Friday, December 31, 2010
नव वर्ष - शुभकामनायें
दो हज़ार ग्यारह खड़ा, मित्र आपके द्वार।
याद पुराने वर्ष की, रहे न कोई टीस
नए वर्ष के साथ हों ईश्वर के आशीष ।
नव आशा, नव कल्पना, नव चिंतन नव शोध
नया वर्ष दे आपको, नव जीवन का बोध ।
नव उमंग, संकल्प नव, मन में नव विश्वास
नया सूर्य लेकर उगे , नित्य नया उल्लास ।
सरस, सुवासित 'अनिल' का मिले सदा स्पर्श
यही हमारी कामना, शुभ हो नूतन वर्ष ।
दो गज़लें
(१)
नए वर्ष की नयी सुबह का स्वागत कर लें
नए सोच से, नई तरह का स्वागत कर लें
दिल के जिस कोने में कोई दर्द छिपा हो,
आओ मिल कर उसी जगह का स्वागत कर लें
बांधे है जो अनदेखे बंधन में हमको
स्नेह डोर की उसी गिरह का स्वागत कर लें
बिना वज़ह मिलता है कोई कहाँ किसी से
चलो आज तो किसी वज़ह का स्वागत कर लें।
(२)
आप खुशियाँ मनाएँ नए साल में
बस हँसे, मुस्कुराएँ नए साल में
गीत गाते रहें, गुनगुनाते रहें
हैं ये शुभ-कामनाएं नए साल में
रेत, मिटटी के घर में बहुत रह लिए
घर दिलों में बनायें नए साल में
अब न बातें दिलों की दिलों में रहें
कुछ सुने, कुछ सुनाएँ नए साल में
जान देते हैं जो देश के वास्ते
गीत उनके ही गायें नए साल में
भूल हमको गए हैं जो पिछले बरस
हम उन्हें याद आयें नए साल में
कुमार अनिल
Sunday, December 26, 2010
अलविदा 2010......स्वागत 2011....!!!
हंसी ख़ुशी की डगर है यकीन तो आए
मैं आज करता हूं तेरे लिए दुआ लेकिन
मेरी दुआ में असर है यकीन तो आए
और अंत में बकौल शाहिद मीर उस ऊपर वाले से सिर्फ इतनी चाह है २०११ में आपके और अपने लिए -
ऐ खुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
या छलकती हुई आंखों को ही पत्थर कर दे
और कुछ तो मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पाँवों के बराबर कर दे
Thursday, December 23, 2010
बापू के इस देश में
जिस जानिब भी देखिए, बढ़ा द्वेष का रोग||
बढ़ा द्वेष का रोग, अजब संयोग बनाते|
जब चाहें, दीवाली, आदमख़ोर मनाते|
अत्याचार, अनीति बने सत्ता के टापू|
जान बचाने, फिर से आ जाओ ना बापू||
नवीन सी चतुर्वेदी
Saturday, December 18, 2010
तंदूर से फ्रिजर तक : भुनती और जमती औरत
Monday, December 6, 2010
होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं
कुछ बोल तो पाते नहीं, बस आह भरते हैं||
कानों की बाली चंद्रमा से होड़ करती है|
होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं||
पलकें झुका कर के जभी तू मुस्कुराती है|
अल्ला कसम लगता है जैसे फूल झरते हैं||
दिल ने कभी का हालेदिल समझा दिया दिल को|
लब बोल ही पाते नहीं कि प्यार करते हैं||
नवीन सी चतुर्वेदी
चल मन उठ अब तैयारी कर - गीत
गीत-
चल मन, उठ अब तैयारी कर
यह चला - चली की वेला है
कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली होती आकृतियाँ
है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।
मां की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
एक घर में थी दुनिया सारी
चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।
कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के
अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।
जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता
अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है
झूठे दिन, झूठी राते हैं
झूठी दुनियावी बाते हैं
अंतिम सच केवल इतना है
झूठे सब रिश्ते- नाते हैं
भूल के सब कुछ छोड़ निकल
अब तक यहाँ जो झेला है ।
इससे पहले तन सड़ जाये
कांटा सा मन में गड़ जाये
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जाये
उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।
कुमार अनिल -
Monday, November 29, 2010
हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत
हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत,
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं
चौंधियाए रहे रूप की धूप से
और ह्रदय में बसा प्यार देखा नहीं ।
क्या बताऊँ कि कल रात को किस तरह
चाँद तारे मेरे साथ जगते रहे
जाने कब तुम चले आओ ये सोच कर
खिड़की दरवाजे सब राह तकते रहे
महलों- महलों मगर तुम भटकते रहे
इस कुटी का खुला द्वार देखा नहीं
कल की रजनी पपीहा भी सोया नहीं
पी कहाँ- पी कहाँ वो भी गाता रहा
एक झोंका हवा का किसी खोज में
द्वार हर एक का खटखटाता रहा
स्वप्न माला मगर गूँथते तुम रहे
फूल का सूखता हार देखा नहीं
फूल से प्यार करना है अच्छा मगर
प्यार की शूल को ही अधिक चाह है
अहमियत मंजिलों की उन्ही के लिए
जिनके बढ़ने को आगे नहीं राह है
बिन चले मंजिले तुमको मिलती रहीं
तुमने राहों का विस्तार देखा नहीं
हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं .
