले से ही सबसे ऊंची पायदान पर हैं, निरक्षता के मामले में दुनिया के ३५% हो गए। ग्लोबल पीस इंडेक्स में छह और पायदान फिसलकर १२८वे स्थान पर आ गए। यह तरक्की थोड़ी है क्या खुश होने के लिए! यूं खुश होने के लिए कुछ बातें और भी हैं। शायद इसलिए कुछ और भी ज्यादा क्योंकि ये हमारे खंडित अभिमान को सहलाने का थोडा बहुत माद्दा भी रखती है। मसलन - विश्‍वमहाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा। उल्लेखनीय है कि जहां पहले अमेरिका की छवि 'दाता' की रही थी वहीं ओबामा की यात्रा के समय भारत और अमेरिका के सम्बन्ध बराबरी के स्तर पर प्रगाढ़ होते दिखे। भारत के अपने स्वार्थ हैं तो अमेरिका भी अपनी अर्थव्यवस्था में आए ठहराव को तोड़ने के लिए भारतीय बाजार में अपनी पहचान बढ़ाने को लालायित है और अपने यहां भारत के निवेश की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। इसके अतिरिक्त विश्व और एशिया की अन्य महाशक्तियों जैसे - ब्रिटेन, जर्मनी ,पोंलेंड, रूस और अभी हाल ही में चीन के राष्ट्राध्यक्षों की भारत यात्रा को इसी कड़ी में जोड़कर देखा जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम ऍफ़) में भारत १० सदस्य देशो में सम्मिलित हो गया है। जिस भारत को अभी कुछ वर्ष पहले देश की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अपने सोने का रिजर्व भंडार विदेशों को गिरवी रखना पड़ा था, आज उसके पास अपना स्वयं का १८००० टन सोना है जो संपूर्ण विश्व का ११% से अधिक है। है न खुश होने की बात! भारत गरीबों का देश है मगर यहां दुनिया के सबसे बड़े और ज्यादा अमीर बसते हैं। स्विस बैंक एसोसिएशन ने खुलासा किया है कि उसके बैंकों में भारतियों के कुल ६५,२२३ अरब रूपये जमा हैं और इस मामले में हम भारतीय अव्वल हैं। स्विटजरलैंड तो केवल एक देश है, इसके अतिरिक्त भी कई देशों में भारतियों का काला धन जमा है। ये देश वे देश हैं जहां की सरकारें इस तरह की कमाई जमा करने के लिए प्रोत्साहन देती हैं। जाहिर है यह काला धन भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, आई ए एस , आई पी एस जैसे अन्य प्रशासनिक अधिकारियों और उद्योगपतियों का ही होगा। यहां यह बताना तर्कसंगत होगा कि स्विस बैंको में जमा यह धन हमारे जी डी पी का ६ गुना है। अगर यह धन देशमें वापिस आ जाए तो देश की अर्थव्यवस्था और आम आदमी की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार भारत को अपने लोगों का पेट भरने और देश को चलाने के लिए ३ लाख करोड़ रूपये का कर्ज लेना पड़ता है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है वहीं प्रति भारतीय पर कर्ज की मात्रा भी बढती जा रही है । एक अरब से अधिक आबादी और ३७% गरीबी के बीच भारत के हर नागरिक पर लगभग ८५००/- रूपये का विदेशी कर्ज है। जी हां! भारत में अगर बच्चा जन्म लेता है तो वह ८५०० रूपये के विदेशी कर्ज से दबा होता है। यदि स्विस बैंको में जमा धन का ३०-३५ प्रतिशत भी देश में आ गया तो हमें आई एम एफ़ या विश्व बैंक के सामने कर्ज के लिए हाथ नहीं फ़ैलाने पड़ेंगे। यदि यह सारा धन भारत को मिल जाता है तो देश को चलाने के लिए बनाया जाने वाला बज़ट बिना टैक्स के ३० साल के लिए बनाया जा सकता है। स्विस बैंको में जमा धन का २५-३०% भी अगर देश को मिल जाए तो २० करोड़ नई नौकरियां पैदा की जा सकती हैं। यानी बहार ही बहार। पल भर में देश से गरीबी दूर।
