Sunday, December 13, 2009

भगवान के दर पर अंधेर

भगवान के दर पर यह कैसा पुण्य?
तीर्थों पर जब मैं हांफते, सहमते और अनायास ही जेब ढीली करते यात्रियों को देखता हूं, तो एक दर्द सवाल दागता है...तीर्थ क्यों? क्या हम तीर्थ पर केवल जेब खाली करने के लिए आए हैं? यह कैसी पुण्य नगरी, जहां लोग पाप से डरते नहीं। किसी को लूटना, नाजायज पैसे लेना और उनको ठगना भी इसी पाप की श्रेणी में आता है। लेकिन सभी धर्मस्थलों का एक सा ही हाल हो चला है। हजारों और लाखों यात्री आते हैं। धर्म की बैसाखियां उनके पैरों मेंं जंजीर बनकर रह जाती हैं। बस या रेल से उतरे नहीं, कि लुटाई का सिलसिला चल पड़ता है। लोगों के मुंह से शायद यही निकलता है, इससे अच्छे तो हम अपने शहर में भले थे? ऐसा क्यों?
गरमियों की छुट्टियां पड़ते ही लोगों की भीड़ तीर्थों पर निकल पड़ती है. अपनी-अपनी इच्छाओं के मुताबिक लोग यात्रा पर जाते हैं। जिन इच्छाओं को लेकर वे जाते हैं और जिस शांति और पुण्य की तलाश उनको होती है, वह शायद ही इस यात्रा में उनको मिलती है। किसी भी तीर्थ पर चले जाइये, पैसे के बिना पुण्य नहीं। जितना पैसा उतनी पुण्य की कामना। जितना घी उतनी धर्म की लौ तेज। ऐसा क्यों? हमको यह सच्चाई मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि अब धर्म भी एक बाजार की शक्ल ले चुका है। धर्म को हम धर्म के धरातल से कहीं दूसरे स्थान पर ले आए हैं। निस्वार्थ भावना का कोई मोल नहीं है। माया-मोह से विरक्ति की बात अब केवल कथा-प्रसंगों तक ही सीमित रह गई है। कथा वाचक भी जानते हैं कि माया-मोह नहीं होगा तो कथाएं कैसे मिलेंगी। सरयु और गंगा के तट पर कौन कथा कहे? हरेक को विशाल पंडाल चाहिए। उसमें भी सभी कुछ तो कथा महाराज का है. पांच प्रमुख आयोजनों के चढ़ावे तो विशुद्ध रूप से कथा व्यास के पास ही जाते हैं। शेष राशि आयोजकों के पास आती है। इनपुट और आउटपुट यहां भी देखा जाता है। महाराज जी के चेहरे का तेज विदेशी क्रीम से चमकता है। सबकुछ आयातित। हमारी भावना...विश्व का कल्याण हो।
लाखों रूपये में होने वाली इन कथाओं का प्रचलन जिस तेजी से राम मंदिर आंदोलन के बाद बढ़ा था, उतना ही ठंडा भी हो गया। चैनलों ने धर्म को खूब भुनाया। ट्रेंड बदला तो योग छा गया। अब यह भी उतार पर है। लेकिन शनि की कृपा से चैनलों का भाग्य चमक रहा है। लेकिन नहीं है। तीर्थों की यात्रा दुश्वारियों से प्रारंभ होती है। हांफते यात्री किसी कोने की तलाश में आपको हर जगह मिल जाएंगे। यात्रियों के लिए शेड नहीं। शौचालय नहीं तीर्थ-धाम पहुंचे तो लंबी-लंबी कतारें। वीआईपी की लाइन। भगवान के दर पर भी वीआईपी। पुण्य तो जैसे इनके ही भाग्य में लिखा है। बाहर इंतजार करती भीड़। अंदर होती विशेष पूजा। विशेष पूजा भी सभी के लिए नहीं। जितना चढ़ावा, उतनी पूजा। असहाय भक्तों के हाथ में सिर्फ एक फूल। फूलमाला भी विशेष के लिए ही। आमभक्त तो यही मान लेते हैं कि भगवान के दर्शन हो गए। जियारत हो गई। भगवान सबके हैं तो सभी के लिए क्यों नहीं। केदारनाथ धाम में वीआईपी को लेकर झगड़ा हो चुका है। व्यवस्था में कुछ परिवर्तन किया गया है लेकिन इससे व्यवस्था में कुछ सुधार होगा, लगता नहीं। यह तो हमको ही तय करना होगा कि भगवान के दर पर हम भक्तों को वीआईपी मानें या उनको आम जनता ही मानकर छोड़ दें।
यह कहना समुचित ही होगा कि प्राय: सभी धर्मस्थलों की हालत एक सी है। पूजा की बात हो या जियारत की बात। मंदिर हों या दरगाह। हाल सभी का एक सा है। भिखारियों की लंबी कतारें। मजबूरी का फायदा उठाते लोग। जेब काटने वालों की भीड़। व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता ऐलान कि यात्रीगण अपने सामान, पर्स और मोबाइल की सुरक्षा स्वयं करें। अगर ऐलान किया जा रहा है तो इसका मतलब है कि शरारती तत्वों की जानकारी सभी को है। धर्म स्थलों के संचालकों को भी और पुलिस-प्रशासन को भी। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। माना कि दान देना पुण्य है लेकिन हृष्ट-पुष्ट लोगों को दान देकर उनको भिखारी या फकीरों की श्रेणी में शामिल करना घोर पाप है। सभी धर्मों में। धर्मों में कहा गया है कि दान देने से पहले हम अच्छी प्रकार देख लें कि कहंीं हम उनको भिखारी या फकीर तो नहीं बना रहे हैं। दान सुपात्र को दो और ज्ञान सुपात्र से लो। यह सीख तो बहुत पुरानी है। फिर, धर्मस्थल इससे अलग क्यों जा रहे हैं?
इस लेख का मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है, लेकिन हमको यह तो देखना ही होगा कि धर्म स्थलों पर हम भक्तों की भीड़ को देते क्या हैं? वह हमारे धर्मस्थलों के बारे में क्या छवि लेकर जा रहे हैं? विदेशियों को हम भक्तों की श्रेणी में नहीं रखते। उनको पर्यटक मानते हैं। गंगा के तट पर उनसे अनुष्ठïान कराए जाते हैं(या वे स्वयं करते हैं।) केवल इसलिए कि वे जानें कि हमारी सभ्यता और संस्कृति कितनी पुरानी है। लेकिन जब इन विदेशियों को हरिद्वार में गंगा आरती देखने के लिए हिंदुस्तानी कल्चर का सामना करना पड़ता है तो इन पर क्या बीतती होगी? हजारों की भीड़ और व्यवस्था बौनी।
महंगाई के इस दौर में असली महंगाई (इसको आप महंगाई भी नहीं कह सकते) तो तीर्थ और धर्मस्थलों पर है। कर्मकांड से लेकर साधारण पूजा तक, अंतिम संस्कार से लेकर वार्षिक श्राद्ध (गंगा के तटों पर) तक, खान-पान से लेकर पूजा के सामान तक हरेक के दाम दसवें आसमान पर। अनलिमिटेड प्रोफेट। कोई अंकुश नहीं। कोई पहल नहीं।
दूर-दूरस्थ स्थानों से आने वाले यात्री जेब हल्की करने नहीं आते। वह पुण्य लाभ और भगवान के दर्शन करने आते हैं, हम उनको देते क्या हैं? यहां चढ़ाओ-यहां चढ़ाओ? धर्मस्थलों की संचालन समितियां और सरकारी कोष मालामाल हैं मगर भक्तों का हाल बेहाल। सड़क, सफर, सुरक्षा, सुविधा और संसाधन कुछ भी तो नहीं। कदम-कदम पर हादसे। कदम कदम पर पैसा निकालने की तरकीबें।
-सूर्यकांत द्विवेदी

