करीब पंद्रह साल पहले एक आदमी ने अपने प्यार को तंदूर में भून डाला था और पंद्रह साल बाद एक दूसरे आदमी ने अपने प्यार को बर्फ में जमा दिया। पंद्रह सालों में दुनिया बदल गई लेकिन नहीं बदला तो 'मर्द' और उसकी 'मर्दानगी'। दुनिया में हम विकासशील से विकसित की दौड़ में पंहुच गए तो मर्द भी तंदूर से डीप-फ्रिजर तक पंहुच गया। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्नता और सभ्यता में भी इजाफा होता है लेकिन लगता है कि दरिंदगी की रफ्तार इन सबसे कई गुना चलती है; तभी तो देहरादून की अनुपमा बहत्तर टुकड़ों में कटकर डीप फ्रिजर में पड़ी रही और उसके कथित तौर पर शिक्षित, सभ्य और संपन्न पति सत्तावन दिनों तक एक दिन भी आत्मग्लानि नहीं हुई। कहते हैं कि हिंदु या भारतीय शादियां किसी लाटरी की तरह होती हैं। शादी के बाद ही पता चलता है कि लाटरी लाख की हुई या खाक की। लेकिन सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने तो उड़ीसा की अनुराधा को दिल की आवाज पर अपनी संगिनी बनाया था। दोनों ने लव मैरिज की थी और अमेरिका में रहने के बाद जब वह अपने वतन लौटे तो देहरादून में आकर बस गए। अनुराधा के जुड़वा बच्चे हुए जो उनके साथ ही रह रहे थे और अब चार साल के हैं। तब आखिर ऐसा क्या हुआ जिसने आदमी को दरिंदा बना दिया या यूं कहिए कि आदमी की खोल में छिपा दरिंदा यकायक बाहर आ गया। क्या मर्दानगी ही आदमी की दरिंदगी है या दरिंदगी में ही मर्दानगी का वास होता है या फिर औरत इस सृष्टि में इसी तरह के किसी हश्र के लिए जन्मी है।
आज से करीब पंद्रह साल पहले दो जुलाई 1995 को नैना साहनी तंदूर में मुर्गे की तरह भूनी गई थी। उसके राजनेता पति ने गोली मारकर उसे तंदूर में सेंक दिया था। नैना साहनी के दबंग पति सुशील शर्मा को शक था कि उसकी पत्नी के किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध हैं। सुशील ने अपनी पायलट पत्नी की उड़ान बंद करने के लिए पहले उसे गोली मारी और फिर उसके टुकड़े कर उसे एक होटल के तंदूर में डालकर भूनना शुरु कर दिया ताकि कोई सुबूत ही न बचे लेकिन वहां से गुजर रहे एक सिपाही की आत्मा तंदूर से उठती गंध ने जगा दी और वह थाने से पुलिस लेकर पंहुच गया। सुशील शर्मा तो मौके से फरार हो गया लेकिन होटल का मालिक केशव हत्थे चढ़ गया तो पता चला कि दिल्ली युवा कांग्रेस का कद्दावर नेता सुशील अपनी पत्नी के टुकड़ों को तंदूर में भून रहा था। ठीक कुछ इसी तरह राजेश गुलाटी ने बीती 17 अक्टूबर को पहले अपनी पत्नी का वध किया और उसके बाद बाजार से डीप फ्रिजर लाकर उसमें जमा दिया। इसके बाद उसके शातिर दिमाग ने बाजार से पत्थर काटने का कटर और आरी लेकर उसके 72 टुकड़े किए और धीरे-धीरे एक-एक टुकड़े को वह मंसूरी की वादियों में फेंककर ठिकाने लगाता रहा। उसके बच्चे मां को याद करते तो वह उन्हें पुचकार कर चुप करा देता कि उनकी मां दिल्ली गई है, जल्दी आ जाएगी। यदि राजेश की ससुराल से फोन आता तो वह उन्हें भी कोई बहाना बनाकर टरका देता। बाहर का कोई आदमी राजेश पर दरिंदा होने का शक भी नहीं कर सकता था क्योंकि अमेरिका में नौकरी कर लौटा सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश आज की सोसायटी के लिए एक आयकॉन भी था। सुशील को तो मौत की सजा सुना दी गई और हो सकता है कि दस-बीस साल में राजेश का भी वही हश्र हो लेकिन सवाल उठता है कि समाज के उस वर्ग के लोग दरिंदंगी की सीमाएं क्यों पार कर रहे हैं जिनको समाज एक बिंब की तरह देखता है; जिन से प्रभावित होता है और उनकी तरफ देखकर वैसा ही बनने की आकांक्षा पालता है।