बात तरक्की की रफ़्तार पर गर्वित होने की हो रही है तो यह भी जानते चलें कि अमेरिकी बिजनेस पत्रिका फ़ोर्ब्स के अनुसार २०० एशियाई कम्पनियों में ३९ भारतीय कंपनियों ने जगह बनाई है। इस सूची में सबसे ज्यादा ७१ कंपनियां चीन व हांगकांग की हैं। भारत दूसरे स्थान पर है। इसी क्रम में फोर्चून-५०० की सूची में भी ८ भारतीय कम्पनियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। भारतीय उद्योगपति धड़ाधड़ विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं और दुनिया को बता रहे हैं की हम किसी से कम नहीं। अब कंपनियां और उद्योगपति कमा रहे हैं तो सरकार भी क्यों पीछे रहे। सरकार को जहाँ 3 जी स्पेक्ट्रम सेल से ६७,७१९ करोड़ की राशि मिली है तो ब्रॉड बैंड नीलामी से ३८००० करोड़ की कमाई हुई है। साथ में सरकार के मंत्रियों-संतरियों के हाथ भी तर हो गए वह अलग। और शराब से जो कमाई सरकार को होती है, उसे कौन नहीं जानता। उसको छोड़ा भी नहीं जा सकता। चाहे एक पूरी की पूरी पीढ़ी ही उसमे क्यों न डूब कर बर्बाद हो जाए।
कुछ महान व्यक्ति भी इस वर्ष में जोर-शोर से उभरे। भ्रष्टाचार में रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन के लिए सबसे ऊपर रहे दूरसंचार मंत्री ए.राजा। २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला (१.७६ लाख करोड़ रूपये) , सुरेश कलमाड़ी(कोमन वैल्थ गेम घोटाला) ,अशोक चौहान (मुख्य मंत्री -महाराष्ट्र, आदर्श सोसाइटी घोटाला) , एस येदुरप्पा (मुख्यमंत्री, कर्नाटक), सौमित्र सेन(पूर्व न्यायाधीश , कोलकोता हाईकोर्ट), ललित मोदी (पूर्व अध्यक्ष-आई पी एल ) शशि थरूर आदि-आदि। इन सभी महान आत्माओं को एक अरब से अधिक भारतीयों का कोटि-कोटि नमन। लेकिन कुछ ऐसे भी नाम रहे जिन्होंने विश्व मानचित्र पर अपने नाम के साथ-साथ अपने देश का नाम भी अंकित किया। इनमे प्रसिद्ध बांसुरी वादक श्री हरी प्रसाद चौरसिया (संगीत में योगदान के लिए फ़्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'शेवेलियर डेंस ला आर्दरी देस आर्ट्स एंड देस लेटर्स') , मुकेश अंबानी 'एशिया सोसाइटी का ग्लोबल विजनअवार्ड', नंदन नीलेकनी-येल विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान 'लीजेंड इन लीडरशिप', और नि:संदेह कॉमंवेल्थ और एशियन गेम्स में अपने बलबूते पर विजयी हुए। कुछ खिलाडी जिन्होंने हमें गर्वित होने का कुछ अवसर प्रदान किया। २०१० के जाते-जाते सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट मैचों में अपना ५० वा शतक ठोक कर दुनिया के नक़्शे पर नए चिन्ह अंकित कर दिए। लेकिन उनका महत्व इन ५० टेस्ट शतको से अधिक इसलिए है कि उन्होंने इससे पहले करोड़ो का ऑफर ठुकरा कर शराब के विज्ञापन में काम करने से इंकार कर दिया था। और इस लिए भी कि उनको संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम का नया सदभावना राजदूत बनाया गया है। इसके अतिरिक्त डॉक्टर तथागत तुलसी जिन्होंने महज २२ साल की उम्र में ही आई आई टी मुंबई में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने का सबसे कम उम्र का रिकॉर्ड बनाया। डॉक्टर तुलसी ने पिछले दिनों इंडियन इंस्‍टीटयूट ऑफ़ साइंस, बेंगलुरु से पी.एच.डी.कर भारत का सबसे युवा पी एच डी होल्डर होने का रिकॉर्ड बनाया था। साथ ही उल्लेख किया जाना चाहिए प्रसिद्ध गणितज्ञ आंनंद का जिनके द्वारा स्थापित कोचिंग संस्थान सुपर-३० को अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैग्‍जीन ने एशिया का सर्वोत्तम स्कूल माना है। बीते वर्ष यहाँ के सभी ३० विद्यार्थी आई आई टी प्रवेश परीक्षा में सफल रहे थे। कभी पैसे की कमी के कारण उच्च शिक्षा के लिए निमंत्रण के बावजूद कैम्ब्रिज विश्वविधालय नहीं जा सके आनंद ने १९८६ में रामानुजम स्कूल ऑफ़ मैथ्स की स्थापना की, जहां निर्धन मेधावी बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है। यहीं एक और नाम जो उम्मीद की कई अजीम किरणे एक साथ जगाता है , वह है विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी का। कार्पोरेट जगत के इस महारथी ने एक बार फिर दो अरब डॉलर मूल्य के शेयर अपने एक धर्मार्थ ट्रस्ट को दान कर दिए। इस धन से यह ट्रस्ट शिक्षा सेवाओं का विस्तार करेगा। क्या मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, लक्ष्मी मित्तल, रूइया भाई , के पी सिंह और सुनील मित्तल तक यह समाचार नहीं पहुंचा होगा। ये लोग भी इस तरह का कुछ सोचेंगे या सिर्फ अपने साम्राज्‍य को अपने लिए ही बढ़ाने में लगे रहेंगे।
