रायपुर से एक मित्र का फोन बार-बार आ रहा है, छत्तीसगढ़ घूम जाओ यार। दिल्ली की ज़हरीली हवा पीते-पीते थक गया हूं मैं खुद भी जाना चाहता हूं। बच्चे भी उन जानवरों को देखना चाहते हैं जो पत्रिकाओं में दिखते हैं या डिस्कवरी पर आते हैं। ये सचमुच होते हैं, अहसास कराने के लिये उनको एक बार छत्तीसगढ़ ले जाना ज़रुरी है। क्योंकि इस देश में वो ही एक प्रदेश बच रहा है जहां फिलहाल (कब तक बचेंगे कह नहीं सकते) जंगल बचे हैं और जंगली जानवर भी।
लेकिन इस बहाने ये भी जान लेते हैं कि असलियत क्या है। एक पुरानी अखबारी कतरन पर नज़र पड़ी। कतरन सितंबर 2007 की है, जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के उदांती नेशनल पार्क में महज़ 7 वाइल्ड बफैलो बचे हैं। वाइल्ड बफैलो यानी जंगली भैंस या भैंसा। इन सात में से 6 नर और 1 मादा। इंद्रावती में एक आध और हो तो हो वरना बाकी छत्तीसगढ़ से तो इनका नामोनिशान मिट गया है। पामेद जो कभी इनका गढ़ था वो भी खाली हो चुका है। अब बात चली है तो डेढ़ साल बाद मुझे फिक्र हो रही है कि वो सात भी अब तक बचे होंगे या नहीं।
मैं तो पैदा ही छत्तीसगढ़ में हुआ हूं, बाद में गया भले ही कम होऊं, वहां की कई यादें हैं अब तक। पिता जी के किस्से अब तक याद हैं जो वहां के जंगली जानवरों के बारे में अकसर सुनाया करते थे। किस्से आम तौर पर शेर हाथियों के सुनाये जाते हैं लेकिन मेरे पिता का साबका जंगली भैंसों से पड़ा, कई बार। एक बार तो जीप के सामने आकर खड़ी हो गई तो हटी ही नहीं। जीप पीछे लेकर वापस जंगल मे दौड़ाई तब जान बची। वो ही वाइल्ड बफैलो अब खत्म हो रहे हैं। भारत में असम और छत्तीसगढ़ के अलावा ये कहीं नहीं होते। वैसे मेघालय और महाराष्ट्र में भी इनके यदा-कदा देखे जाने की बात सामने आई है।
जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
अफ्रीका में भी ये जानवर होता है, कैप बफैलो। एक से पौने दो मीटर लंबा और 5 से दस क्विंटल तक वजनी। शेर को भी मार डाले इतनी ताकत। अफ्रीका के जंगलों में पश्चिम के कई शिकारी कैप बफैलो के शिकार हो चुके हैं। लेकिन इंडियन वाइल्ड बफैलो शर्मीले होते हैं, झाड़ियों में छुपकर रहने वाले और घास से पेट भरने वाले। लेकिन जब गुस्सा आ जाये तो बाघ भी कहीं नहीं टिकता। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी कहते हैं कि बाघ तो लड़ने के हुनर ही वाइल्ड बफैलो और जंगली सूअरों जैसे जानवरों से सीखता है। बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं। मैं तो मन ही मन ये सोच रहा हूं कि मुझसे पहले किसी ने शायद सोचा ही ना हो इस बारे में, वाइल्ड बफैलो के बारे में।
बाघों के तो बड़े-बड़े जानकार हैं, तरह-तरह के हैट और टोपियां लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले, टीवी पर उनकी चिंता करने वाले, अखबारों के पन्ने रंगने वाले। हरेक की कोई ना कोई सोसायटी, ट्रस्ट या फाउंडेशन है, विदेशों से चंदा आता है और किसी ना किसी टाइगर रिज़र्व के बाहर अपना रिज़ॉर्ट बनाया हुआ है। बाघों से जुड़ी हर संस्था में सेटिंग है। दिल्ली से सैलानियों को ले जाते हैं, 15 हज़ार रोज़ के टैंट में रुकवाकर बाघ भी दिखवा देते हैं। लेकिन बाघ जिन जानवरों की वजह से ज़िंदा है उनकी चिंता नहीं किसी को। हिरण जैसे छोटे जानवर जो बाघ का प्रिय भोजन हैं, मरते हैं मरते रहें। जब बाघ का भोजन ही नहीं बचेगा तो बाघ कैसे बचेगा मेरे भाई, बाघ विशेषज्ञो, वन्य जीव विशेषज्ञों मोटी सी बात है समझ लो। हिरण को बचा लो, वाइल्ड बफैलो को बचा लो, बाघ भी बच जायेगा।