-कुमार अनिल
Thursday, November 25, 2010
पेड़, पर्यावरण और काग़ज़
पेङ
पीढी दर पीढी
बढता जा रहा है
धुंआ
सीढी दर सीढी
अपने अस्तित्व की
रक्षा के लिये ,
चिन्तित है -
कागजी समुदाय
हावी होता जा रहा है
कम्पयुटर,
दिन ब दिन ,
फिर भी
समाप्त नहीं हुआ -
महत्व,
कागज का अब तक
बावजूद
इन्टरनेट के ,
कागज
आज भी प्रासंगिक है -
नानी की चिठ्ठियों में ,
दद्दू की वसीयत में
कागज ही
होता है इस्तेमाल ,
हर मोङ पर
जिन्दगी के
परन्तु
थकने भी लगा है
कागज
बिना वजह
छपते छपते
कागज के अस्तितव के लिये
जितने जरूरी हैं
पेङ,
पर्यावरण,
आदि आदि ,
उतना ही जरूरी है -
उनका सदुपयोग -
सकारण
अकारण नहीं
नवीन सी चतुर्वेदी
Thursday, November 18, 2010
शेर कह कर, सुकून सा पाया
दोस्त को, राह पर खङा पाया|
मिट गयीं सब शिकायतें दिल की,
दिल से दिलदार को जो चिपटाया|१|
कल जो बोया था, बीज कोशिश का,
आज उसका ही फल, 'बढा' पाया|
दोस्त, इन्सानियत के पेङों को,
सख्त तूफाँ भी ना झुका पाया|२|
वो उजाला भी क्या उजाला है,
जो अँधेरों को ना मिटा पाया|
इस अमीरों के मुल्क को यारो,
भुखमरी से, निरा, पटा पाया|३|
बात करता है वो, सलीके से,
उसकी नीयत में, 'खोट' सा पाया|
वोट ले कर, वो हो गया गायब,
हमने खुद को, ठगा ठगा पाया|४|
कामयाबी के जश्न से पहले,
देख, क्या खोया और क्या पाया|
बन गया 'साब' कल जो था 'लेबर'
फिर भी, 'रोटी' वो ना जुटा पाया|५|
इसलिये लोग बन गये 'अहमक',
सब को रब, 'अक्ल' ना लुटा पाया|
सैंकङों से, चुरा के सुन्दरता-
चंद रुख, खूबरू बना पाया|६|
उस[*] से लङता रहा हूं अरसे से,
उस को लेकिन, न मैं हरा पाया|
हर दफा, खुद को ही किया है चुप,
उस को खामोश ना करा पाया|७|
उसने पूछा, कयूं कहते हो गजलें?
कोई कारण नहीं बता पाया!
जो भी देखा, जिया, सुना, सोचा,
खुद ब खुद शेर में ढला पाया|८|
ऐसा सुन के, वो पूछता है फिर,
शेर पढ़ कर के, तुमने क्या पाया?