ऐसा नहीं है कि नैना और अनुपमा दो ही उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में अलग-अलग जगहों पर आए दिन घटित होती हैं। इनमें से बहुत सी घटनाएं तो कभी अखबारों की सुर्खियां भी नहीं बनतीं। जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू या कुसुम बुद्धिराजा जैसे नाम तो मीडिया की सुर्खियों की वजह से जाने जाते हैं वरना हमारा समाज आमतौर पर मर्द को माफ करने का ही हिमायती रहता है और बहुत सी अमानवीय दुराचार की कहानियां घर की चहारदीवारी से बाहर भी नहीं आ पातीं। अगर ऐसा न होता तो मुजफ्फरनगर की इमराना के बलात्कारी ससुर को गांव की पंचायत सिर्फ सात जूतों की सजा सुनाकर वरी न करती। यानी एक निरीह औरत की अस्मत गांव की पंचायत ने सिर्फ सात जूतों में ही निपटा दी लेकिन इमराना को भी हम मीडिया के जरिए ही जानते हैं वरना न जाने कितनी इमरानाएं रोजाना इस तरह के अत्याचार सहती हैं। समाज और पंचायते ही नहीं अदालतों का रवैया भी इससे कहीं इतर नहीं है। 1977 में महाराट की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्कार हुआ था तब भी आरोपी सिपाहियों को वरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही निचली अदालत ने बदचलन करार दिया था। इस फैंसले पर भी खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी लेकिन एक बात साफ है कि औरत की आबरू मर्द के नजरिए में कोई अहमियत नहीं रखती। हर साल करीब पच्चीस हजार महिलाओं की इज्जत तार-तार होती है, इतनी ही अगुवा की जाती हैं तो इससे तीस गुना या और भी अधिक घर पर 'मर्दो' के हाथों रोज पिटती हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए दोषी समाज है, गिरते नैतिक मूल्य हैं या अपसंस्कृति इसके लिए दोषी है? क्या हमारी लाचार कानून-व्यवस्था इन पवृतियों को निरंकुश करने में सहायता नहीं कर रही है? सच तो यही है कि आज हमारी कानून-व्यवस्था की हालत दिल दहला देने वाली है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, मनू शर्मा, बीएमडब्लू कांड लगातार हमारे दिमाग में हथौड़े नहीं बजाते। नैना साहनी कांड में लाश को टुकड़ों में विभाजित कर तंदूर में भूना जाना क्या हमारे समाज के गर्त में जाने, उसके अधोपतन के उदाहरण नहीं है। या फिर एक पढ़े-लिखे विदेश में रहे एक सोफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्नी की हत्या कर पत्थर काटने की मशीन से उसके टुकड़े कर उसे डीप फ्रिज में रखना आदमी के पत्थर हो जाने की कहानी नहीं तो और क्या है? आदमी के दरिंदा होने की कहानियां हमारे समाज में लगातार क्यों बढ़ रहीं हैं; ये एक ऐसा यक्षप्रश्न है जिसका हल किसी युधीष्ठिर के पास ही हो सकता है लेकिन अफसोस कि हमारा समाज आजकल दुशासन पैदा कर रहा है और उनके हाथ भी खून से रंगे हुए हैं जिनपर युगनिर्माण की जिम्मेदारी है। ऐसे में कहना मुश्किल है कि कब तक नैना तंदूर में और अनुपमा बर्फ में जमती रहेंगी...ये दो तो फिलहाल एक प्रतीक हैं वरना इस वेद में तो ऋचाएं बहुत हैं।
16 comments:
सार्थक आलेख. हमारे ख़याल से बच्चों में प्रारंभिक संस्कारों का न होना, अथवा युवा होने के बाद की संस्कारहीनता यदा कदा पाशविकता को जन्म देती है. ऐसी दरिंदगी हमने आदिवासियों में पायी है जो बात बात पर फरसे या तीर चलाकर क़त्ल कर देते थे. शिक्षित अभिजात्यवर्ग के होने का लेश मात्र भी असर आजकल के युवाओंके व्यवहार में प्रतिलक्षित नहीं हो रहा है.
