Saturday, July 30, 2011
दो गजलें
एक :
सावन ने फिर दी है दस्तक, खोलो खिड़की दरवाजे
बंद रहोगे घर में कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
तरस रहे तुम से मिलने को, झोंके सर्द हवाओं के
तुम रूठे बैठे हो अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
मैं प्यासा हूँ तुम अमृत हो, फिर भी बाहर रहूँगा मैं
नहीं बुलाओगे तुम जब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
जब तक ये आकाश जलेगा, जब तक धरती सुलगेगी
यह बारिश भी होगी तब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
कुछ गीली मिट्टी की खुशबू, कुछ रिमझिम है सावन की
लेकर खड़ा रहूँ मैं कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
पानी में बच्चों की छप-छप, वो कागज की नाव 'अनिल'
जीवित हैं वो मंजर अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे
दो :
बड़ी कंटीली राहों से हम गुजरे हैं अब तक
छाले हैं पांवों में फिर भी चलते हैं अब तक
तन पर तो हर जगह उम्र ने हस्ताक्षर कर डाले
लेकिन मन से सच पूछो तो बच्चे हैं अब तक
हवा चली तो सारे बादल हो गए तितर- बितर
इस सावन में धरती पर सब प्यासे हैं अब तक
सदा जोड़ने की कोशिश में होते खर्च रहे
इन कच्चे धागों में फिर भी उलझे हैं अब तक
कभी मिले फुर्सत तो उनके बारे में सोचो
प्रश्न कई जो सदियों से अनसुलझे हैं अब तक
Monday, June 27, 2011
हौंसलों और मजबूत इरादों ने दी पहचान
'मंच' के 26 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जिन सात महिलाओं को 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत किया गया उनमें सत्तर साल की युवा शूटर प्रकाशो देवी, मंदबुद्धि बच्चों के विकास में लगीं प्रमिला बालासुंदरम, सौ से ज्यादा महिलाओं को ट्रैक्टर चलाना सिखा चुकीं शालिनी, उत्तराखंड की संस्कृति और कला के उन्नयन में जुटीं लोकगायिका बसंती बिष्ट, महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाने वाली रेलवे कुली मुंदरा देवी, तीन हजार रूपये से अपना उद्यम शुरु कर बीस देशों तक अपने उत्पाद पंहुचाने वाली प्रेरणा और शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाली प्रशासनिक अधिकारी डा0 अमृता सिंह हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों से आईं इन सात देवियों का जब परिचय पढ़ा गया तो उनकी पृष्ठभूमि, संघर्ष, जिजीविषा और उपलब्धियों को सुनकर ऑडीटोरियम में बैठे लोगों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उनका अभिवादन किया।
इस मौके पर बोलते हुए भास्कर समूह के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि गर्व होता है जब रवीश जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी बेवाक पत्रकार को देखते हैं। उससे भी ज्यादा गर्व तब होता है जब प्रकाशो, बालासुंदरम, शालिनी, मुंद्रा या प्रेरणा जैसी महिलाओं का सम्मान होता है क्योंकि अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चारों ओर से उनके जलाने, लूटने या इज्जत से खिलबाड़ की खबरें आ रही हैं और इन सब के बीच ऐसी महिलाएं एक ताकत बनकर उभरती हैं और हमें बताती है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है और होने भी नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि अखबारों में ये खबर तो छपती है कि 'एक किसान मर गया लेकिन ये खबर नहीं छपती वह किसान अपने पीछे एक औरत को भी मरने के लिए छोड़ गया क्योंकि औरत तो हर जगह मरती है, चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सांप्रदायिक दंगे या फिर बिगड़ते पर्यावरण के चलते सूखते कुंए या झरने। यदि एक कुंआ सूखता है तो गांव में एक महिला के लिए पीने के पानी की दूरी और बढ़ जाती है। पानी के झरने लगातार सूख रहे हैं लेकिन महिलाओं के आंसू लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उनकी पीठ लगातार कमजोर हो रही है या टूट रही है। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया भर की संस्था हमें बता रही हैं कि हिंदुस्तान में महिलाओं की संख्या भले ही पुरुषों के आसपास हो लेकिन उच्च पदों पर उन्नति प्राप्त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत दस से बारह के आसपास ही है। उन्होंने कहा कि ये सारी परिस्थितियां बताती हैं कि हम जिस तरक्की या आर्थिक विकास दर की बात करते हैं वह उन महिलाओं तक नहीं पंहुचा है जो बीस रूपये में अपना घर चला रही है, अपने बच्चों को पढ़ा रही है और अंधेरे में अपनी आंखे फोड़ रही है। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने कहा कि अल्प संसाधनों में अपने बूते काम कर रही उत्तर प्रदेशीय महिला मंच समाज के शोषितों, दलितों और पीडि़तों के लिए जिस तरह से काम कर रही है और जमीन से जुड़ी महिलाओं की हौंसलाअफजाई कर रही है वह एक उम्मीद पैदा करता है।