लौटकर एक बार फिर रुखसत होने को आतुर 2010 पर आते हैं। बढ़ते हुए लूट, हत्या , बलात्कार, हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद और अलगाववाद की और लौटते हैं। क्या कुसूर है 2010 का! बोते क्या आ रहे है हम! फिर अच्‍छा काटने का सोचे भी किस उम्‍मीद से। स्वतंत्रता के बाद से ही निरंतर गिरने का सिलसिला जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, नैतिकता, देश प्रेम ,संस्कृति , मर्यादा, संवेदना और करुणा आदि सारे मानवी मूल्य भूल गए हैं हम। हर मोर्चे पर विफल। जरा अपने बच्चों से पूछ कर देखें कि कितना जानते हैं वे महात्मा गाँधी, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय के बारे में। महाराणा प्रताप, शिवाजी और रानी लक्ष्मी बाई तो इतिहास की परतों में कहीं बहुत दूर गुम हो गए हैं उनके लिए। राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान में अंतर पता है उन्हें। अंतर नहीं पता, अर्थ ही पता है क्या। भौतिकवाद और आर्थिक समृद्धि की अंधी दौड़ में शामिल हम लोग आखिर क्या उदाहारण स्थापित कर रहें हैं नई पीढ़ी के सामने। रोल मॉडल कौन हैं उनके आज । 'आदर्श' शब्द अपना अर्थ तो खो ही चुका है, अब अपना अस्तित्व ही न खो बैठे। क्योंकि आज की पीढ़ी अपने रोल मॉडल इतिहास से नहीं वर्तमान से उठा रही है। ये वे चेहरे होते हैं जो आज तो चमकते दिखाई देते हैं लेकिन अगले ही पल उन्हें दरकते भी देर नहीं लगती। अपने बच्चों के लिए समय नहीं है आज हमारे पास। हां, सुख सुविधा के नाम पर सब कुछ देने को तैयार हैं हम उन्हें। कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से यह सब कुछ हासिल भी हो रहा है उन्हें,शायद कुछ ज्यादा ही; वह भी समय से पहले। यही कारण है कि अब न उनके पास धैर्य है, न संयम, और न ही सोचने समझने का समय। जो भी हासिल करना है, अभी हासिल करना है, एकदम, बिना समय गंवाए। और इस हासिल करने के बीच में जो भी आएगा, उसे हटा दिया जाएगा या मिटा दिया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक स्तर तक एक अजीब सी आपाधापी मची हुई है और हम सब शामिल हैं इसमें। बड़े राष्ट्र अपने स्वार्थों के लिए छोटे राष्ट्रों को मोहरा बना रहे हैं तो देश में राजनितिक पार्टियां एक दूसरे की टांगे खींच रही हैं। सरकार संवेदनाशून्य और दायित्वहीन है तो विपक्ष दिग्भ्रमित। जनता इनके लिए खिलौने से बढ़कर कुछ नहीं। आज हम खेल रहे हैं कल तुम खेल सको तो खेल लेना। अपना स्वार्थ पहले है देश, समाज कहीं पीछे छूट गए हैं। अपने गिरेबान में झांकने की न जरूरत हैं, न फुर्सत है किसी को। हम से बड़ा संत कोई नहीं है और तुम से बड़ा भ्रष्टाचारी कोई नहीं, यही सिद्ध करने में लगे हैं सब। दामन दागदार हैं, चेहरे कालिख पुते, पर मान कैसे लें। तुम कौन से दूध के धुले हो जो मेरे दामन के दाग दिखा रहे हो। सब कुछ सामने है, स्पष्ट है पर स्वीकार कैसे कर लें। और यही सब आगामी पीढियां देख रही हैं, समझ रही हैं, सीख रही हैं। हम खुश हैं तरक्की कर रहे हैं न। विकासशील से विकसित देश में तब्दील होते जा रहे हैं। इतना कुछ दे कर जा रहा है तू हमें २०१०। शुक्रिया ....
शुभकामनाएं २०११ के लिए भी देना चाहता हूं , पिछले वर्षों की तरह इस बार भी। कुछ नैतिक मूल्य स्थापित हों, कुछ संवेदनाएं जागें। अन्याय, अनाचार पर कुछ अंकुश लगे, महंगाई कुछ कम हो। और इन दुआओं में कुछ असर है , थोड़ा सा यकीन भी आ जाए।