Friday, November 20, 2009

....सुनो सुनो गन्ने का गम

हम गुड़ और चीनी खाते हैं। शराब पीते हैं। कागजों पर लिखते हैं। लेकिन गन्ने को नही समझते। जिस फसल में मिठास है, नशा है और साक्षात लक्ष्मी व सरस्वती का वास है, उस फसल की यह तौहीन। समझ से परे है. इसी दशहरे की बात है। गन्ने का पूजन होना था। बाजार गया। एक गन्ना पांच रूपये का मिला। चीनी लेने निकले तो 36 रूपये किलो थी। एक क्विंटल गन्ने में करीब दो सौ गन्ने चढ़ते हैं। हिसाब लगाया तो एक हजार रूपये क्विंटल कीमत बैठी। चीनी 3600 रूपये क्विंटल थी। सुना है,कागज के दाम भी आसमान छू रहे हैं। पेपर मालिक सरकार से इस पर रियायत मांग रहे हैं। सरकार का इरादा भी है। हो सकता है कि करम हो जाए।
मैं बता दूं कि मैं किसान परिवार से नहीं हूं। लेकिन गन्ना किसानों का दर्द करीब से देखा है। जब केंद्र सरकार ने गन्ने की कीमत 130 (129.84 रूपये) लगाई तो सोच में पड़ गया। किसान क्या बोएगा, क्या कमाएगा और क्या खाएगा। अगर वह पटरी पर गन्ना बेचे तो भी शायद उसको उचित दाम मिल जाए। लेकिन सरकार तो देने से रही। सरकार ने यह कीमत किस आधार और किस मानक से लगाई है, समझ से परे है। फुटकर में गन्ना एक हजार रूपये क्विंटल और चीनी 3600 रूपये क्विंटल। और गन्ना 130 रूपये। फिर भी नारा-जय किसान। जितना सस्सा गन्ना है, उतना सस्ता तो इंसान भी नहीं। किसान की पीड़ा पर हम मौन क्यों हैं। हम उसको अपना क्यों नहीं समझते। हम उसको वाजिब मूल्य देने से क्यों कतराते हैं। हम मकान बेचते हैं तो अपनी संपत्ति की कीमत खुद लगाते हैं। सरकार ने सर्किल रेट तय कर रखे हैं। इस पर रजिस्ट्री तो होती है लेकिन क्रय-विक्रय नहीं होता। यह सरकार की संपत्ति का भी हाल है। बाजार में जाते हैं तो हम नही कहते कि लाला जी, तुम्हारे माल की कीमत यह है। हम मोलभाव अवश्य करते हैं। हम अपना लाभ देखते हैं और व्यापारी अपना लाभ देखता है। परता खाया तो सौदा पट जाता है। लेकिन गन्ना किसान बोता है, उसके माल की कीमत सरकार लगाती है। चंद चीनी मिल मालिक और उनके पिछलग्गू नेता तय करते हैं कि किसान की फसल की कीमत क्या हो। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां चंद लोग ही आवाम का फैसला करते हैं। ओबामा मे पूरी दुनिया का अक्स देखने लगते है। आसमान सिर पर उठा लेते हैं। अपनों को गिरा देते हैं। सागर में मोती नहीं तलाश करते। मोती हाथ लग जाए तो उससे ही पूछते हैं...सागर कितना गहरा है। पूरे देश में मिल मालिक दो सौ से अधिक नहीं होंगे। कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे राजनीतिक दलों की भी तादाद इससे अधिक नहीं होगी। लेकिन यह हमारे भाग्य निर्माता हैं। मुश्किल यह है कि अपने देश में 15फीसदी लोग 85 फीसदी लोगों का भाग्य तय करते हैं। कहा जाता है कि इंसान का भाग्य भगवान लिखता है और किसान अपना भाग्य खुद लिखता है। यानी भगवान ने भी किसान को भगवान ही माना है। लेकिन कया यह हकीकत है।
कुछ और कड़वी हकीकत देखिए। गुड़ और चीनी का निर्माता किसान गन्ना बेचने के बाद हमारे और आपकी तरह एक उपभोक्ता ही है। वह बाजार से उसी मोल से चीनी और गुड़ लाता है, जो आप लाते हैं। उनको रियायत नहीं होती। लेकिन मिल मालिक के घर इस मोल से चीनी नहीं आती। उसके तो घर का माल है। अगर चीनी उसका घर का माल है तो गन्ना किसान का घर का माल क्यों नहीं है। जब और लोग अपने माल की कीमत खुद लगा सकते हैं तो किसान को यह अधिकार क्यों नहीं है। सरकार ने फसलों के दाम तय करने के लिए आयोग बनाए, लेकिन क्या रेट इनकी सिफारिशों से तय होते हैं। अपने देश मे गन्ने का दाम लगाते हैं-शरद पंवार। कृषि मंत्री। जिनकी खुद की चीनी मिले हैं। किसान राजनीति पर आइये। किसान राजनीति के मुद्दे पर समूचा विपक्ष एक है। जिनको गन्ने की समझ है, वे भी और नासमझ भी। उनको किसान एक वोट बैंक के रूप में दिख रहा है। दिखता रहा है और आगे भी दिखता रहेगा।
भारतीय किसान यूनियन के उदयकाल मे किसानों को उम्मीद जगी थी कि अब अऱाजनैतिक यह संगठन उनकी मदद करेगा। महाभारत का दृष्टांत देखिए। अर्जुन जब रणक्षेत्र मे था तो वह आवाक सा था। कृष्ण ने पूछा-क्या देख रहे हो। अर्जुन ने कहा-सोच रहा हूं। कौन अपना है कौन पराया। किसको मारना है और क्यों मारना है। यह सभी तो अपने हैं। किसानों के साथ भी यही तो हुआ। जिनको उसने अपना समझा, वह कौरव निकले। टिकैत को भी राजनीति का चस्का लग गया। अब तो वह अपने बेटे राकेश टिकैत को एडजेस्ट करने में लगे हैं। टिकट नहीं मिला तो बगावत। सम्मान नहीं मिला तो बगावत। भाकियू का किसान खो गया। दिल्ली में चार दिन धरना दिया, लेकिन भीड़ लायी गई पूर्वांचल से। पश्चिम को क्या हुआ। नहीं पता। जैसी भीड़ कभी टिकैत के साथ देखी जाती थी, वह चौधरी अजित सिंह के साथ हो ली। हाईफाई पालिटिकल ड्रामा हुआ। धरने पर विपक्षी नेता आए। कुछ दूर रहे। कुछ संसद में रहे। शोर हुआ। हंगामा हुआ। भाषण हुए। दिल्ली हिली। दिल्ली डोली। दिल्ली बोली-देखेंगे। विजयमुद्रा में किसान लौट आया। मांगने गया था दाम। बात खत्म हो गई एफएंडआरपी पर। अजित सिंह भी खुश। ताकत दिखा दी। रालोद के कांग्रेस में विलय की बात कहने वालों को झटका दे दिया। कांग्रेस को अहसास दिला दिया कि रालोद में कितनी ताकत है। अजित पहली बार लीडर की शक्ल में थे। उनके पीछे थे मुलायम सिंह। टीवी (धरने पर नही) पर थे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। मानो पूरा विपक्ष एक था। लेकिन....यक्ष प्रश्न अपनी जगह है-गन्ना किसान को क्या मिलेगा। 280, 250, 225, 200 या बोनस के साथ सिर्फ 180 रूपये। यह अभी तय नहीं। हो सकता है कि इस आंदोलन के बाद अजित या जयंत मंत्री बन जाएं लेकिन वजीरों की वजारत में क्या गारंटी कि किसान फकीर नहीं बनेगा। उसको वाजिब दाम मिलेगा।
सचमुच....किसान हर दम हारा। हर दिन रीता।
सूर्यकांत द्विवेदी