लब्धप्रतिष्ठ कथाशिल्पी चित्रा मुदगल ने अपने संबोधन में कहा कि ये महिलाओं की मेहनत का ही नतीजा है कि वह आज अपनी पहचान अपने ही बलबूते पर बनाने में सफल हो रही हैं। उन्होंने 'मंच' द्वारा प्रदत्त 'हिंद प्रभा' सम्मान से अलंकृत महिलाओं के कार्यों और सफलताओं से अभिभूत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी यात्रा में मुश्किलें या रुकावटें न आईं हों लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह मुश्किलों से जूझी होंगी, टूटी होंगी, हालात पर झल्लाई होंगी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और न ही हालात के साथ समझौता किया। इसलिए उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिला। उन्होंने सत्तर की उम्र पार कर चुकी प्रकाशो देवी के हौंसले और मेहनत का जिक्र किया जिसने साठ साल की उम्र में चूल्हे पर रोटियां सेकने और गोबर पाथने के साथ-साथ हाथों में बंदूक थाम कर निशानेबाजी सीखी और एक ही साल में स्टेट के नौ मेडल जीतकर सबको एक बार फिर बताया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आज प्रकाशो की बदौलत न केवल उसके घर की बहु-बेटियां बल्कि बागपत का जौहड़ी गांव अचूक निशानेवाजी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। कथा शिल्पी चित्रा मुदगल ने कहा कि आगरा कैंट रेलवे स्टेशन की पहली महिला कुली मुंद्रा हो या महिलाओं को ट्रैक्टर की स्टेयरिंग थमाने वाली शालिनी; इन सभी के भीतर कई कालजयी रचनाएं छिपी हैं और यही हमारे असल आयकॉन होने चाहिएं लेकिन दुर्भाग्य से अभी ऐसा नहीं है, पर मन में विश्वास है कि एक दिन ऐसा होगा।
सम्मान ग्रहण करने के बाद रवीश कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आप सबको ये समझ लेना चाहिए कि 'न्यूज' आपके लिए नहीं हैं क्योंकि आप दो पैसे भी नहीं देते। टेलीविजन का सारा खेल टीआरपी का है और विज्ञापनदाताओं के लिए है। हम इस तरह से उनके प्रति सम्मुख, उन्मुख और जिम्मेदार बना दिए गए हैं क्योंकि चार टीआरपी मीटर वाले बक्से जो तय करेंगे वही हम होंगे। इसलिए आप जो हमसे अपेक्षा रखते हैं, कुछ दिन बाद हम वह नहीं रह जाएंगे और कुछ दिन बाद अगर यही हालत रही तो आप लोगों को पत्रकारों को बुलाकर सम्मानित करने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी बल्कि चौराहों पर घेरकर पीटने की या फिर गाली देने की नौबत आ जाएगी। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इसके लिए पत्रकारों को ही संघर्ष करना होगा बल्कि इस संस्था या इस पेशे को बचाने के लिए जब आप संघर्ष करेंगे तभी ये बच सकेगी क्योंकि वोट की जगह इस समस्या के निदान का रिमोट भी आपके ही हाथ में है। उन्होंने लोगों से कहा कि वह बहुत दिन तक दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकते क्योंकि सारा काम या कुकर्म उन्हीं के नाम पर यानी दर्शकों की पसंद और नापसंद के नाम पर ये सब किया जा रहा है। अगर दर्शकों ने सक्रियता नहीं दिखाई तो कुछ कॉरपोरेट हाउस इस देश को ऐसा बना देंगे जैसा वह दिखता नहीं है और जैसा वह दिखना नहीं चाहिए।
मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ इतनी भर है कि साथ काम करने वाली कोई स्त्री जैसी लगती है। लड़की जैसी लगती है। उसके मुद्दे, उसके अहसास, उसके अधिकार, ये सब नज़र नहीं आते। न्यूज़ चैनलों में आप लड़कियों की संख्या से खुश होना चाहते हैं या उनके दखल से। प्लास्टिक की गुड़ियाओं की मांग आने वाले दिनों में टीवी में बढ़ेगी। बल्कि अभी भी प्लास्टिक नुमा लड़कियां ही ख़बरें पढ़ रही हैं। फर्क इतना आएगा कि जो पूरी तरह प्लास्टिक और झुर्रियों से मुक्त होगी वही एंकर होगी। मीडिया में स्त्रियों की मौजूदगी स्क्रीन पर है। स्क्रीन के बाहर कुछ अपवादों, कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो कुछ नहीं है। हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं है। इंग्लिश में कुछ महिला पत्रकारों ने वाकई कई धारणाओं,सीमाओं और कई चीजों को तोड़ते हुए जगह बनाई। लेकिन ये जगह बनाने वाली सभी महिलाएं एक खास वर्ग विशेष तबके से आती हैं। किसी बड़े अफसर की बेटी हों, या किसी बड़े संपादक की पत्नी या किसी बड़े कालेज की स्नातक। कहने का मतलब है कि इसकी वजह से उन्हें मौके मिले और इनमें से कई ने उन मौकों का इस्तमाल प्लास्टिक की गुड़िया बनने में नहीं किया बल्कि जगह बनाने में किया। यह बदलाव और ही अच्छा लगता जब इंग्लिश मीडिया में कोई छोटे कस्बे की अंग्रेज़ी बोलने वाली उतने ही प्रयास, उतने ही समय में वैसी जगह बना लेती जो एक खास तबके के महिलाओं ने बनाई। हिन्दी मीडिया में तो इतना भी नहीं हुआ। एक तो पुरुषवादी ढांचे की मज़बूती। दूसरा जूझ कर, टूट कर और फिर उठ कर जगह बनाने की होड़ या भूख कम लोगों में नज़र आई। पेशेवर होने के पैमाने पर भी साबित करने की भूख बढ़ती या कर पातीं, उससे पहले उन्हें स्त्री से भी ज्यादा स्त्री बना कर मेकअप लगाकर स्टुडियो में भेज दिया गया। जहां कठपुतली होना ही नियति है। फिर भी कुछ लड़कियां अच्छा काम कर रही हैं। कुछ यूं ही काम किए जा रही हैं जैसे कुछ लड़के किये जा रहे हैं। यह मेरा नज़रिया नहीं है जो देख रहा हूं अपने पेशे में उसकी लाइव कमेंट्री है। आप चाहें तो आराम से असहमत हो सकते हैं।
समारोह में अनेक विभूतियां मौजूद रहीं। संस्था के संपादक स्व0 वेद अग्रवाल का परिचय युवा लेखिका/पत्रकार आकांक्षा पारे ने पढ़ा। इस अवसर पर 'वरदा-2011' का विमोचन और वितरण भी हुआ।
टीवी इंडस्ट्री में बहुत बड़े-बड़े किस्सा गो हैं लेकिन रवीश कुमार ने टीवी में किस्सागोई का एक नया अंदाज़ बनाया है। हो सकता है कि बिहार से निकले रवीश कुमार ने दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही बिहार की बहुत सी बातों को भुला दिया होगा लेकिन उनके प्रोग्राम देखकर, उनको पढ़कर और उनसे बातें करते पता चलता है कि उनको अब भी कितना याद है, अपनी भाषा और मिट्टी के बारे में। रवीश कुमार सबसे अलग हैं, अनोखे हैं इसीलिये उत्तर प्रदेश महिला मंच ने उनको अपने संस्थापक की स्मृति में दिए जाने वाले सम्मान के लिए चुना है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान है। वर्तमान में वह एशियन फेडरेशन फॉर इंटलेक्चुअली डिसेबिल्ड की उपाध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त ·रने वाली वह पहली महिला हैं। उन्हें अब तक कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
53 साल की शालिनी जिस काम में जुट जाती हैं, उसे अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लेती हैं। प्रबंधन में मास्टर डिग्री करने के बाद शालिनी सामाजिक विषमताओं को दूर करने में जुट गईं और 1980 तक विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ उन्होने स्वतंत्र रुप से सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के खिलाफ मोरचा खोले रखा। 1987 में शालिनी सुरक्षा नाम के संगठन से जुड़ीं। महिला अधिकारों के मुद्दों पर जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्धारण तक के मंचों पर शालिनी समान रुप से जूझती हुईं दिखाई देती हैं।
बसंती देवी ने अब तक अनेक गीत लिखे हैं और खास बात यह है कि वह स्वरचित गीतों को ही अपना स्वर देती हैं। जागर के अलावा वह मांगल, पाण्डवाणी, लोक गाथाएं एवं गढ़वाली तथा कुमाऊंनी लोकगीतों की भी गायिका हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके द्वारा रचित एक गीत 'वीर नारी आगे बढ़, धीर नारी आगे बढ़' उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के कंठ से हमेशा गूंजता रहता था। कारगिल युद्घ से लेकर सामाजिक विषमताओं तक पर लोकगीत रच कर उन्हें स्वर देने वाली बसंती विष्ट उत्तराखंड की संस्कृति को सहेजने और परंपराओं को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं।