ये मंजिलों का सफ़र है यकीन तो आए
हंसी ख़ुशी की डगर है यकीन तो आए
मैं आज करता हूं तेरे लिए दुआ लेकिन
मेरी दुआ में असर है यकीन तो आए

और अंत में बकौल शाहिद मीर उस ऊपर वाले से सिर्फ इतनी चाह है २०११ में आपके और अपने लिए -

ऐ खुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
या छलकती हुई आंखों को ही पत्थर कर दे
और कुछ तो मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पाँवों के बराबर कर दे

Thursday, December 23, 2010

बापू के इस देश में

बापू के इस देश में, छाये हिंसक लोग|
जिस जानिब भी देखिए, बढ़ा द्वेष का रोग||
बढ़ा द्वेष का रोग, अजब संयोग बनाते|
जब चाहें, दीवाली, आदमख़ोर मनाते|
अत्याचार, अनीति बने सत्ता के टापू|
जान बचाने, फिर से आ जाओ ना बापू||

नवीन सी चतुर्वेदी

Saturday, December 18, 2010

तंदूर से फ्रिजर तक : भुनती और जमती औरत

करीब पंद्रह साल पहले एक आदमी ने अपने प्‍यार को तंदूर में भून डाला था और पंद्रह साल बाद एक दूसरे आदमी ने अपने प्‍यार को बर्फ में जमा दिया। पंद्रह सालों में दुनिया बदल गई लेकिन नहीं बदला तो 'मर्द' और उसकी 'मर्दानगी'। दुनिया में हम विकासशील से विकसित की दौड़ में पंहुच गए तो मर्द भी तंदूर से डीप-फ्रिजर तक पंहुच गया। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्‍नता और सभ्‍यता में भी इजाफा होता है लेकिन लगता है कि दरिंदगी की रफ्तार इन सबसे कई गुना चलती है; तभी तो देहरादून की अनुपमा बहत्‍तर टुकड़ों में कटकर डीप फ्रिजर में पड़ी रही और उसके कथित तौर पर शिक्षित, सभ्‍य और संपन्‍न पति सत्‍तावन दिनों तक एक दिन भी आत्‍मग्‍लानि नहीं हुई। कहते हैं कि हिंदु या भार‍तीय शादियां किसी लाटरी की तरह होती हैं। शादी के बाद ही पता चलता है कि लाटरी लाख की हुई या खाक की। लेकिन सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने तो उड़ीसा की अनुराधा को दिल की आवाज पर अपनी संगिनी बनाया था। दोनों ने लव मैरिज की थी और अमेरिका में रहने के बाद जब वह अपने वतन लौटे तो देहरादून में आकर बस गए। अनुराधा के जुड़वा बच्‍चे हुए जो उनके साथ ही रह रहे थे और अब चार साल के हैं। तब आखिर ऐसा क्‍या हुआ जिसने आदमी को दरिंदा बना दिया या यूं कहिए कि आदमी की खोल में छिपा दरिंदा यकायक बाहर आ गया। क्‍या मर्दानगी ही आदमी की दरिंदगी है या दरिंदगी में ही मर्दानगी का वास होता है या फिर औरत इस सृष्टि में इसी तरह के किसी हश्र के लिए जन्‍मी है।
आज से करीब पंद्रह साल पहले दो जुलाई 1995 को नैना साहनी तंदूर में मुर्गे की तरह भूनी गई थी। उसके राजनेता पति ने गोली मारकर उसे तंदूर में सेंक दिया था। नैना साहनी के दबंग पति सुशील शर्मा को शक था कि उसकी पत्‍नी के किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध हैं। सुशील ने अपनी पायलट पत्‍नी की उड़ान बंद करने के लिए पहले उसे गोली मारी और फिर उसके टुकड़े कर उसे एक होटल के तंदूर में डालकर भूनना शुरु कर दिया ताकि कोई सुबूत ही न बचे लेकिन वहां से गुजर रहे एक सिपाही की आत्‍मा तंदूर से उठती गंध ने जगा दी और वह थाने से पुलिस लेकर पंहुच गया। सुशील शर्मा तो मौके से फरार हो गया लेकिन होटल का मालिक केशव हत्‍थे चढ़ गया तो पता चला कि दिल्‍ली युवा कांग्रेस का कद्दावर नेता सुशील अपनी पत्‍नी के टुकड़ों को तंदूर में भून रहा था। ठीक कुछ इसी तरह राजेश गुलाटी ने बीती 17 अक्‍टूबर को पहले अपनी पत्‍नी का वध किया और उसके बाद बाजार से डीप फ्रिजर लाकर उसमें जमा दिया। इसके बाद उसके शातिर दिमाग ने बाजार से पत्‍थर काटने का कटर और आरी लेकर उसके 72 टुकड़े किए और धीरे-धीरे एक-एक टुकड़े को वह मंसूरी की वादियों में फेंककर ठिकाने लगाता रहा। उसके बच्‍चे मां को याद करते तो वह उन्‍हें पुचकार कर चुप करा देता कि उनकी मां