Friday, November 6, 2009

कलम से क्रिकेटर थे प्रभाष जी

सचिन की क्रिकेट को प्रभाष जी ने करीब से देखा। स्‍कूल जाने वाले किशोर सचिन प्रभाष जी के लिए हमेशा दुलारे और आकर्षण का केंद्र रहे लेकिन जिस दिन सचिन सत्‍तरह हजारी हुए उस दिन प्रभाष जी सचिन के आउट होने के बाद गिरते विकटों को देख न सके। पत्रकारिता को नई ऊंचाईयां देने वाले प्रभाष जोशी का निधन एक ऐसी क्षति है जिसे पूरा करना असंभव है। इर्द-गिर्द में उन्‍हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं सूर्यकांत द्विवेदी
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प्रभाष जोशी नहीं रहे, यह केवल खबर नहीं है। उनका अवसान पत्रकारिता औरसाहित्य दोनों के लिए ही क्षति है। प्रभाष जोशी को जनसत्ता में पढ़ते औरसमारोह में सुनते हुए बहुत कुछ सीखने और समझने का अवसर मिला। छोटे छोटेवाक्य, शब्दों का अनूठा प्रयोग और लाजवाब कथ्य-शिल्प प्रभाष जोशी की हीदेन कही जा सकती है। अस्सी के दशक से पहले पत्रकारिता में वाक्य बड़े औरभाषा क्लिष्ट रखी जाती थी। लेकिन प्रभाष जोशी ने आम बोलचाल की भाषा कोअपनाया। उनका सीधा सा संदेश था कि पाठक जिस भाषा को समझता और बोलता है,वही पत्रकारों की भी भाषा होनी चाहिए। शायद यही कारण है कि यह प्रयोगउन्होंने क्रिकेट से प्रारंभ किया। अजहरुद्दीन की लगातार तीन सेंचुरी परउनकी कलम से लिखा गया-अजहर तेरा नाम रहेगा। कपिल देव जब उत्कर्ष पर थे,तो उनको प्रभाष जोशी ने अपने स्वर्ण-शब्द दिए। लेकिन जब कपिल देव अपनीबालों से कहर नहीं बरपा रहे थे और एक भी विकेट नहीं ले पा रहे थे तोप्रभाष जोशी ने उनको टीम से बाहर करने की भी पैरवी की। उन्होंने कहा किअपना अग्रणी बालर और कप्तान क्या पुछल्लों के ही विकेट लेता रहेगा।उल्लेखनीय है कि उस वक्त तक निचले क्रम के बल्लेबाजों के लिए पुछल्लेशब्द का प्रयोग नहीं होता था। प्रभाष जोशी ने यह नया नाम दिया। ब्लू स्टार आपरेशन के समय तो राजेंद्र माथुर (संपादक नवभारत टाइम्स) औरप्रभाष जोशी में संपादकीय द्वंद्व हुआ। एसा द्वंद्व इसके बाद देखने कोनहीं मिला। प्रेशर कुकर और चश्मे को प्रतीक मानकर दोनों संपादकीय में एकदूसरे के सवालों का जवाब देते रहे। मसलन, प्रभाष जोशी ने लिखा कि कुकरसीटी-पर-सीटी दे रहा है तो उससे फटने में देर नहीं लगेगी। राजेंद्र माथुरने लिखा-हर चीज की एक ताप होती है। प्रेशर कुकर में पकने वाली चीज की तापतय होती है। फटने का मौका ही क्यों दें। हर चीज तो प्रेशर कुकर में नहींपक सकती। इसके बाद चश्मे पर वह केंद्रित हो गए। कुल मिलाकर उस वक्तसंपादकीय में जो गुणवत्ता और विचारों का आदान-प्रदान देखने को मिला, वैसाअब कहां। पत्र कालम मे बहस करायी जाती थी। हमको याद है कि मेरठ में एकसिनेमाघर के क्लर्क ने प्रभाष जोशी के लेख पर टिप्पणी की--इंदिरा गांधीकी हत्या पर समस्त सिख समाज को शक के दायरे में ला दिया गया है। उनको शककी नजर से देखा जा रहा है। क्या यह उचित है। नाथूराम गोडसे ने महात्मागांधी की हत्या की थी, फिर क्या हिंदू समाज शक के दायरे में नहीं आनाचाहिए। इस पत्र पर प्रभाष जोशी ने संपादकीय पृष्ठ पर लंबा लेख लिखा। उसवक्त हम लोगों का अखिल भारतीय पत्र लेखक मंच हुआ करता था। हमने पत्रलिखे-प्रभाष जी, यह तो कोई बात नहीं हुई। आपको भी चौपाल (पत्र स्तंभ) मेंआकर उतनी शब्द-सीमा में जवाब देना चाहिए, जितना उस लेखक को आपने स्थानदिया। आखिरकार, प्रभाष जोशी चौपाल में आए और पत्र का जवाब दिया। जितनीपंक्तियां उस पत्र लेखक की छापी गई थी, उतनी ही प्रभाष जी ने लिखी। यहबात अलग है कि उसके बाद हमारा अखिल भारतीय पत्र लेखक मंच काली सूची मेंडाल दिया गया। यह प्रभाष जोशी की सहजता और पाठकों की बात की स्वीकार्यताही थी। एसे लोग विरले ही होते हैं जो आलोचना को भी सहजता से लेते हैं।एक और संस्मरण याद आता है। इंदिरा गांधी के देहावसान के समय प्रभाष जोशीजी ने अपने लेख में नमनांजलि शब्द का प्रयोग किया। उधेड़बुन में लगनेवाले हम जैसे पत्र लेखकों ने प्रभाष जोशी जी को लिखा-यह शब्द का प्रयोगगलत है। नमन करोगे तो अंजलि कहां से बन जाएगी। प्रभाष जोशी ने इस शब्द कोवापस ले लिया। लेकिन भाषा को सर्वग्रह्य बनाने मे प्रभाष जोशी जी का कोईजवाब नहीं दिया। जब भी लिखा, बेबाक लिखा-चाहे वह इंदिरा गांधी हों यावीपी सिंह या नरसिम्हाराव। राजीव गांधी के दो शब्दों हमे देखना है और हमदेखेंगे का उन्होंने शाब्दिक चित्रण किया और राजीव को भविष्य का भारतकहा। आज, राहुल गांधी को देखकर लगता है, यह बात तो प्रभाष जोशी ने काफीपहले लिख दी थी। लेखन और वो भी क्रिकेटीय लेखन के तो वह मास्टर थे ही,हैडिंग्स के भी वह मास्टर थे। चुटीले और सीधी मार करने वाले हैडिंग्सदेने में उनका कोई सानी नहीं था। बेबाक, बेखौफ और बेलाग लिखने वालेप्रभाष जोशी चूंकि क्रिकेट में काफी मजबूत पकड़ रखते थे, इसलिए राजेंद्रमाथुर जी को शरद जोशी का सहारा लेना पड़ा था। व्यंग्यकार शरद जोशी केक्रिकेटीय व्यंग्य बेजोड़ होते थे।विश्वास नही हो रहा कि प्रभाष जोशी जी चले गए। भारत-आस्ट्रेलिया मैचदेखते हुए उनको दिल का दौरा पड़ा होगा। शायद, अंतिम ओवर का रोमांच प्रभाषजी को ले बैठा हो या सचिन की पारी देखते हुए उनको लंदन के सुनील गावस्करयाद आ गए हों। क्या कहा जा सकता है। प्रभाष जोशी जी आपको प्रणाम। आप बहुतयाद आओगे।