(लेखक पेशे से पत्रकार-वत्रकार हैं। लेकिन वाइल्ड बफैलो की चिंता में इस लेख को लिखने के बाद अपने आपको वन्य जीव विशेषज्ञ कहलवाना चाहते हैं)
लेकिन इस बहाने ये भी जान लेते हैं कि असलियत क्या है। एक पुरानी अखबारी कतरन पर नज़र पड़ी। कतरन सितंबर 2007 की है, जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के उदांती नेशनल पार्क में महज़ 7 वाइल्ड बफैलो बचे हैं। वाइल्ड बफैलो यानी जंगली भैंस या भैंसा। इन सात में से 6 नर और 1 मादा। इंद्रावती में एक आध और हो तो हो वरना बाकी छत्तीसगढ़ से तो इनका नामोनिशान मिट गया है। पामेद जो कभी इनका गढ़ था वो भी खाली हो चुका है। अब बात चली है तो डेढ़ साल बाद मुझे फिक्र हो रही है कि वो सात भी अब तक बचे होंगे या नहीं।
मैं तो पैदा ही छत्तीसगढ़ में हुआ हूं, बाद में गया भले ही कम होऊं, वहां की कई यादें हैं अब तक। पिता जी के किस्से अब तक याद हैं जो वहां के जंगली जानवरों के बारे में अकसर सुनाया करते थे। किस्से आम तौर पर शेर हाथियों के सुनाये जाते हैं लेकिन मेरे पिता का साबका जंगली भैंसों से पड़ा, कई बार। एक बार तो जीप के सामने आकर खड़ी हो गई तो हटी ही नहीं। जीप पीछे लेकर वापस जंगल मे दौड़ाई तब जान बची। वो ही वाइल्ड बफैलो अब खत्म हो रहे हैं। भारत में असम और छत्तीसगढ़ के अलावा ये कहीं नहीं होते। वैसे मेघालय और महाराष्ट्र में भी इनके यदा-कदा देखे जाने की बात सामने आई है।
जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
अफ्रीका में भी ये जानवर होता है, कैप बफैलो। एक से पौने दो मीटर लंबा और 5 से दस क्विंटल तक वजनी। शेर को भी मार डाले इतनी ताकत। अफ्रीका के जंगलों में पश्चिम के कई शिकारी कैप बफैलो के शिकार हो चुके हैं। लेकिन इंडियन वाइल्ड बफैलो शर्मीले होते हैं, झाड़ियों में छुपकर रहने वाले और घास से पेट भरने वाले। लेकिन जब गुस्सा आ जाये तो बाघ भी कहीं नहीं टिकता। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी कहते हैं कि बाघ तो लड़ने के हुनर ही वाइल्ड बफैलो और जंगली सूअरों जैसे जानवरों से सीखता है। बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं। मैं तो मन ही मन ये सोच रहा हूं कि मुझसे पहले किसी ने शायद सोचा ही ना हो इस बारे में, वाइल्ड बफैलो के बारे में।