दिल्‍ली गई है, जल्‍दी आ जाएगी। यदि राजेश की ससुराल से फोन आता तो वह उन्‍हें भी कोई बहाना बनाकर टरका देता। बाहर का कोई आदमी राजेश पर दरिंदा होने का शक भी नहीं कर सकता था क्‍योंकि अमेरिका में नौकरी कर लौटा सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश आज की सोसायटी के लिए एक आयकॉन भी था। सुशील को तो मौत की सजा सुना दी गई और हो सकता है कि दस-बीस साल में राजेश का भी वही हश्र हो लेकिन सवाल उठता है कि समाज के उस वर्ग के लोग दरिंदंगी की सीमाएं क्‍यों पार कर रहे हैं जिनको समाज एक बिंब की तरह देखता है; जिन से प्रभावित होता है और उनकी तरफ देखकर वैसा ही बनने की आकांक्षा पालता है।
ऐसा नहीं है कि नैना और अनुपमा दो ही उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में अलग-अलग जगहों पर आए दिन घटित होती हैं। इनमें से बहुत सी घटनाएं तो कभी अखबारों की सुर्खियां भी नहीं बनतीं। जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू या कुसुम बुद्धिराजा जैसे नाम तो मीडिया की सुर्खियों की वजह से जाने जाते हैं वरना हमारा समाज आमतौर पर मर्द को माफ करने का ही हिमायती रहता है और बहुत सी अमानवीय दुराचार की कहानियां घर की चहारदीवारी से बाहर भी नहीं आ पातीं। अगर ऐसा न होता तो मुजफ्फरनगर की इमराना के बलात्‍कारी ससुर को गांव की पंचायत सिर्फ सात जूतों की सजा सुनाकर वरी न करती। यानी एक निरीह औरत की अस्‍मत गांव की पंचायत ने सिर्फ सात जूतों में ही निपटा दी लेकिन इमराना को भी हम मीडिया के जरिए ही जानते हैं वरना न जाने कितनी इमरानाएं रोजाना इस तरह के अत्‍याचार सहती हैं। समाज और पंचायते ही नहीं अदालतों का रवैया भी इससे कहीं इतर नहीं है। 1977 में महाराट की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्‍कार हुआ था तब भी आरोपी सिपाहियों को वरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही निचली अदालत ने बदचलन करार दिया था। इस फैंसले पर भी खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्‍कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी लेकिन एक बात साफ है कि औरत की आबरू मर्द के नजरिए में कोई अहमियत नहीं रखती। हर साल करीब पच्‍चीस हजार महिलाओं की इज्‍जत तार-तार होती है, इतनी ही अगुवा की जाती हैं तो इससे तीस गुना या और भी अधिक घर पर 'मर्दो' के हाथों रोज पिटती हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए दोषी समाज है, गिरते नैतिक मूल्‍य हैं या अपसंस्‍कृति इसके लिए दोषी है? क्‍या हमारी लाचार कानून-व्‍यवस्‍था इन पवृतियों को निरंकुश करने में सहायता नहीं कर रही है? सच तो यही है कि आज हमारी कानून-व्‍यवस्‍था की हालत दिल दहला देने वाली है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, मनू शर्मा, बीएमडब्‍लू कांड लगातार हमारे दिमाग में हथौड़े नहीं बजाते। नैना साहनी कांड में लाश को टुकड़ों में विभाजित कर तंदूर में भूना जाना क्‍या हमारे समाज के गर्त में जाने, उसके अधोपतन के उदाहरण नहीं है। या फिर एक पढ़े-लिखे विदेश में रहे एक सोफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्‍नी की हत्‍या कर पत्‍थर काटने की मशीन से उसके टुकड़े कर उसे डीप फ्रिज में रखना आदमी के पत्‍थर हो जाने की कहानी नहीं तो और क्‍या है? आदमी के दरिंदा होने की कहानियां हमारे समाज में लगातार क्‍यों बढ़ रहीं हैं; ये एक ऐसा यक्षप्रश्‍न है जिसका हल किसी युधीष्ठिर के पास ही हो सकता है लेकिन अफसोस कि हमारा समाज आजकल दुशासन पैदा कर रहा है और उनके हाथ भी खून से रंगे हुए हैं जिनपर युगनिर्माण की जिम्‍मेदारी है। ऐसे में कहना मुश्किल है कि कब तक नैना तंदूर में और अनुपमा बर्फ में जमती रहेंगी...ये दो तो फिलहाल एक प्रतीक हैं वरना इस वेद में तो ऋचाएं बहुत हैं।