Sunday, October 25, 2009

ये सच तो डरावना है

देश में सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत को सात साल पूरे होने को हैं। अभियान की सफलता का श्रेय लेने के लिए केंद्र-राज्‍य सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरकारे डंका पीट-पीट कर बता रही हैं कि अब 14 साल तक हर बच्‍चा स्‍कूल में है। पर, उत्‍तराखंड में सर्वशिक्षा अभियान के बारे में अचानक एक ऐसा कड़वा सच सामने आ गया कि जिसे स्‍वीकार करना आसान कतई नहीं है। यह 'सच' अनायास ही उस वक्‍त सामने आया जब उत्‍तराखंड की सरकार यह पता लगाने चली कि सरकारी स्‍कूलों से कितने मास्‍साब गायब हैं। मास्‍टर गायब मले तो उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो गई, जो दूसरा सच उजागर हुआ उससे भौचक्‍की है।
पता ये चला कि कागजों में जो पंजीकरण दिखाया गया स्‍कूलों में वे बच्‍चे हैं ही नहीं। प्रदेश भर में औसत मिसिंग 20 प्रतिशत मानी गई। आंकड़े डरावने हैं क्‍योंकि यह मिसिंग राजधानी दून में 60 प्रतिशत और हरिद्वार जैसे संपन्‍न जिले में 50 प्रतिशत है। तीसरे मैदानी जिले उधमसिंह नगर में भी 25 प्रतिशत बच्‍चे नहीं हैं। प्रदेश में एक महीने से इन बच्‍चों की तलाश हो रही है, लेकिन ये नहीं मिले। सरकार भी परोक्ष तौर पर ये मान चुकी है कि नहीं मिलेंगे, क्‍योंकि संख्‍या बढ़ाने के लिए इनकी आड़ में करोड़ों का भ्रष्‍टाचार कर फर्जीवाड़ा हुआ है।
इस स्थिति के साथ कई गंभीर बातें जुड़ी हैं। कक्षा आठ तक के स्‍कूलों में 19 लाख बच्‍चों के आंकड़े के दम पर उत्‍तराखंड सरकार शिक्षा के क्षेत्र में दक्षिण भारत की बराबरी का दावा कर रही है। यदि स्‍कूलों में 20 प्रतिशत यानी करीब पौने चार लाख बच्‍चे फर्जी हैं, तो इससे साफ है कि असली बच्‍चे स्‍कूलों के बाहर हैं और वे अनपढ़ हैं। इसके साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि जिस अभियान को आगामी मार्च में शत-प्रतिशत सफल घोषित किया जाना था वह पौने चार लाख फर्जी बच्‍चों के साल किस आधार पर सफल कहलाएगा?
एक अन्‍य सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्‍या में बच्‍चों का फर्जी पंजीकरण कैसे हुआ। दरअसल, धांधली पंजीकरण में दोहराव के जरिए हुई। एक बच्‍चे को अलग-अलग नामों से प्राइवेट स्‍कूलों, मदरसों, आंगनबाड़ी में पंजीकृत किया गया। इसके पीछे मकसद इन छात्रों के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति, मिड डे मील, ड्रेस, कॉपी-किताबों की धनराशि हड़पने का था। इन बच्‍चों को उत्‍तराखंड सरकार एक साल में 34 करोड़ की छात्रवृत्ति बांटती है और 20 प्रतिशत छात्र फर्जी होने के नाम पर सरकार को 7 करोड़ रूपये का चूना लगाया गया। इसी तरह किताबों के सेट तथा मिड डे मील की व्‍यवस्‍था पर सरकार द्वारा रोज ढाई रूपया प्रति बच्‍चा खर्च किया जाता है। पता ये चला कि पूरे साल में मिड डे मील में करीब 16-17 करोड़ रूपये का फर्जीवाड़ा हुआ। वजीफे, मिड डे मील और किताबें, तीनों मदों की यह राशि हर साल 28-30 करोड़ हो रही है यानी सात साल के अभियान में 2 अरब का घोटाला। अकेले उत्‍तराखंड के संदर्भ में यह राशि 200 करोड़ पंहुच रही है तो एक पल के लिए सोचिए कि पूरे देश के मामले में यह घोटाला कितना बड़ा होगा?
चूंकि यह सारी पड़ताल उत्‍तराखंड सरकार ने खुद कराई इसलिए इसे यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह विश्‍वसनीय नहीं है। अगर उत्‍तराखंड में इस अभियान की सफलता का सच इतना कड़वा है, तो देश के बाकी राज्‍यों खासकर बिहार, उत्‍तर प्रदेश, झारखंड, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़ में स्थिति क्‍या होगी; इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इन राज्‍यों में तो सरकारी अमला इस कदर हावी होता है कि वहां सरकारी अभियान सिर्फ कागज का पेट भरने के लिए चलते हैं। सवाल यह भी है कि क्‍या उत्‍तराखंड क पड़ोसी राज्‍यों हिमाचल, यूपी, हरियाणा, जम्‍मू एंड कश्‍मीर में ऐसा नहीं हुआ होगा? यदि दूसरे राज्‍यों में भी यही प्रतिशत दोहराया गया हो (जिसकी पूरी आशंका है) तो क्‍या सर्वशिक्षा अभियान को सफल मान लिया जाना चाहिए? उत्‍तराखंड का उदाहरण किसी न किसी स्‍तर पर इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि एसएसए के समापन से पहले देशभर में छात्रों की वास्‍तविक स्थिति की जांच हो। आखिर फर्जी आंकड़ों से तो देश की नई पीढ़ी का भला नहीं हो सकता।
यह सामान्‍य मामला इसलिए नहीं है क्‍योंकि यह सीधे तौर पर नई पीढ़ी के साथ धोखा है। उनके भविष्‍य के साथ खिलबाड़ है। जिन शिक्षकों पर देश की नई पीढ़ी को गढ़ने-संवारने, देश को योग्‍य नागरिक देने का जिम्‍मा है यदि वे फर्जी छात्रों की आड़ में वजीफे की राशि, मिड डे मील, किताबों के सैट और छात्रों के काम आने वाली अन्‍य शैक्षिक सामग्री को ठिकाने लगें, तो सोचिए आम लोगों का भरोसा किस कदर टूटेगा। उत्‍तराखंड के उदाहरण से कम से कम इस बात का साफतौर पर पता चलता है कि इस सारे मामले में शिक्षकों की संलिप्‍तता है। आपराधिक इसलिए कि उन्‍होंने सरकारी पैसों की उन बच्‍चों पर खर्च दिखाया जो वास्‍तव में थे ही नहीं। ये साफ है कि उत्‍तराखंड के 25 हजार सरकारी स्‍कूलों में से ज्‍यादातर के हेडमास्‍टर इस घोटाले का हिस्‍सा रहे हैं। अब जाने-अनजाने उत्‍तराखंड ने तो इस काम को पूरा कर लिया, यदि दूसरे राज्‍य या केंद्र सरकार भी जाग जाए, तो शायद उन करोड़ों बच्‍चों का भला हो जाएगा, जो अब भी अनपढ़ हैं, स्‍कूल के बाहर हैं।