डा0 अमृता सिंह : यूपी कैडर की पीसीएस अधिकारी डा0 अमृता सिंह ने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से हासिल की। 2001 में पीसीएस में चयन होने के बाद पहली पोस्टिंग में ही एक नहीं तीन जिलों का काम उन्हें सौंपा गया। एक अधिकारी होने के बावजूद इन्हें खुद को अपने शोषण से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो इन्होंने एक उच्चाधिकारी की गलत हरकतों से परेशान होकर नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था लेकिन दूसरे ही क्षण अंतरआत्मा की आवाज पर आरोपी बॉस को सबक सिखाने के लिए जी-जान से जुट गईं। अनेकानेक दवाबों के बाद भी झुकी नहीं। अमृता का मानना है कि महिलाएं यदि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखती हैं तो उन्हें उसी तरह रहना सीखना पड़ता है जैसे बत्तीस दांतो के बीच में जीभ रहती है लेकिन यदि स्त्रियां दृढ़ता और मजबूत इरादों का कवच पहन लें तो संसार का कोई भी पुरुष उनसे मनमर्जी नहीं कर सकता।
Saturday, June 18, 2011
बारिशों की फुहार लगती हो|
Thursday, May 26, 2011
दो ग़ज़लें
खुद से बाहर कभी निकल
हाथ पकड़कर मेरा चल
जरा संभल कर रहना सीख
यह दुनिया अब है जंगल
यूं गिरना भी बुरा नहीं
फिर भी पहले जरा संभल
अब काजू बादाम उड़ा
नहीं यहाँ गेहूं चावल
इसकी बातें ध्यान से सुन
क्या कहता है ये पागल
मै बस आने वाला हूँ
बंद नहीं करना सांकल
इस तिनके की इज्जत कर
शायद कभी बने संबल
इसके आगे बस्ती है
देख भाल कर जरा निकल
रात देख कर छत सूखी
बरस गया कोई बादल
आगे है ढालान बड़ा
मुमकिन है तू जाये फिसल
मैंने नदी को रोका तो
करती चली गयी कल-कल
आज, आज की सोचो बस
कल की बात करेंगे कल
खुदा से बढ़कर नहीं है तू
खुद को इतना भी मत छल
तू खुद को तो बदल के देख
दुनिया भी जाएगी बदल
यूं ही पथ कट जाएगा
ग़ज़ल 'अनिल' की गाता चल
दो-
जंगल से उठ आये जंगल
शहरों में उग आये जंगल
बस्ती में आ गए दरिन्दे
उनको हुए पराये जंगल
शहरों के हालात देखकर
खुद से ही शर्माए जंगल
अन्दर का इन्सान मारकर
हमने वहां बसाये जंगल
ड्राइंग रूम की दीवारों पर
शीशों में जड्वाए जंगल
आँगन में कैक्टस सींचकर
हमने खूब सजाये जंगल
कुदरत शायद खुश हो जाए
आये कोई बचाए जंगल
हरे भरे सब काटे हमने
कंक्रीट के लाये जंगल
पहली बारिश की आमद से
मुस्काए, हर्षाये जंगल
Monday, May 16, 2011
किसानों के 'महात्मा' टिकैत का जाना
Sunday, April 24, 2011
२ ग़ज़लें
एक -
बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं
जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं
मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं
जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं
ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं
इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं
सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं
मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं
भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं
पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं
मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं
पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं
दो-
उसने मुझसे बोला झूठ
अपना पहला पहला झूठ
ताकतवर था खूब मगर
फिर भी सच से हारा झूठ
अब मैं तुझको भूल गया
आधा सच है आधा झूठ
सच से आगे निकल गया
गूंगा, बहरा, अंधा झूठ
कुछ तो सच के साथ रहे
ज्यादातर को भाया झूठ
जग में खोटे सिक्के सा
चलता खुल्लम खुल्ला झूठ
शक्ल हमेशा सच की एक
पल पल रूप बदलता झूठ
इस दुनिया की मंडी में
सच से महंगा बिकता झूठ
सच से बढ़ कर लगा मुझे
उसका प्यारा प्यारा झूठ
माँ से बढ़कर पापा हैं
कितना भोला भाला झूठ
सच ने क्या कम घर तोड़े
बदनाम हुआ बेचारा झूठ
Thursday, April 7, 2011
ऐसे चलते हैं हिंदी के संस्थान
केंद्रीय हिंदी संस्थन, आगरा जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है, पिछले दो वर्ष से बिना निदेशक के है और अब भी इस पद पर नियुक्ति हो पाने के आसार नहीं हैं, क्यों? हिंदी की सरकारी संस्थाएं किस तरह से काम करती हैं और किस हद तक चमचों, दरबारियों और छुटभइयों का अभयारण्य बन गई हैं इसका उदाहरण केंद्रीय हिंदी संस्थान है, जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है।