Monday, December 6, 2010

होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं

ए यार तेरे दर से हम जब भी गुजरते हैं|
कुछ बोल तो पाते नहीं, बस आह भरते हैं||

कानों की बाली चंद्रमा से होड़ करती है|
होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं||

पलकें झुका कर के जभी तू मुस्कुराती है|
अल्ला कसम लगता है जैसे फूल झरते हैं||

दिल ने कभी का हालेदिल समझा दिया दिल को|
लब बोल ही पाते नहीं कि प्यार करते हैं||

नवीन सी चतुर्वेदी

चल मन उठ अब तैयारी कर - गीत

यह गीत नहीं है एक सच है । ऐसा सच, जो जिसको जब समझ में आ जाये तब ठीक। सारा जीवन आपा-धापी में गुजारने के बाद कभी न कभी यह सच ज़रूर सामने आता है कि अब तक जैसे भी जिए, जो कुछ भी किया, वह सब अंततः मिथ्या ही था। हर तरफ धन-दौलत, शौहरत, रिश्तों -नातों की अपार भीड़ में घिरे रहकर भी मन कहीं अकेला खड़ा दिखाई देता है। और तब स्वीकारना पड़ता है इस अंतिम सच को। आप सब सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं.

गीत-

चल मन, उठ अब तैयारी कर
यह चला - चली की वेला है

कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली होती आकृतियाँ

है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।

मां की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
एक घर में थी दुनिया सारी

चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।

कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के

अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।

जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता

अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है

झूठे दिन, झूठी राते हैं
झूठी दुनियावी बाते हैं
अंतिम सच केवल इतना है
झूठे सब रिश्ते- नाते हैं

भूल के सब कुछ छोड़ निकल
अब तक यहाँ जो झेला है ।

इससे पहले तन सड़ जाये
कांटा सा मन में गड़ जाये
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जाये

उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।

कुमार अनिल -

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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