कश-म-कश थी, कि छोङती ही न थी
शेर कह कर, सुकून सा पाया|९|
अहमक = मूर्ख / बुद्धू
रुख = चेहरे
खूबरू = सुन्दर / खूबसूरत
[*] इस ग़ज़ल में 'उस' का सन्दर्भ:
पूछने वाला मेरे अंदर का भौतिक व्यक्ति
जवाब देने वाला मेरे अंदर का क्रियात्मक व्यक्ति
नवीन सी चतुर्वेदी
Tuesday, November 16, 2010
एक कविता मृत्यु के नाम
तेरा स्वागत करूँगा
किन्तु मत आना
कि जैसे कोई बिल्ली
एक कबूतर की तरफ
चुपचाप आती
फिर झपट्टा मरती है यकबयक ही
तोड़ गर्दन
नोच लेती पंख
पीती रक्त उसका
मृत्यु तुझको
आना ही अगर है पास मेरे
तो ऐसे आना
जैसे एक ममतामयी माँ
अपने किसी
बीमार सुत के पास आये
और अपनी गोद में
सिर रख के उसका
स्नेह से देखे उसे
कुछ मुस्कुरा कर
फिर हथेली में
जगत का प्यार भर कर
धीरे से सहलाये उसका तप्त मस्तक
थपथपा कर पीर
कर दे शांत उसकी
और मीठी नींद में
उसको सुला दे
मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना
किन्तु मत आना
कि आता चोर जैसे
और ले जाता
उमर भर क़ी कमाई
तू दबे पाँव ही आना चाहती है
तो ऐसे आना
जैसे कोई भोला बच्चा
आके पीछे से अचानक
दूसरे की
अपने कोमल हाथ से
बंद आँख कर ले
और फिर पूछे
बताओ कौन हूँ मैं ?
तू ही बता
वह क्या करे फिर
मीची गई हैं आँख जिसकी
और जिससे
प्रश्न यह पूछा गया है
है पता उसको
कि किसके हाथ हैं ये
कौन उसकी पीठ के पीछे खड़ा है
किन्तु फिर भी
अभिनय तो करता है
थोड़ी देर को वह
जैसे बिल्कुल
जानता उसको नहीं है
और जब बच्चा वह
खुश होता किलकता
सामने आता है उसके
क्या करे वह ?
खींच लेता अंक में अपने
पकड़ कर
एक चुम्बन
गाल पर जड़ देता उसके
मृत्यु
तू भी इस तरह आये अगर तो
यह वचन है
तुझको कुछ भी
यत्न न करना पड़ेगा
मै तुझे
खुद खींच लूँगा
पास अपने
और
ऊँगली थाम
तेरी चल पडूँगा
तू जहाँ
जिस राह पर भी ले चलेगी
मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना
Monday, November 8, 2010
२ गजलें
हर शख्श है लुटा- लुटा हर शय तबाह है
ये शह्र कोई शह्र है या क़त्ल-गाह है
जिसने हमारे खून से खेली हैं होलियाँ
हाकिम का फैसला है कि वो बेगुनाह है
ये हो रहा है आज जो मजहब के नाम पर
मजहब अगर यही है तो मजहब गुनाह है
हम आ गए कहाँ कि यहाँ पर तो दोस्तों
रोशन- जहन है कोई, न रोशन निगाह है
दह्शतजदा परिंदा जो बैठा है डाल पर
यह सारे हादसों का अकेला गवाह है
मेरी ग़जल ने जो भी कहा, सब वो सच कहा
ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह है
ये शहरे सियासत है यहाँ आजकल 'अनिल'
इंसानियत की बात भी करना गुनाह है
(२)
आप दिल के भी समंदर होते, तो अच्छा होता
बिन मिले तुमसे मैं लौट आया, कोई बात नहीं
फिर भी कल शाम को तुम घर होते, तो अच्छा होता
माना फनकार बहुत अच्छे हो तुम दोस्त मगर
काश इन्सान भी बेहतर होते , तो अच्छा होता
हम से बदहालों, नकाराओं, बेघरों के लिए
काश फुटपाथ ये बिस्तर होते, तो अच्छा होता
मैं जिसमे रहता भरा ठन्डे पानियों की तरह
आप माटी की वो गागर होते, तो अच्छा होता
यूं तो जीवन में कमी कोई नहीं है, फिर भी
माँ के दो हाथ जो सर पर होते, तो अच्छा होता
तवील रास्ते ये कुछ तो सफ़र के कट जाते
तुम अगर मील का पत्थर होते, तो अच्छा होता
तेरी दुनिया में हैं क्यूं अच्छे- बुरे, छोटे- बड़े
सारे इन्सान बराबर होते तो, अच्छा होता
इनमें विषफल ही अगर उगने थे हर सिम्त 'अनिल'
इससे तो खेत ये बंजर होते , तो अच्छा होता
-कुमार अनिल
Saturday, November 6, 2010
कैसे भूलूँ बचपन अपना
उस आँचल के नीचे मेरा ब्रह्माण्ड सकल हो जाता था
अब जाकर कहाँ हँसूं किलकूं , गलबहियां डाल कहाँ झूलूँ
Thursday, September 23, 2010
तुम्हारे बिना अयोध्या
तुम्हारी अयोध्या मैं कभी नहीं गया
वहाँ जाकर करता भी क्या
तुमने तो ले ली
सरयू में जल समाधि.