संस्थान में पिछले दो वर्ष से कोई स्थायी निदेशक नहीं है। इस बीच तीन बार निदेशक के पद के लिए विज्ञापन निकाला गया। पहली बार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सुधाकर सिंह का चुनाव भी हो चुका था पर बीच में ही मानव संसाधन विकास मंत्री के बदल जाने से सुधाकर सिंह की नियुक्ति इस तर्क पर नहीं हुई या होने दी गई कि वह अर्जुन सिंह के आदमी थे।
दूसरे व तीसरे विज्ञापन पर आये आवेदनों में चयन समिति को कोई ऐसा आदमी ही नहीं मिला जो इस पद के लायक हो। इसलिए केंन्द्रीय हिंदी संस्थान के वरिष्ठतम प्रोफेसर रामवीर सिंह को अस्थायी निदेशक बना दिया गया। ईमानदार रामवीर सिंह के लिए नये अध्यक्ष अशोक चक्रधर के चलते काम करना आसान नहीं हुआ (उदाहरण के लिए उनके फाइव स्टार होटलों के बिलों पर आपत्ति करना)। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव की भी यह कोशिश रही कि संस्थान में कोई निदेशक आए ही नहीं और वह सीधे-सीधे मंत्रालय से नियंत्रित होता रहे। जो भी हो, अंततः कपिल सिब्बल के छायानुवाद्रक (?) और कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार सामग्री तैयार करने वाले अशोक चक्रधर में मंत्री से अपनी नददीकी के चलते रामवीर सिंह को हटवा दिया और उनकी जगह तात्कालिक कार्यभार के. बिजय कुमार को सौंप दिया।
बिजय कुमार की हालत यह है कि वह पहले ही दो संस्थानों को संभाले हुए हैं। वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग के अध्यक्ष के अलावा वह केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली के निदेशक का अतिरिक्त भार भी संभाले हुए हैं। मजे की बात यह है कि वह हिंदी के आदमी ही नहीं है और पहले ही अपने काम से बेजार और रिटायरमेंट के कगार पर हैं। सवाल यह है कि जब नये निदेशक का चुनाव होने ही वाला था तो फिर रामवीर सिंह को क्यों हटाया गया? (क्या इसलिए भी कि वह अनुसूचित जनजाति के हैं ?) साफ है कि उपाध्यक्ष महोदय किसी ऐसे ही आदमी की तलाश में थे जिसकी और जो हो, हिंदी में कोई रूचि न हो। बिजय कुमार से बेहतर ऐसा आदमी कौन हो सकता था जो उपाध्यक्ष के मनोनुकूल निदेशक की नियुक्ति तक इस पद की पहरेदारी कर सके।
इससे यह बात फिर से साफ हो जाती है कि सरकार हिंदी और हिंदी की संस्थाओं के लिए कितना चिंतित है। एक आदमी जिसे एक संस्था का चलाना ही कठिन हो रहा हो, उस पर तीन संस्थाओं को थोपना सरकार की मंशा को स्पष्ट कर देता है। स्पष्ट है कि वृहत्तर हिंदी समाज की बात तो छोड़िये, हिंदी के बुद्वि जीवियों को भी इससे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यह अचानक नहीं है कि हिंदी की संस्थाओं पर मीडियाकरों का पूरी तरह कब्जा हो चुका है। इस संस्थाओं में हो क्या रहा है, इनकी क्या उपयोगिता है, यह सवाल शायद ही कभी पूछे जाते हों। जहां तक बुढा़पे में कवि बने कपिल सिब्बल का सवाल है उनकी रूचि हिंदी व उसकी संस्थाओं में तब हो जब उन्हें 2 जी स्पेक्ट्रम और अपने हमपेशेवर वकील अरूण जेटली से वाक्युद्ध करने से फुर्सत मिले। वैसे 2 जी स्पैक्ट्रम है तो दुधारी गाय पर फिलहाल इसकी हड्डी सरकार के गले में फंसी हुई है।
पर असली किस्सा है संस्थान के नये निदेशक की नियुक्ति को लेकर। गत जनवरी में इस पद के लिए पहला विज्ञापन निकाला गया था। 15 जून, 2010 को तीन सदस्यों की सर्च कमेटी, जिसमें श्याम सिंह शशि (प्रकाशन विभाग प्रसिद्धि के), नासिरा शर्मा और रहमतुल्ला थे, मीटिंग हुई। पर किसी उम्मीदवार को उपयुक्त नही पाया गया। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में दोबारा से इस पद के लिए संशोधित विज्ञापन निकाला। इस में पीएचडी आदि के अलावा, जो अनिवार्य योग्यताएं मांगी गई थी उनमें : - प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित कार्य और पुस्तकों के लेखन में प्रमाण के रूप में प्रकाशित कार्य -
प्रशासनिक अनुभव के तौर पर : संकायाध्यक्ष/स्नातकोत्तर कॉलेज के प्रिंसिपल/ विश्वविद्यालय का रेक्टर/पीवीसी/कुलपति/विश्वविद्यालय विभाग के अध्यक्ष के रूप में पांच वर्ष का प्रशासनिक अनुभव।