सच मे दरिंदो ने भी खुब तरक्की कर ली आम आदमी आज भी रोटी रोजी को तरस रहा हे.
प्रिय वंदना,
तुम्हार पोस्ट अभी पढ़ा। यह दर्द तुम्हारा यानि महज एक नारी का दर्द नहीं है। यह पूरी मानवता का सामूहिक दर्द है।
ये कुछ तथाकतिथ मर्दों द्वारा चंद औरतो की हत्याएं भर नहीं हैं और न ही निरीह औरत पर अपनी मर्दानगी जताने का कोई तुच्छ प्रयास। औरत भी मर्द को मार रही है, कभी उसके अत्याचारों से विवश होकर तो कभी पर प्रेम में विवश होकर। लूट, हत्या, बलात्कार जैसी वीभत्स हरकतें आदमी के लिए कितनी सहज हो गई हैं, आश्चर्य इस बात पर होता है। सुनते हैं यह कलियुग की शुरुआत भर है, तो इसका अंत क्या और कहाँ होगा। बहरहाल तुम्हारे इस दर्द में हम सभी शरीक हैं। हाँ हम मर्द भी।
वहिशाने पन की सभी हदे पर कर दी यही तरक्की की संज्ञा बन गयी ना दी पसीजा और ना रूह कांपी ना ग्लानी और ना आत्मचिंतन
bahut achchhi yaddasht. delhi me kangresi sushil sharma ne apni bivi naina sahni ko hotel ashok ke dandur me bhun diya tha. wo tab se jel me hai. aur dehradun se aai kabhar ne hila diya
गुस्सा,घृणा और हताशा का बेहद बेरहम कदम.अब हिन्दुस्तानी मर्द भी जासूसी नॉवलों में दिए गये घिनोने कृत्यौं को अंजाम देने में लग गये हैं.यह औरतों के प्रति अत्याचार का बेहद-बेहद ही घिनोना पहलु है और हम सोच भी नहीं सकते कि कुछ लोग बेहरमी की इस हद तक भी जा सकते हैं.
Vikas ka mudda alag hai , hum sab ko insaneyat ka khayal zaroor rakhana chaheye. Bahut hi achchha lekh laga , sarahneey.
औरत रानी बन्ने की कोसिस न करे /
दुर्गा या काली बने /
हैवानियत के रुप है सब! मानसिक संतुलन अगर अपराधी प्रवृति को जन्म देता है तो वह दोष है ना कि किसी लिंग या व्यवस्था का रुप या स्वरुप। कल ही समाचार देख रहा था कि किसी महिला ने अपने पति को मारने के लिये सुपारी दी। महिला उत्पीडन एक समस्या है लेकिन उसमे सुधार हो रहा है चाहे कुछ तपके मे अभी भी वह मुंह बाहे खडा हो। अपराध अपराध किसी भी रुप मे हो वह निंदनीय है..
वंदना -तंदूर में भुनने वाली नैना से ऐसे जघन्य मामलों की शुरुवात नहीं हुई ,जर्मनी में रहने वाला एक प्रवासी भारतीय डॉक्टर ऐसा ही घिनौना काम लगभग तीन दशक पहले कर चुका है .