बाघों के तो बड़े-बड़े जानकार हैं, तरह-तरह के हैट और टोपियां लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले, टीवी पर उनकी चिंता करने वाले, अखबारों के पन्ने रंगने वाले। हरेक की कोई ना कोई सोसायटी, ट्रस्ट या फाउंडेशन है, विदेशों से चंदा आता है और किसी ना किसी टाइगर रिज़र्व के बाहर अपना रिज़ॉर्ट बनाया हुआ है। बाघों से जुड़ी हर संस्था में सेटिंग है। दिल्ली से सैलानियों को ले जाते हैं, 15 हज़ार रोज़ के टैंट में रुकवाकर बाघ भी दिखवा देते हैं। लेकिन बाघ जिन जानवरों की वजह से ज़िंदा है उनकी चिंता नहीं किसी को। हिरण जैसे छोटे जानवर जो बाघ का प्रिय भोजन हैं, मरते हैं मरते रहें। जब बाघ का भोजन ही नहीं बचेगा तो बाघ कैसे बचेगा मेरे भाई, बाघ विशेषज्ञो, वन्य जीव विशेषज्ञों मोटी सी बात है समझ लो। हिरण को बचा लो, वाइल्ड बफैलो को बचा लो, बाघ भी बच जायेगा।
(लेखक पेशे से पत्रकार-वत्रकार हैं। लेकिन वाइल्ड बफैलो की चिंता में इस लेख को लिखने के बाद अपने आपको वन्य जीव विशेषज्ञ कहलवाना चाहते हैं)
26 comments:
वन्य जीव और वन्य जीवों पर इर्द-गिर्द पर कई पोस्ट पढ़ने को मिली हैं। अब जंगली भैंसा भी नहीं बचा जबकि इन्हें बचाने के लिए अरबों रुपया खर्च हो चुका है। सवाल उठता है कि आखिर खोट कहां है, इस पर विचार मंथन का समय अब आ चुका है।
भाई यू वाइल्ड बफैलो हमारे गांव की भैंस ते अलग है का? फोटू ना लगायो या को। जंगली है तो दूध तो देती ना होये। फिर भी हक तो जीने को सबकू है जंगली होय या पालतू। छत्तीसगढ़ और एमपी की सरकार गौ माता को ध्यान रख रही हैं भैया इन भैंसन की भी सोच लेयो कोई। सई कह रही है राग रसोई, गे दूसरे जानवर बचिंगे तो बाघऊ बच जायेगो, वरना तो भैया बाघ कमज़ोर हो लेगो और सिकारी मार डारंगे। बाघ अकेलो बच के का कर लेगो कौन को राजा कहलावेगो। गाय मां है तो भैया या भैंस ए मौसी समझ के ई बचाय लो। राधे-राधे।
पहले बाघ, फिर हिरन और कुत्ते। अब जंगल के भैंसे।...लेकिन इन्हे लेख लिखकर नहीं बचाया जा सकता।
वहुत सही मुद्दा है यह ,मेरी भी वन्य जीवन में गहन रूचि है .अच्छी जानकारी दे है आपने .
जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
aapki chinta zayaj hai sayad hi pahle kisi ne is visay ko uthaya ho ...ab to Assam me bhi ye janvar nazar nahin aate... dekhen van vibhag ki kab najar jati hai is or...!!
vanya jeevo ki ghatti sankhaya nischit hi chintaniy hai.. hame is disha me koi kargar pahal karni hogi nahi to hum par bhi khatra madrata rahega
जरूर घूम आइए एक बार ... अच्छी जानकारी मिली वन्य जीवों के बारे में।
आपका वन्य प्रेम अब जिम्मेदारी की तरफ से मुढ़ता हुआ चितिंत होने के कगार पर आ गया हैं। असल में यह हम सबकी चिंता भी होनी चाहिये। लेकिन सरकार और प्रशासनिक अमला अपने पुराने रव्वैये पर कायम रहेगा ऐसी उम्मीद पूरी है। लेकिन जब और नस्लों की तरह से वाइल्ड बुफैलो भी खत्म हो जाएगें तब आपकी ही भांती अन्य वन्य प्रेमीयों की चिंता को ध्यान में रखते हुए इस पर एक डाक टिकट तो जारी किया ही जाएगा।
गुरूजी एक निवेदन है कि आपने ब्लाॅग की पृष्ठभूमि का और टैक्सट का कलर लगभग एक ही कर रखा है पढ़ने में आंखों को चूभ रहा है अतः किसी एक का कलर परिवर्तन कर दे तो और भी अच्छा लगेगा।
बहुत ही सुंदर जानकारी दी आप ने, ्बात बहुत अच्छी कही, लेकिन हमारी वह पलटन जिन्हे इन्हे बचाने के लिये ही तन्खाह मिलती है, वही इन्हे खत्म करने पर तुले है....आप की फ़िक्र भी सही है.