अयोध्या तुम्हारे श्वासों में थी
बसी हुई थी तुम्हारे रग-रग में
लहू बन कर .
तुम्हारी अयोध्या जमीन का
कोई टुकड़ा भर नहीं थी
न ईंट गारे की बनी
इमारत थी वह.
अयोध्या तो तुम्हारी काया थी
अंतर्मन में धड़कता दिल हो जैसे .
तुम भी तो ऊब गए थे
इस धरती के प्रवास से
बिना सीता के जीवन
हो गया था तुम्हारा निस्सार
तुम चले गए
सरयू से गुजरते हुए
जीवन के उस पार.
तुम गए
अयोध्या भी चली गई
तुम्हारे साथ .
अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खौफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते .
तुम्हारे बिना अयोध्या
तुम्हारी अयोध्या नहीं है
वह तो तुम्हारी हमनाम
एक खतरनाक जगह है
जहाँ से रुक -रुक कर
सुनाई देते हैं
सामूहिक रुदन के
डरावने स्वर.
राम !
मुझे माफ करना
तुम्हारे से अलग कोई अयोध्या
कहीं है इस धरती पर तो
मुझे उसका पता मालूम नहीं .
Wednesday, August 11, 2010
फिलहाल स्त्री विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है: विभूतिनारायण राय
राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?
- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।
लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई…
- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। फिर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।
तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अधिकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रियों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।
देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?
-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।
हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण….
-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।
क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?
-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।
हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण नमो अंधकारम् नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्र है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?
बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?
-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है…जितनी अधिक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।
महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।
पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है
-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।
क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?
-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-फोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और फक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार फिर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और फरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अधिकार है।
यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाबद्ध शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।
-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कु) कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।
Monday, August 9, 2010
कहे पर शर्मिंदा : बहस की अपेक्षा
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।
Friday, August 6, 2010
जिसकी उतर गई लोई, उसका क्या करेगा कोई
Wednesday, August 4, 2010
बाघखोर आदमी ........
घटती जा रही है
विडालवंशिओं की जनसंख्या
भौतिकता की निरापद मचानों पर
आसीन लोग
कर रहे हैं स्यापा
छाती पीट-पीट कर
हाय बाघ; हाय बाघ.
हे बाघ! तुम्हारे यूं मार दिए जाने पर
दुखी तो हम भी हैं
लेकिन उन वनवासिओं का क्या
जिनका कभी भूख तो कभी कुपोषण
कभी प्राकृतिक आपदा
कभी-कभी किसी आदमखोर बाघ
उनसे बचे तो
बाघखोर आदमी के हाथ
बेमौत मारा जाना तो तय ही है.
चिकने चुपड़े चेहरे वाले
जंगल विरोधी लोग
गोलबंद हैं सजधज के
बहा रहे हैं
बाघों के लिए नौ-नौ आँसू.
बस बचा रहे मासूमियत का
कोरपोरेटीय मुखौटा
बाघ बचें या मरें वनवासी
इससे क्या?
Sunday, August 1, 2010
नाम की नदी
नदी के नाम से
पर बिना जल के भी
कोई नदी होती है भला.
कभी रही होगी वह
एक जीवंत नदी
आकाश की नीलिमा को
अपने आलिंगन में समेटे
कलकल करते जल से भरपूर.
तभी हुआ होगा इसका नामकरण
समय की धार के साथ
बहते-बहते वाष्पित हो गया
नदी का जल .
और बादलों ने भी
कर लिया नदी से किनारा
सभी ने भुला दिया नदी को
बस नाम चलता रहा.
अपनों की बेरुखी देख
सूख गई नदी .
अब नदी कहीं नहीं
केवल नाम भर है
जिसमे बहता है
पाखण्ड, धर्मान्धता और स्वार्थ का
हाहाकारी जल .