Monday, October 19, 2009

हैरतअंगेज

सात समन्‍दरों की
मिथकीय दूरी को लांघ
एक नाजुक से धागे का
या चावल के चंद दानों
और रोली का
बरस-दर-बरस
मुझ तक निरापद चला आना
हैरतअंगेज है!


खून से लबरेज
बारूद की गंध को
नथुनों में भरे
इस सशंकित सहमी दुनिया में
तेरे नेह का
यथावत बने रहना
हैरतअंगेज है!


दो संस्‍कृतियों की
सनातन टकराहट के बीच
सूचना क्रांति के शोरोगुल
और निजत्‍व के बाजार में
मारक प्रतिस्‍पर्धा के बावजूद
मानवीय संबंधों की उष्‍मा की
अभिव्‍यक्ति का
सदियों पुराना दकियानूसी तरीका
अभी तक कामयाब है
हैरतअंगेज है!


तमाम अवरोध हैं फिर भी
कुछ है जो बचा रहता है
किसी पहाड़ी नदी पर बने
काठ के पुल की तरह
जिस पर से होकर
युग गुजर गए निर्बाध
भावनाओं की आवाजाही की तकनीक
अबूझ पहेली है अब तक
हैरतअंगेज है!


मेरी बहन;
कोई कहे कुछ भी तेरे स्‍नेह-सिक्‍त
चावल के दानों से
प्रवाहित होती स्‍नेह की बयार का
तेरे भेजे नाजुक से धागे
के जरिए
मेरे मन के अतल गहराइयों में
तिलक बन कर सज जाना
बरस-दर-बरस
कम से कम मेरे लिए
कतई हैरतअंगेज नहीं है।

Friday, June 26, 2009

इंतजार में है धीमा जहर

गर्मी में जब आप घर से बाहर निकलते हैं तो प्‍यास लगती है। गला सूख जाता है। ठंडा पीने को मन करता है। लेकिन शीतल पेय के नाम पर मैंगो शेक, बेल का शर्बत या रसना के नाम पर परोसे जाने वाले पेय पदार्थों को पीने से पहले ये जान लीजिए कि कहीं आप धीमा जहर तो अपने पेट में नहीं उड़ेल रहे। क्‍या आपने कभी सोचा है कि तीन और पांच रूपये में बिकने वाले बेल के शर्बत पर मंहगाई की मार क्‍यों नहीं है? अट्ठाइस रूपये किलो चीनी और दस रुपये का बेलफल आपको मुफ्त के दामों में कैसे मिल रहा है। बाइस से तीस रूपये किलो के आम और चौबीस रूपये प्रति लीटर के दाम वाले दूध से बना मैंगो शेक पांच रूपये गिलास में कैसे बिक रहा है। खास बात ये है कि ये गोरखधंधा बस अड्डों, स्‍टेशनों या ऐसी जगह चलता है जहां मुसाफिरों की अच्‍छी-खासी तादाद रहती है। कचहरी या बस अड्डों के पास बिकने वाला पांच रूपये गिलास का मैंगो शेक हो या भीड़-भाड़ वाली जगहों पर रसना के नाम पर एक रूपये में बेचा जाने वाला मीठा शर्बत। इस तरह के सभी सस्‍ते ड्रिंक आपकी सेहत से खिलबाड़ कर रहे हैं।
बेल का शर्बत आयुर्वेदिक दवा भी है और ठंडा शर्बत भी। गर्मी में सूखते ओठ और गले को तर करने के लिए आपको तीन रूपये में यदि बेल का शर्बत मिले तो आप पानी की जगह वही पीना पसंद करेंगे। वैसे भी पेट और पेट से सं‍बंधित बीमारियों के लिए बेल का शर्बत फायदेमंद माना जाता है। लेकिन बाजार में मिलने वाला बेल के शर्बत में बेलफल नाम मात्र का होता है। आप कभी भी देखेंगे कि बेल के गूदे को पहले से तैयार एक सीरप में मिलाकर फेंटा जाता है। दरअसल पहले से तैयार ये घोल सेकरीन और अरारोट से मिलकर बनाया जाता है। बेल का ये शर्बत पेट में जाते ही आपको लगता है कि अंदर ठंडक गई लेकिन हकीकत ये है कि आप बेल का शर्बत नहीं बल्कि अपने पेट के अंदर बीमारियां धकेल रहे होते हैं। आपने कभी सोचा है कि इसके लिए जिम्‍मेदार कौन है। आप कहेंगे कि मिलावट करने वाले। लेकिन ये आधा सच है। जिम्‍मेदार आप भी हैं क्‍योंकि आप जानते हैं कि एक बेलफल फल की दुकान पर दस रूपये तक का मिलता है और चीनी के दाम तीस रूपये प्रति किलो के करीब हैं। अगर बेल के गूदे और चीनी के घोल से शर्बत बनेगा तो एक गिलास की लागत ही दस रूपये से ज्‍यादा बैठेगी। ऐसे में आप तीन या पांच रूपये खर्च कर जो बेल का शर्बत पी रहे होते हैं वह बिना गोलमाल के बन ही नहीं स‍कता।
ये कहानी सिर्फ बेल के शर्बत की नहीं है बल्कि खुले में बिकते किसी भी शीतल पेय की तरफ जब आप हाथ बढ़ाएंगे और सस्‍ते के लालच में आएंगे तो आपको धीमा जहर ही मिलेगा। पांच रूपये में मैंगो शेक हर शहर में मिलता है लेकिन उसमें होता है पपीता, एसेंश और सेकरीन का घोल। जब मैने एक मैंगो शेक बनाने वाले दुकानदार से बात की तो उसने माना कि इतने दाम में मैंगो शेक नहीं मिल सकता लेकिन उसने कहा कि वह ऐसा नहीं करता और मिलावट रहित मैंगो शेक बनाता है। क्‍या ये संभव है कि कोई व्‍यक्ति घाटे का कोई कारोबार करे। आप खुद सोचिए कि बीस से पच्‍चीस रूपये किलो आम और इसी भाव के चीनी और दूध से बना मैंगो शेक पांच रूपये में कैसे मिल सकता है। अगर आप खुले में सस्‍ता माल खरीदेंगे तो उसमें सड़ा-गला पपीता, ऐशेंस और सिंथेटिक पाउडर से बने दूध से तैयार मैंगो शेक ही मिलेगा जो आपके पेट की लुगदी बना देगा। इसी तरह कई प्रकार के शीतल पेय रास्‍ते में बिकते हैं और आप गर्मी से त्रस्‍त होने पर अपने को रोक नहीं पाते। कई जगह महंगाई के इस दौर में भी एक रूपये का शर्बत मिलता है। एक रूपये में तैयार रसना कह कर बेचे जाने वाले इस शर्बत में लागत आती है पचास पैसे और ये दिन भर में दो-ढाई सौ रूपये का मुनाफा कमा लेते हैं। यह शर्बत सेकरीन, रंग, कैमिकल दूध मिलाकर शर्बत तैयार होता है; बरना इतने पैसे में चीनी वाला शर्बत कैसे बन सकता है।
दरअसल हम असल लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में जीते हैं। इसलिए यहां मिलावटखोरों और धीमा जहर परोसने वालों को भी खुली छूट है और उस विभाग को भी आराम फरमाने की जिसपर ये जिम्‍मेदारी है कि वह उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करें जो खान-पान में मिलावट कर आम आदमी की सेहत के साथ खिलवाड़ करते हैं। आप अपने शहर में देखें या किसी दूसरे शहर में जाएं; आपको पांच रूपये की लस्‍सी, एक रूपये का रसना शर्बत, तीन रूपये में बेल का शर्बत या फलों का शेक बिकते हुए दिखाई दे जाएगा। लोगों की भीड़ भी होगी लेकिन ये आपके उपर है कि आप बीमारियां पीना चाहते हो या आपको अपनी सेहत से प्‍यार है।