आवेदन आए। उसी पुरानी सर्च कमेटी की मीटिंग 21 फरवरी को रखी गई। कहा जाता है कि उपाध्यक्ष महोदय की रूचि अपने एक निकट के व्यक्ति/संबंधी की नियुक्त करने में थी। पर जिस व्यक्ति को अंततः चुना गया, वह थे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे मोहन (शर्मा) नाम के सज्जन, जो छह वर्ष पूर्व अचानक बर्धवान से सीधे दिल्ली में प्रकट हुए थे। मंत्रालय को भेजे गए एक गुमनाम पत्र में आरोप है कि इन्होंने दिल्ली में नौकरी पाने के लिए सीपीएम के दरवाजे खटखटाए थे। इस बार बतलाया जा रहा है कि इनकी सिफारिश ठोस कांग्रेस खेमे से सीधे हैदराबाद से होती हुई राज्य मंत्री की ओर से थी। जो भी हो फिलहाल जिन मोहन जी का चुनाव किया गया था वह चूंकि उपाध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय के आचार्यो की विख्यात टोली के निकट थे और उनका लचीलापन अब तक जग जाहिर है, इसलिए उपाध्यक्ष को उन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। मंत्रालय को भेजे गए इस गुमनाम पत्र लेखक ने मोहन जी की विशेषता कुछ इस प्रकार बतलाई है कि यह ‘‘प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के कारण या किसी प्रतिष्ठित लेखक के रूप में भी नहीं जाने जाते हैं।‘‘ बल्कि ‘‘इनको दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष (यानी सुधीश पचौरी) के क्लर्क के रूप में जाना जाता है।‘‘ साफ है कि जो आदमी जुगाड़ का ही माहिर हो और दिल्ली -कोलकाता-हैदराबाद को चुटकियों में साध सकता हो, उस बेचारे के पास लिखने-पढ़ने की फुर्सत ही कहां होगी। फिर पढ़ने से हिंदी में होने वाला भी क्या है, यहां तो जो होता है वह जुगाड़ से ही तो होता है। वह स्वयं इसके साक्षात उदाहरण हैं ही।
पर इस आदमी को चुनने के लिए जो तरीके अपनाए गए वे अपने आप में खासे आपत्तिजनक थे। उदाहरण के लिए सबसे पहले तो सर्च कमेटी की सदस्य नासिरा शर्मा को, जो अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व व निर्णयों के लिए जानी जाती हैं, कमेटी की मीटिंग की जानकारी ही नहीं दी गई। जब उन्हें यह बात पता चली तो इस वर्ष 22 फरवरी को उन्होंने एक पत्र मंत्रालय में संबंधित संयुक्त सचिव को यह जानने के लिए लिखा कि क्या जिस सर्च कमेटी में मेरा नाम है उसकी मीटिंग 15 फरवरी को हो चुकी हैं? इसके बाद 27 फरवरी को नासिरा जी ने दूसरा पत्र मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिख दिया।
इस पर संस्थान ने तर्क दिया कि हमने तो नासिरा जी को पत्र लिखा था अगर उन्हें नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं। यह गैरजिम्मेदाराना हरकत की इंतहा है। इस पर संबंधित अधिकारी को निलंबित किया जा सकता है। सरकार का इस संबंध में नियम यह है कि तब तक किसी भी सर्च कमेटी की बैठक नहीं की जा सकती जब तक कि उसके सभी सदस्यों को यथा समय सूचित कर उनकी सहमति नहीं ले ली जाती। अगर कोई सदस्य नहीं आना चाहता, यह भी उससे लिखित में लेने के बाद ही, उसके बगैर कमेटी की मीटिंग हो सकती है। नासिरा जी दिल्ली में ही रहती हैं। आखिर ऐसा क्या था कि उन्हें हाथों-हाथ मीटिंग के बारे में सूचित न किया जा सकता हो? साफ है कि विभाग की मंशा ही कुछ और थी और यह जानबूझ कर किया गया था।
जहां तक उपाध्यक्ष का सवाल है वह सारे मामले को स्वर्ण जयंती का बहाना बना कर अपनी ओर से आनन-फानन में निपटा, फरवरी में ही हिंदी का प्रचार करने अपनी टोली के साथ इंग्लैण्ड चले गए थे। फाइल मंत्री महोदय के पास पहुंच भी गई। पर तब तक नासिरा शर्मा का पत्र मंत्री महोदय को मिलने के अलावा विभिन्न अखबारों में भी छप गया। इस पर मंत्री ने उस फाइल को कैबिनेट कमेटी के पास स्वीकृति लेने के लिए नहीं भेजा। पर इस बीच मधु भारद्वाज नाम की एक उम्मीदवार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। इसमें आरोप है कि संस्थान ने अपने विज्ञापन में हिंदी की एक संस्था के निदेशक के पद के लिए हिंदी एमए की शैक्षणिक योग्यता ही नहीं मांगी। इसके कारण कई लोग आवेदन ही नहीं कर पाए। उनका कहना है कि यह जानबूझ कर भ्रम फैलाने के किया गया, क्योंकि मंत्रालय ने किसे लेना है इस बाबत पहले से ही मन बना लिया था। कोर्ट ने मंत्रालय से चार सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है।
इसी का नतीजा है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में, निदेशक के तौर पर के. बिजय कुमार का नाम छपा था। यानी मंत्री उस फाइल को आगे नहीं बढ़ा पाए हैं। देखना होगा कि क्या इस बार भी निदेशक की नियुक्ति हो पाएगी?
