Sunday, April 5, 2009

घास बची तो मैं बचूंगा, आप बचेंगे और वो भी बचेंगे

इस बार गणेश चतुर्थी पर घर में मूर्ति प्रतिष्ठा के लिये सम्मानीय मित्र डॉक्टर राजेंद्र धोड़पकर (दैनिक हिंदुस्तान में सहायक संपादक और कार्टूनिस्ट हैं) कहीं से गणपति की मूर्ति ले आये। बचपन की यादें ताजा हो गईं। देखा सूंड किस तरफ है दाईं या बाईं, शगुन बढ़िया था। पूजा की थाली सजाई गई। सब कुछ बाज़ार में मिल गया, सिवाय तीन मुंह वाली दूब (घास) के। बाहर लेने निकला तो देखा कहीं घास ही नहीं है। जहां घास होनी चाहिये थी, वहां कचरा पड़ा है या ईंटे लगी हैं या पोलिथीन की चादर बिछी हुई है।
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?


(इस लेख की प्रेरणा आदरणीय उदय प्रकाश जी से मिली जिन्होने अपनी पिछली टिप्पणी में घास की इतनी चिंता की।)

27 comments:

डॉ .अनुराग said...

अजीब बात है आज सुबह की शास्त्रीनगर के तेज गडी चौराहे पर कटते विशाल पेड़ को देखते वक़्त आज मन में एक अजीब सी दहशत हुई थी...मालूम चला ओर भी कई पेड़ कट चुके है ...माना की विकास प्रक्रिया का एक हिस्सा है पर क्या विकल्प में ओर पेड़ रोपना नहीं ??

राजेन्‍द्र said...

दरअसल घास अब हमारे दिमाग में उगने लगी है।

ताऊ रामपुरिया said...

प्रकृति से खिलवाड बहुत महंगा पदने वाला है हम सभी को. बहुत सटीक लिखा आप्ने.

रामराम.

Anonymous said...

AAP KUCHH BHEE KAR LIJIYE, KUCHH BHEE LIKH DIJIYE LEKIN AADMI KE DIMAAG MEIN UGEE GHAAS JAB TAK SAAF NAHEEN HOGEE TAB TAK KUCHH NAHEEN HOGAA.

Science Bloggers Association said...

बहुत गम्भीर बात कही है, पर इतनी सी बात भी लोगों की समझ में नहीं आती।

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तस्‍लीम
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

sanjeev said...

आपकी चिंता सभ्‍य समाज की चिंता है। अगर समाज इतना ही सभ्‍य होता तो क्‍या आज ये दिन देखने को मिलते। यहां के कर्णधारों ने तो चारा तक नहीं छोड़ा है।

आपने सही लिखा है कि घास बचेगी तो हिरन बचेंगे। हिरन बचेंगे तो बाघ और तेंदुए बचेंगे। वरना आदमी बाघ और जंगल को बचाने के नाम पर अपना पेट और तिजोरिया भरता रहेगा।

इरशाद अली said...

घास जिन्दगी में एक अहम भूमिका रखती है। स्कूल में घास के मैदानों में ही खेले हैं। प्रेमिका को भी घास के मैदानों मे लेकर टहले है, एनसीसी की कवायद घास के मैदानों में परवान चढ़ी, कैरियर के उतार-चढ़ाव में भी किसी ने घास डाली किसी ने नही, घास-फूस से ही छोटे-छोटे घर सजाये और बनाये है। ये घास हमेशा साथ चलती आई है, अगर खत्म हो गयी तो लगेगा जैसे कुछ अधुरा सा रह गया हो। घास आज भी दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं।

Anil Kumar said...

खाद्यशृंखला के विज्ञान को इतनी आसानी से समझा दिया! वाह!

राजेंद्र जी और अनाम जी की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है!

प्रेम सागर सिंह [Prem Sagar Singh] said...

आपकी बात लोगों को समझ में आए, ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करता हूँ। बहुत-बहुत आभर आप्के इस पोस्ट के लिए।

अनिल कान्त said...

गंभीर बात कही आपने ..पर

संगीता पुरी said...

जो चिंता आपके दिमाग में है ... वह अब हर जगह होनी आवश्‍यक है ... धन्‍यवाद सुंदर आलेख के लिए।

L.Goswami said...

आपसे सहमत हूँ....अभी भी वक्त है... अच्छा होगा लोग सुधर जाएँ, वरना कुछ भी बाकि न बचेगा.

वर्षा said...

हम किसी प्रकृति के खतरनाक संकेत का इंतज़ार कर रहे हैं, तभी कुछ काम होगा, वरना बस छोटे या बड़े मंच पर चर्चा चलती रहेगी।

Dr.Bhawna Kunwar said...

वास्तव में सोचने वाली बात है...

Dr Mandhata Singh said...

अब जंगल तो कंकरीट के हैं और इनमें से घास तो लुप्तप्राय सी चीज हो गई है।

बलराम अग्रवाल said...