दरिंदगी में हमारी प्रतिभाएं उजागर होती रहती हैं .
You write thought provoking articles very well.
Regards
Rajeev K Khattar
kai dard dahla dete hain , stabdh mann !
यह सब इसलिए है जनाब क्योंकि अपनी संस्कृति -सभ्यता को महाभारत कल के बाद भुलाया जाता रहा और अब वह तिरस्कृत है.यदि पुनः अपने पुराने मूल्यों को बहल कर संकें तो अब फिर वही समानता स्थापित हो सकती है.
विचार करने को प्रेरित करती, अंतर्मन को अंदर तक झकझोरती बेहद ही उम्दा प्रस्तुति वंदना जी| बधाई स्वीकार करें| शीर्षक पढ़ते ही लग गया था कि अंदर बहुत कुछ है, और वाकई अंदर बहुत कुछ मिला|
प्रिय वन्दना,
तुम्हारा लेख अभी इर्दगिर्द पर पढ़ा। नारी होने के नाते इस दर्द की टीस जैसे तुम्हें सालती है, उसी तरह पुरुष वर्ग को कलंकित करने वाली ये घटनायें हर संवेदनशील मर्द को भी शर्मसार करती हैं। जब कानून आँख पर पट्टी बाँध ले, जब स्वाधीनता और स्वच्छंदता पर्याय बन जायें, जब नेह के सम्बन्ध देह तक सिमट जायें और जब भौतिक सम्पन्नता ही समाज में श्रेष्ठता का मापदंड हो जाये तो विकृतियों और जघन्य अपराधों को सहज पोषण मिलने लगता है। शायद फिर आत्मा मौन हो जाती है या मर जाती है, फिर चाहे वो किसी पुरुष की आत्मा हो या नारी की। ईश्वर से प्रार्थना है कि हमारी आत्मायें जागृत रहें।
बहरहाल, यह दर्द सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है, सम्पूर्ण विवेकशील और संवेदनशील समुदाय का है। मैं भी इसमें साझी हूँ।
सार्थक और उद्देश्यपरक लेख लिखने के लिए साधुवाद और आशीष!
राजेन्द्र चौधरी
such mai bohot hi bari samsya hai yeh abhi pichle hafte hi ek or women ko jagadhri (haryana) mai uske saas, sasure or jeht ne maar diya kaise etni himmat aaa jati hai logo mai. par muje lagta hai kahi na kahi insaan hosh kho betha hai usko pata hi nahi woh kya kar raha hai or ho sakta hai eske piche shadi ki yeh purni pratha hai. hum log jhur toh jate hai ek bandhan mai par us se chut pana muskil hota hai. kabhi 2 log rahte toh ek sath hi hai paar un mai pyar nahi bachta ya woh dil maar kar ek dusre ko sah rahe hote hai toh kahi na kahi es ke piche freedom ka na rahna or kuch apni dabhi hui mansik vritiyo se insaan ka na nikal pana eska karan hai human being ne apne aantas mai etna kuch daba liya hai. or jab usko krodh aata hai toh usko pata hi nahi chal ta ki woh kya kar raha hai. es mai bhi 2 parkar ke log hote hai ek khud ko katam kar deta hai or ek dusare ko kahi na kahi karan hum sub mai hai or usko tatolna hoga es mai sayad dosh dono ka hi ho sakta hai kyo ki kuch bhi aisa hone se pahle kuch na kuch hint jaroor milta hoga par kahi na kahi usko woh log samajh nahi pate (muj se koi galti hui ho toh maaf karna ) yeh mera vichar hai or ho sakta hai ki mai galt hoo par vichar vyakt karne ka adhikar toh hona hi chiye or kuch logo ko mil kar ek aisa sys. banana chiye jaha log meditation kar sake or woh bhi aise jis se unki damit bhawanaye nikal jaye dhanywaad "Gopa"
Post a Comment