धन्यवाद
यही अरना भैसा कहलाता हैं ना ? मतलब भारतीय बाईसन ! कितना दुःख है कि सरकार वन सौदर्य की रक्षा नहीं कर पा रही हैं !
आपने यह रिपोर्ट बहुत संवेदनशीलता और जिम्मेदारी सी लिखी है -बधाई !
जंगली भैंसे या बाघ ..या फिर कोई अन्य जंगली जंतु ..सबको रहना है जंगल में ही .जब जंगल ही नहीं रहेंगे तो इन निर्दोष जीवों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा ..
इस दिशा में एक जागरूकता पैदा करने की दिशा में इस ब्लॉग पर किया जा रहा प्रयास सराहनीय है .
हेमंत कुमार
वन्यजीव विशेषज्ञ महोदय,
आपकी चिंता में मैं भी शामिल हूं। अगर मुझे ठीक से याद पड़ता है तो जंगली भैंसा म.प्र. का राजकीय पशु है। अब राष्ट्रीय स्तर पर टाइगर की तर्ज पर राज्य में जंगली भैंसा यानी गौर को बचाने में भी लाखों के वारे-न्यारे होने की संभावना दिखे तो भला कौन न शामिल होना चाहेगा?! है कोई माई का लाल जो जीव को बचाने के अपने सरकारी काम को ईमानदारी से कर रहा है या करना चाहता है। शायद इसके लिए भी विदेशी विशेषज्ञता और फंडिंग चाहिए। हमारा देश तो मैनपावर हो, पैसा या तकनीक- हर क्षेत्र में कंगाल जो ठहरा।:-((
हम भी चिंतित हो गए हैं. बस्तर के जंगलों में जंगली भैंसे बहुतायत से पाए जाते थे. वहां के जनजातियों ख़ास कर माडिया लोग इन्हें मार कर खाते हैं. एक और जानवर विलुप्ति के कगार पर है. वह है बायसन. हाथी तो वहां (छत्तीसगढ़) लगभग २०० साल पहले मिलते थे. आजकल वे भटक कर ही आ रहे हैं.
अरविन्द मिश्र जी भ्रम है. बायसन वो भैंस जैसा ही जानवर है जिसकी सींग छोटी करीब करीब हलके नीले रंग की होती है. उसके घुटने के नीचे का रंग सफ़ेद होता है मनो उसने मोजे पहन रखे हों. जंगली भैंस हमारे देसी भैंस जैसे ही होते हैं. देखने पर अंतर कर पाना बहुत ही मुश्किल है.
बहुत चिंताजनक बात है... यहाँ अफ्रीका में ये जंगली भैंसे बहुत संख्या में हैं... मैंने मेरी "मरचीजन नेशनल फॉल यात्रा" में इसके बारे में लिखा भी है और फोटो भी दिये हैं मेरे ब्लॉग पर उसका लिंक है...
आपका लेख बहुत अच्छा लगा बधाई...