फिलहाल हिंदी संस्थान आगरा को लेकर दो समाचार हैं। पहला, इसके स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों की शुरुआत 28 मार्च से, आगरा में नहीं, दिल्ली में हो गई है। पर जैसा कि निमंत्रण पत्र में लिखा था यह सिब्बल के करकमलों से नहीं हो पाया है। संस्थान ने मंत्री महोदय के लिए सुबह साढ़े दस के समय को दस भी किया पर मंत्री महोदय ने न आना था न आए। यह दूसरी बार है जबकि मानव संसाधन विकास मंत्री ने संस्थान को ऐन वक्त पर गच्चा दिया था। नृत्यांगना राज्य मंत्री डी पुरंदेश्वरी ने भी हिन्दी को इस लायक नहीं समझा की दर्शन देतीं। इन लोगों की नजरों में हिंदी संस्थानों का महत्व अपने नाकारा लगुवे को चिपका सकने की जगहों से ज्यादा कुछ है भी नहीं।
दूसरा समाचार, जो जरा पुराना है, अशोक चक्रधर को मंत्री की सेवा करने के कारण उचित पुरस्कार मिल गया है। वह अगले तीन वर्ष के लिए उपध्यक्ष बना दिए गए हैं। पिछला एक वर्ष वह था जो रामशरण जोशी ने नये मंत्री के आ जाने के कारण नैतिक आधार पर छोड़ दिया था। कौन पूछने वाला है कि चक्रधर ने पिछले एक साल में केंद्रीय हिंदी संस्थान में पांच सितारा होटलों में ठहरने के अलावा क्या किया ? महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने सिब्बल को साधा और छायानुवाद की ‘जय हो‘ विधा को फिर से पुनर्जीवित किया।
यह आलेख ''समयांतर'' में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है.
Tuesday, April 5, 2011
एक
बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं
जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं
मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं
जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं
ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं
इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं
सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं
मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं
भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं
पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं
मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं
पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं
दो
उसने मुझसे बोला झूठ
अपना पहला पहला झूठ
ताकतवर था खूब मगर
फिर भी सच से हारा झूठ
अब मैं तुझको भूल गया
आधा सच है आधा झूठ
सच से आगे निकल गया
गूंगा, बहरा, अंधा झूठ
कुछ तो सच के साथ रहे
ज्यादातर को भाया झूठ
जग में खोटे सिक्के सा
चलता खुल्लम खुल्ला झूठ
शक्ल हमेश सच की एक
पल पल रूप बदलता झूठ
सच से बढ़ कर लगा मुझे
उसका प्यारा प्यारा झूठ
माँ से बढ़कर पापा हैं
कितना भोला भाला झूठ
सच ने क्या कम घर तोड़े
बदनाम हुआ बेचारा झूठ
Thursday, February 17, 2011
अपना घर सारी दुनिया से हट कर है
हर वो दिल, जो तंग नहीं, अपना घर है|१|
माँ-बेटे इक संग नज़ारे देख रहे|
हर घर की बैठक में इक जलसाघर है|२|
जिसने हमको बारीकी से पहचाना|
अकबर उस का नाम नहीं, वो बाबर है|३|
बिन रोये माँ भी कब दूध पिलाती है|
सब को वो दिखला, जो तेरे अन्दर है|४|
उस से पूछो महफ़िल की रंगत को तुम|
महफ़िल में, जो बंद - आया पी कर है|५|
'स्वाती' - 'सीप' नहीं मिलते सबको, वर्ना|
पानी का तो कतरा-कतरा गौहर है|६|
सदियों से जो दबा रहा, दमनीय रहा|
दुनिया में अब वो ही सब से ऊपर है|७|
मेरी बातें सुन सब मुझे से कहते हैं|
क्या तू भी पगला-दीवाना-शायर है|८|
पहले घर, घर होते थे, दफ्तर, दफ्तर|
अब दफ्तर-दफ्तर घर, घर-घर दफ्तर है|९|
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नवीन सी चतुर्वेदी