Monday, May 4, 2009

बिन साजन कैसे बने सुहागन

डोली सजी। दुल्‍हनियां उड़ी। ससुराल पंहुची। स्‍वागत हुआ। लेकिन दूल्‍हे राजा गायब मिले। अब ससुरालियों के हाथ-पांव फूले हुए हैं कि दुल्‍हन बिन साजन सुहागिन कैसे रहेगी। पहले तो यही ढिंढोरा पिटता रहा कि दूल्‍हे राजा घर में ही हैं लेकिन शर्मा कर सामने नहीं आ रहे हैं। दुबके-दुबके घूम रहें हैं लेकिन झूठ कितने दिन छिपता। सच सामने आना ही था। अब सच सामने आ ही गया तो कह रहे हैं कि जैसे दुल्‍हन लाए वैसे ही दूल्‍हे का भी आयात कर लेंगे। जी हां! हम किसी साधारण दुल्‍हन की बात नहीं कर रहे बल्कि जिस दुल्‍हन की बात कर रहें हैं उसका नाम रानी है और उसका मायका है बांधवगढ़। बांधवगढ़ बाघ अभयारण की बाघिन को पन्‍ना बाघ अभयारण लाया गया था ताकि वहां बचे बाघ को साथिन मिल जाए और दोनों के समागम से बाघों की संख्‍या में कुछ इजाफा हो जाए। इसी तरह एक बाघिन कान्‍हा नेशनल पार्क से लाई गई थी लेकिन मार्च में लाईं गईं दोनों बाघिन पन्‍ना के जंगलों में तन्‍हा घूम रही हैं।
वैसे तो पन्‍ना टाइगर रिजर्व है लेकिन वहां टाइगर ही नहीं बचा है। ये खुलासा अभी हाल में पन्‍ना में बाघों की संख्‍या की जांच करने केंद्र से गई एक तीन सदस्‍यीय कमेटी ने किया है। राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के एक पूर्व निदेशक की अगुवाई में भेजी गई भारत सरकार की इस कमेटी ने गहन जांच-पड़ताल के बाद पाया कि पन्‍ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ की मौजूदगी नहीं है ज‍बकि पन्‍ना टाइगर रिजर्व का प्रबंधन यहां बीस बाघों की मौजूदगी बताता रहा है। बाघ संरक्षण प्राधिकरण को टाइगर रिजर्व के बाहर तो एक बाघ होने के प्रमाण मिले हैं लेकिन कई दिन की ट्रैकिंग के बाद कमेटी इस निष्‍कर्ष पर पंहुची कि ये बाघ भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व की सरहद में नहीं घुस रहा बल्कि उससे बाहर ही घूमता रहता है। आखिर ऐसा क्‍यों है? वैसे बाघ तो राजा है उसे किसी परिधि में बांधकर रखना तो मुमकिन नहीं लेकिन क्‍या जंगल का राजा भी टाइगर रिजर्व की सरहद में घुसने से डर रहा है। पन्‍ना के जिन जंगलों में कभी इस राष्‍ट्रीय पशु की भरमार हुआ करती थी वहां बचा हुआ इकलौता बाघ भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व को कुछ इस अंदाज में अलविदा कह गया- ए मेरे दिल कहीं और चल......
बाघ आदमखोर हो जाए तो उसे मार गिराने के लिए जंगल की पूरी मशीनरी सक्रिय हो जाती है। हल्‍ला मच जाता है। नाटक किया जाता है कि बाघ को जिंदा पकड़ना है। पिंजरे लगाए जाते हैं और फिर नौटंकी का समापन किसी एक बाघ को गोली का निशाना बना कर किया जाता है। शिकारी और वन विभाग के हुक्‍मरान अपना सीना चौड़ा कर बेजान हो चुके जंगल के राजा की लाश के साथ अपने फोटो खिंचवाते हैं। इसके कुछ दिन बाद फिर खबर आती है कि बाघ ने किसी गांव पर हमला बोला और पशुओं को खा गया। ऐसी खबरों के साथ, फिर आवाजे उठती हैं कि मारा गया बाघ तो वह था ही नहीं जिसने आदम पर हमला किया था। लेकिन कभी आपने बाघखोरों के खिलाफ आवाजे सुनी हैं। क्‍या आपने कभी सुना है कि बाघखोरों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई हो। पन्‍ना टाइगर रिजर्व के बाघ खत्‍म हो गए लेकिन इस नेशनल पार्क का प्रबंधन बाघों की झूठी मौजूदगी बताकर करोड़ों रुपये का हेरफेर करता रहा।
पन्‍ना टाइगर रिजर्व का प्रबंधन किस तरह आंखों में धूल झोंकता रहा है उसके लिए 2002 और 2006 में कराए गई बाघ गणना के आंकड़े उसे आईना दिखाते हैं। 2002 में पंजों के निशान के आधार पर हुई गणना में अभयारण्‍य में तैतीस बाघ होने की बात कही गई थी जिसमें प्रति सौ किमी के दायरे में एक बाघ के साथ तीन बाघिन दर्शायी गईं थीं। इसके चार साल बाद यानी 2006 में कैमरा ट्रैप तकनीक से गणना हुई जिसमें आंकड़ा एकदम उलटा था। कैमरा ट्रैप तकनीक से हुई गणना में एक बाघिन पर तीन बाघ थे। लेकिन यदि राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण के पूर्व निदेशक की पड़ताल पर यकीन करें तो 2008 तक पन्‍ना टाइगर रिजर्व से बाघों का नामोनिशान ही मिट चुका था। ऐसे में अब तक बीस बाघों के होने का दावा करने वाला पन्‍ना रिजर्व टाइगर का प्रबंधन आखिर फर्जी आंकड़े क्‍यों दे रहा था और जब बाघ था ही नहीं तो कान्‍हा और बांधवगढ़ से बाघिन लाकर पन्‍ना के टाइगर रिजर्व में क्‍यों छोड़ी गईं। क्‍यों ये कहा गया कि दुल्‍हन बनाकर लाईं गईं बाघिनों की गतिविधियों पर पैनी नजर रखी जा रही है। बाघों की वंशवृद्धि के लिए राष्‍ट्र के साथ इतना भद्दा मजाक क्‍यों किया गया। अब भारत सरकार की ये समिति इस बात की जांच करेगी कि 2002 से अब तक चौंतीस बाघों के रखरखाब, भोजन और संरक्षण के लिए अब तक खर्च हुए करोड़ो रुपये कहां गए। अब समिति ये पड़ताल भी कर रही है कि भारत कि किस अधिकारी के कार्यकाल में कितना खर्च हुआ।
फिलहाल पन्‍ना की दोनों दुल्‍हनें वीरान है। बिन साजन वह कैसे बने सुहागन। लेकिन पन्‍ना का बेशर्म प्रबंधन कह रहा है कि हमने यहां दूसरी जगह से बाघों को लाकर पन्‍ना के टाइगर रिजर्व में बसाने का प्रस्‍ताव भेजा हुआ है। इससे ज्‍यादा शर्म की बात और क्‍या हो सकती है कि अपने बाघ तो बचाए नहीं गए और अब बेशर्मी की हदों को भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व प्रबंधन पार कर रहा है। अब आप ही बताइए कि बाघ आदमखोर है या उसके रखवाले ही बाघखोर बन गए हैं।