आपने 'घास' शब्द का प्रयोग करके लेख की व्यापकता को बढ़ा दिया। सिर्फ 'दूब' लिखते तो बहुतों की समझ में यह लेख ही न आता। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह बाघ बचाने का अभियान चलाने वालों की समझ में वह समीकरण नहीं आ पा रहा है जिसको आपने लिख दिया है। जड़ों से हम कितना कट गये हैं, यह इसी से जाहिर है।

निर्मल गुप्त said...

चीनी दार्शनिक लओत्सू ने युगों पहले इस तथ्य को समझ लिया था और कहा था की आप एक पेड की टहनी
तोड़ते हैं तो मेरा अस्तित्व ही विखण्डित होने लगता है ....हम भी प्र्कार्तिक उपादानों की महत्ता का जानते हैं लेकिन
स्वार्थ के आगे मजबूर हैं........

bihari khichady said...

manyavar,
doob sirf ghas nahin hai. vah hamari sansakriti ka hissa hai. aadhunikata ke bavajud gobar ke ganesh aaj bhi puje ja rahen hain, thik vaise hi doob ki puja hoti rahegi. isliye bhi jaruri hai ki doob bache, tabhi hamari sansakriti bachegi, sansakar bachega.

birendra yadav patna
09304170154
mail- kumarbypatna@gmail.com

Chhaya said...

कितना खूब कहा आपने, सच में बाघ और जंगलों को बचाने के वायदे करने वालों ने कभी घास के बारे में तो सोचा ही ना होगा...
एक सवाल उनके सामने रखने का अच्छा प्रयास है...

आर. अनुराधा said...

क्यों न ऐसा हो कि इस पोस्ट को पढ़ने वाले, सराहने वाले हम सब एक-एक पेड़ हर साल लगाने और उन्हें पालने की कोशिश करें। दकियानूसी खटराग हो सकता है, पर हमारे किए इतना तो हो ही सकता है। इससे हमारी अगली पीढ़ी भी थोड़ा सीखे तो सोने पे सुहागा।

सागर नाहर said...

वाकई चिन्ता की बात है।
आपका लेख पढ़ा और सोचा कि अन्तिम बार घास/दूब कब देखी थी? तो पता चला कि वाकई पिछले कई महीनों से घास दिखने में नहीं आई।

प्रदीप मानोरिया said...

घास बड़ी ख़ास है सच मैं सार्थक आलेख
मेरी ब्लॉग जगत से लम्बी अनुपस्तिथि के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ

गुफरान सिद्दीकी said...

शुक्र है खुदा का की अभी घास की चर्चा करने वाले जिंदा हैं क्या खूब लेख है आपका वास्तव में विश्व की सबसे गंभीर समस्या को जिस तरह से आपने घास के जिक्र से उठाया है वो काबिले तारीफ है .मै आर.अनुराधा जी से सहमत हूँ वास्तव में अगर ऐसा हम कर सकें तो शायद ये प्रकृति को बचाने की एक सराहनीय पहल आपके लेख को पढ़ कर हम सभी को करने का मौका मिला कल से मेरे आंगन में एक और नीम का पौधा बड़ा होने लगेगा !
आपके लेख के लिए आपको बधाई..........
आपका हमवतन भाई ....गुफरान.....अवध पीपुल्स फोरम फैजाबाद.....

Anonymous said...

गजब घास काटी है साहब.. दिल खुश हो गया.. पेड़ बचा लो उसके नीचे की घास अपने आप बच जाएगी.. वैसे अनुराधा जी ने सही कहा है कभी गमले में छोटे छोटे फूलों से निकल कर बड़ा पेड़ लगाने की कोशिश कर लें वो सारे लोग जो इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं तो शायद कुछ चीजें सुधर जाए..

हरकीरत ' हीर' said...

आपकी घास चर्चा से मुझे ध्यान आया एक बार घर में पूजा करवाई थी ...पंडित जी ने दूब लेन के लिए कहा तो मुझे बाज़ार से खरीद कर लाना पडा......!!

P.N. Subramanian said...

नादानी है. लेकिन इसका असर तो पूरे समाज पर पड़ेगा. हमारे एक मित्र के फार्म हाउस के पेड़ को आधा काट दिया. हमने बहुत गाली बकी. उनकी पत्नी का कहना था कि पत्ते झड़ने से गन्दगी फ़ैल रही थी. लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने में वांछित सफलता नहीं मिल पायी है. आभार.

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

घास सचमुच काम की चीज है। यह न भूलें कि हम जो चावल, गेहूं, मकई, आदि अन्न खाते हैं, वे सभी एक प्रकार की घास ही हैं।

और बांस को न भूलें, लंबा-चौड़ा बांस जिससे चारपई से लेकर बड़े-बड़े मकान तक बन जाते हैं, एक घास ही है।

घास न रहे तो न मिट्टी रहेगी न मान व ही।

घास की जड़ें मिट्टी को मजबूती से जकड़े रहती है, जिससे बारिश के पानी से उपजाऊ मिट्टी बह नहीं जाती हमारी नदियों-नालों में।

इस तरह घास समस्त प्राणी जगत का आधार है।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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