Sunday, January 30, 2011
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता
तो फिर गैरों ने हम को इस तरह बाँटा नहीं होता|१|
नयों को हौसला भी दो, फकत ग़लती ही ना ढूँढो|
बड़े शाइर का भी हर इक शिअर आला नहीं होता|२|
हज़ारों साल पहले सीसीटीवी आ गई होती|
युधिष्ठिर जो शकुनि के सँग जुआ खेला नहीं होता|३|
अदब से पेश आना चाहिए साहित्य में सबको|
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता|४|
ज़रा समझो कि अब तो कॉरपोरेट भी मानता है ये|
गृहस्थी से जुड़ा इन्सान लापरवा[ह] नहीं होता|५|
नवीन सी चतुर्वेदी
Wednesday, January 26, 2011
गणतंत्र दिवस- आइये कुछ सोचें
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
हम कोटि- कोटि जन की , हे कर्म भूमि वंदन।
नदियों में तेरी बहता, अमृत सा मीठा पानी
ताजे पके फलों के बागों पे है जवानी।
पर्वत मलय से आकार , शीतल सुखद हवाएँ
पावन धरा पे तेरी , चादर हरी बिछाएं
सुख समृद्दी से भरी तू, सोने सी है खरी तू
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
शुचि श्वेत चांदनी में रातें तेरी नहाये
फूलों फलों से लदकर , सब पेड़ लहलहायें
अधरों पे तेरे खेले मुस्कान मीठी मीठी
वाणी में बांसुरी की है तान मीठी मीठी
सुखदान देने वाली, वरदान देने वाली
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
तेरे करोड़ो बेटे , एक साथ जब गरजते
बासठ करोड़ बाजू , शास्त्रों को ले फड़कते
अबला न समझे कोई , इतनी तू शक्तिशाली
अदभुद है तेज तेरा , महिमा तेरी निराली
जन जन को अपने तारे, दुश्मन दलों को मारे
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्मभूमि वंदन.
Thursday, January 6, 2011
मेरी पसंद : राजेन्द्र चौधरी की रचनाएं
नज़र को इमारत के बुलंद कंगूरों से वास्ता है
लेकिन मेरा मन ठिठकता है, कुछ और तलाशता है
वो जो दीख नहीं पाता लेकिन इस ऊँचाई का आधार है
मेरे मन को कंगूरों से नहीं, नींव के पत्थरों से प्यार है
वो पत्थर जो धरती में भी दस हाथ जाके धंसता है
और खुशी-खुशी गुमनाम अंधेरी गुफ़ा में फंसता है
ताकि इस इमारत को सौ हाथ ऊंची बुलंदी मिले
और इसके कंगूरों को नया रूप, नयी रोशनी मिले
वो पत्थर जिसने इमारत से अपने जीवन का मूल्य नहीं मांगा
और वर्तमान के कांधे पर कभी अतीत का नाम नहीं टांगा
वो पत्थर हर मंदिर के कलश, हर मस्जिद की गुंबद से ऊंचा है
क्योंकि उसने इस इमारत को अपने प्राण उत्सर्ग से सींचा है
मैं और तुम भी वर्तमान के लिए रीतते किसी अतीत के वंश हैं
निस्वार्थ गहराई तक आकर जुड़ो तो, हम किसी नींव के अंश हैं
लेकिन आज हर तरफ़ हर किसी को परकोटों का चाव है
आज मेरे दोस्त, नींव के पत्थरों का अभाव है
भवन उद़घाटित होते हैं, पूजन आधार का होता है
पूजन आधार का होता है।।
कुछ मुक्तक
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मंत्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आंगन हमारा बंटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।
दो
दोस्ती के गुलाबों में लिपटी हुई,
दुश्मनी की मिली हमको सौगात थी।
अर्घ्य देना पडा केक्टस को यहां,
सभ्यता की यह शहरी शुरुआत थी।
चांद रोटी सा हमको चिढाता रहा,
आप कहते हैं पूनम की यह रात थी।
सिर्फ सांपों को विषधर समझते थे हम,
आदमी से न जब तक मुलाकात थी।।
तीन
शीशे के मकानों से पुकारा न कीजिये।
अपनों से पाये ज़ख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा न कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा न कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा न कीजिये।
उनके पांव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।