Sunday, April 26, 2009

एक बाघ का डाइंग डिक्लेरेशन

(बस्ती में घुस आये एक भूखे और कमज़ोर बाघ को गांव वालों ने मिलकर मार डाला।
शेर ने मरने से पहले एसडीएम साहब को बयान कलमबद्ध कराया। आप भी पढ़िये।)

अगले जनम मोहे बाघ नी कीजो

सोलह साल पहले जब मेरा जन्म हुआ जंगल में काफी उथल पुथल हुई। पिता जी बताते थे गाड़ियों में बैठकर, शिकारियों जैसी बंदूके लेकर अफसर आये, जंगल में बने गांव वालों को हटने के लिये कहां, धमकाया, लालच दिया। नहीं माने तो जबरदस्ती धकिया दिया। पहली बार तब ऐसा हुआ कि सदियों से हम जिन गांव वालों के साथ रह रहे थे, जिनको हमसे और हमको जिनसे कोई बैर नहीं था, हमारी बिरादरी को उन्होने खूब गालियां दीं। वरना इससे पहले तो कोई शिकारी आ भी जाये जंगल में तो वो हमारे किसी चाचा-ताऊ तक पहुंचने से पहले ही गांव वालों के हत्थे चढ़ जाता था और वो उसकी वो गत बनाते थे कि बस पूछिये मत। हमारे पूर्वजों ने कभी गांव वालों का कुछ नहीं बिगाड़ा सिवाय तब के जब कोई बड़ा बुजुर्ग शिकार के लिये हिरण के पीछे लंबी दौड़ नहीं लगा पाया हो और तब हारकर उसने गांव में जाकर किसी बाड़े से बकरी उठा ली हो। बस इससे ज़्यादा कुछ नहीं। लेकिन कभी कोई बाघ गांव पहुंच गया और पकड़ में आ गया तो गांव वालों ने कनस्तर बजाकर भगा दिया, मारा नहीं। लेकिन जंगल से बाहर होते ही वो हमारी जान के दुश्मन हो गये। हमारी क्या गलती थी एसडीएम साहब। सरकार ने, नेताओं ने, अफसरों ने अपनी दुकान चलाने के लिये नेशनल पार्क बनाये, अभयारण्य बनाये। हमारी आज़ादी छिनी, एक इलाके में कैद कर दिया गया। उनको लगा कि जंगल हमे दे दिया गया है, लेकिन हमारा भी तो नहीं हुआ जंगल एसडीएम साहब।
जिस जगह से लोग भगाये गये वो हमारे पास थोड़े ही आई, वहां तो होटल खुल गये, रिजॉर्ट्स बन गये। हमे पास से देखने के लिये लोग आते हैं धुंआ उड़ाती और जंगल की शांति को खत्म करती गाड़ियों में बैठकर, और इन आलीशान होटलों में ठहरते हैं। लेकिन हम तो और अंदर जा चुके हैं जंगल के, बदनामी मिली सो अलग। पीली नदी के किनारे में पला-बढ़ा लेकिन बाद में तो पानी पीने के लिये वहां रात को आता था। शिकारी इतने मंडराते हैं कि बस पूछिये मत। मेरे पिता को भी इन्ही कंबख्तों ने मार डाला। गांव वाले होते तो किसी की मजाल थी कि मेरे पिता को हाथ लगा देते। एक बार किसी शिकारी ने हमारे एक बिरादर पर गोली चला दी थी गांव वालों ने बिना डरे उसकी इतनी सेवा की कि बस पूछिये मत। वो टीक हो गये तो जंगल में भिजवा दिया वापस। लेकिन सरकार हमारी दोस्ती देख नहीं सकी साहब, दुश्मन बना दिया।
जंगल में पेड़ कटे तो घास खत्म हुई, घास खत्म हुई तो सब हिरण-खरगोश खत्म हो गये, हम क्या खाते। गांवों पर धावा बोलने लगे। लेकिन कभी किसी इंसान को कुछ नहीं कहा, एसडीएम साहब। पेट भरने के लिये रघुपुरा से मैने बकरियां उठाई लेकिन उनको चराने वाले किसी बच्चे को कभी कुछ नहीं कहा, डराया भी नहीं। वो भी तो किसी के बच्चे हैं जैसे मेरे थे। मेरे तो दोनों बच्चे गांव वालों के मार डाले साहब। मैं तो उनको शिकार करना भी नहीं सिखा पाया, कोई जानवर मिले तब तो सिखाता। शाकाहारी हम हो नहीं सकते। क्या करते बेचारे, सियार की तरह एक मरे जानवर का मांस खा रहे थे, गांव में हल्ला हो गया, घेरकर मार डाला। मेरी पत्नी पानी ढूंढने गई थी लौटकर आई तब तक सब कुछ खत्म। उसके बाद उसकी एक झलक ही देख पाया हूं साहब। उसकी आंखों में मेरे लिये आंखों में नफरत थी कि मैं कैसा राजा हूं, ना अपने बच्चों को कुछ खिला सकता हू ना बचा सकता हूं। वो दिन है और आज का दिन है मेरी लक्ष्मी दिखी नहीं।
अकेला पड़ा तो इधर चला आया गांव की तरफ। सारा दिन गाव वालों और शिकारियों से बचने में निकल जाता। मैंने पेट भरने के लिये घास खाने की कोशिश की लेकिन नहीं खा सका। बहुत भूख लगी तो एक बकरी पर झपटा, लेकिन बकरी तो भाग गई। मैं पड़ गया गांव वालों के हत्थे। ये गांव वाले मेरे रिश्ते के भाई बब्बर शेर की पूजा करते हैं क्योंकि वो मां दुर्गा के वाहन हैं, लेकिन मेरी ज़रा भी लाज नहीं रखी। डंडा, बल्लम, तलवार जिसके पास जो था लेकर पिल पड़े। एसडीएम साहब देख लीजियेगा मैंने किसी को ना पंजा मारा ना नाखून, मैं तो अपनी जान बचाने की कोशिश करता रहा। लेकिन इनके मन में कितनी नफरत भर दी गई है हमारे लिये देखिये मुझे कितनी बुरी तरह से मारा है। एक हड्डी साबुत नहीं बची। इससे तो कोई शिकारी एक गोली सीने में उतार देता तो आसानी से मर तो जाता। लेकिन इनकी भी क्या गलती है एसडीएम साहब। इनको भी तो जीना है, डर तो लगता ही ना बाघ से। मेरे मौसी के वंशज चीते तो राजे-माहारजों ने खत्म कर दिये, बाघों को लगता है ये लोग खत्म कर देंगे। सरकार कहती है डेढ़ हज़ार बाघ बचे हैं देश में, मैं कहता हूं डेढ़ सौ भी नहीं बचे। और जो बचे हैं मेरी तरह मार दिये जायेंगे दो-चार साल में। एसडीएम मरने से पहले मैं अपने बिरादरों के लिये एक सलाह देना चाहता हूं। खाने को मिले ना मिले, जो जंगल बचा है उसी मे पड़े रहना। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा शिकारी गोली मारेगा, चैन की मौत तो मरोगे। मेरी तरह एक-एक हड्डी तो नहीं टूटेगी कम से कम। साहब, मैंने गांव वालों को माफ किया, मेरी एक मंशा पूरी तक दीजिये मेरा बयान टीवी पर चलवा दीजियेगा। आजकल तो ज़्यादातर बाघ पेट भरने के चक्कर में इधर-उधर ही घूमते रहते हैं, किसी के घर टीवी चलता देखकर जान लेंगे मेरी गत। बस्तियों के राजा खत्म हुए लगता है अब जंगल के राजा भी खत्म हो जायेंगे। एसडीएम साहब अब बोला नहीं जा रहा मैं जा रहा हूं।
अलविदा इंसानों, इंसानियत बचाये रखना।
-बाघ बहादुर, मूल निवास पीली नदी का जंगल, उसके बाद खानाबदोश