मैं भी आपके आसपास का ही वाशिंदा हूं. असल में जो सरकारी विभाग या कोई एन.जी.ओ. या वन्यप्रेमी यह दावा करता है कि वह शेर या गौर (जंगली भैंसा, बायसन, अरना) को बचायेगा, वह झूठा है। इसलिए, क्योंकि वह घास को बचाने के बारे में खामोश है।
घास ही शेर को और भैंसे को बचायेगी, अगर हम यह सच्चाई समझ लें तो हमारी पूरी एकोलाजी बच सकती है।
घास हिरन को बचाएगी, और हिरन बाघ को बचा लेंगे। हमारी ज़िम्मेदारी है कि सबसे पहले हम घास की फ़िक्र करें।
लेकिन क्या करें, घास पर अच्छी पोस्ट ब्लाग पर नहीं लिखी जा सकती, न ही पत्रिकाओं के पन्ने रंगीन हो सकते हैं।
सजग नज़रिये के साथ, खोजी दृष्टि के साथ सार्थक आलेख। मुझे इसकी भी फिक्र है की अफ्रीका तो दूर की बात है, इस जन्म में बी छत्तीसगढ़ जा सकूंगा या नहीं...या शहरों में ही अरने-नेताओं को देखता रहूंगा ? मैं तो उदयजी की चिंताओं में शामिल हूं कि घास भी देखने को मिलेगी या नहीं...या फिर किसी वनस्पति संग्रहालय जाना होगा...
अनिष्ट निकट है भाई...
इस मुद्दे के जरिए बहुत अच्छी जानकारी प्रदान की आपने।मेरे विचार से जनसंख्या वृ्द्धि का भी इसमें बहुत बडा कारण है। अनुचित ढंग से खेती करने के कारण जंगलों और झाड़ियों को बुरी तरह काटा जा रहा है जिससे जीवों के सुरक्षित स्थान नष्ट हो रहे हैं । माँस, चर्बी और खाल के लालच में भी वन्य जीवों का इतनी बुरी तरह संहार किया जा है कि भविष्य में आने वाली पीढी तो इन जीवों को किताबों में ही देख पाएगी। आज इन्सानों की नासमझी के कारण भारत के अनेकों वन्य जीव विनाश की कगार पर पहुंच चुके हैं।अब रही बात इन जीवों के संरक्षण के लिए सरकारी नीतियों की, तो हमारे यहां तो योजनाएँ बनाते समय केवल मनुष्य के पेट भरने और वोट बैंकों का ही सवाल सामने रखा जाता है।
वन्य जीव दिनो दिन लुप्त होते जा रहे है । हर जगह का यही हाल है लेकिन सरकार से लेकर वन्य जीव में काम करने वाले लोग केवल वयान देकर रह जाते है । वास्तव में ये हमारे लिए बहुत बड़ा खतरा है धन्यवाद
बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं।
Sach hai.
bahut hi achhi jaankari di hari ji...kaash ki van rakshak...bhakshak ban na chhod ke jo jimmevari unki he ise nibhaye...
पर्यावरण के प्रति आपकी वाजिब है, मैं इस भावना को सलाम करता हूं। और हॉं, नीचे दिया गया नोट काबिले तारीफ है।
चिंताजनक मुद्दा है !
aalekh main aapko jangale ki yad aai achha hai. ab to sahar gaun jangle huye ja rahe hain. wahan jo aapsdari ke beech jangle pasar gaya hai uska kya ho. aur jo log aadmi ka chehra lagakar sahar main rah rahe hain aur harkaten janvaron se bhi badtatr hain unka bhi kuchh ho. ye janvar kaise jhele aadmi
पत्रकार वत्रकार जी को सलाम।
बात सही और सटीक है।
हमारा वन विभाग ही क्या करीबन सारे विभाग ही काहिल है।
ढोल बजाने पर भी उनके कानों में जूं तक नहीं रेंगती।
aapki pida hai, pure bharat ki pida hai, kuchh nahi kar sakte...
आने वाले पीढ़ीय़ों को जंगली जानवरों के बारे में जानकारी सिर्फ आपके ब्लॉग पर ही मिलेगी....क्योंकि तब तक शायद दो चार जंगली भैंसे भी नही बचेंगे
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