Sunday, April 19, 2009

ये धंधे हैं जो मंदे हैं

बुलंदशहर के एक ग्रामीण इलाके से गुजरते हुए आवाज़ सुनाई पड़ी, सिलबट्टा ठुकवाए लो। गाड़ी रोक दी, कन्फर्म किया आवाज़ वही थी। बातचीत की तो पता चला कि गांव के लड़कों को शादी के दहेज में मिक्सी तो मिल गई हैं लेकिन बिजली आती नहीं लिहाजा फिर से लौट आये हैं सिलबट्टों के दिन। सिलबट्टा यानी पत्थर के वो दो छोटे-बड़े टुकड़े जो दाल पीसने या चटनी पीसने के लिये इस्तेमाल होते हैं। और इन्हीं के साथ लौट आये हैं दिन छैनी-हथौड़ा से सिलबट्टा ठोकने वालों के। मेरी आंखों में आंसू आ गये उस बाबा की तरह जो 30 साल पहले हर महीने डेढ़ महीने में हमारे घर आता था सिलबट्टा ठोकने। एक रुपया लेता था और दो रोटी। मांगकर लेता था एक उबला आलू, उस पर नमक और लाल मिर्च डालकर सब्जी बना लेता था। नल से पानी पीकर चला जाता था, महीने-डेढ़ महीने बाद फिर आने के लिये।
एक दिन आया तो मां ने कह दिया, बाबा अब तो हमने मिक्सी ले ली है। समझ नहीं पाया बेचारा, जब समझाया तो बोला..ऐ बामे का पथरा नाय लगत (उसमें क्या पत्थर नहीं लगता)। अपनी आंखों से मिक्सी देखी, चलवाई, चटनी पिसवाई उस चटनी के साथ दो रोटियां खाईं। बहुत देर तक सुमित की मिक्सी देखता रहा फिर बोला..का-का मशीन आ गईं। सबकी सब हमाई दुस्मन। अब हमे रोटी को देगो।“
बाबा चला गया...उसकी आंखों में भरे आंसू मुझे आज तक याद हैं। तय है कि वहां से कुछ दूर जाते ही फूट पड़े होंगे। वो नज़र नहीं आया उस दिन के बाद। मेरी मां के मन में हमेशा अपराध बोध रहा क्यों उसे हकीकत बताई। मैं भी उस अपराध बोध में शरीक रहा। बुलंदशहर में जब मुझे सिलबट्टा ठोकने वाला दिखा तो सबसे पहले उसी बाबा की याद आई। मुझे बाबा तो नहीं उसकी आत्मा दिखी उस युवक के रूप में जो सिलबट्टा ठोकने की आवाज़ लगा रहा था। उसका धंधा ज़िंदा हो गया है।
बाबा, जहां भी हो देख लेना। तुम्हारी छैनी-हथौड़ी जीत गई है।
वो मशीन हार रही है जिसने तुम्हारी रोज़ी-रोटी छीनने की कोशिश की।

Sunday, April 12, 2009

न्यू आइडियाज़ डॉट COM उर्फ खिड़की वाले महंत

गाज़ियाबाद से दिल्ली की ओर आते हुए यमुना नदी पर बने निज़ामुद्दीन पुल पर जैसे ही आप गाड़ी धीमी करेंगे एक लड़का आपकी ओर भागता हुआ आयेगा, “अंकल लाओ हम डाल दें, अंकल लाओ हम डाल दे। “ थोड़ा आगे चलें तो दूसरा आयेगा। और आगे तीसरा और त्योहार का समय हो तो चौथा भी। ये लड़के नहीं बाल महंत हैं जो पूजा का सामान यमुना नदी में विसर्जित करने में आपकी मदद करते हैं। आपने पैसे दे दिये तो बड़े महंतों की तरह दुआ और नहीं दिये तो आपकी सात पीढ़ियों को चुनिंदा गालियां, ये 8-10 साल के बच्चे हैं।
यमुना में आप पूजा का सामान ना डाल पायें इसलिये पुल पर ऊंची-ऊंची जाली लगवा दी हैं दिल्ली सरकार ने (मुझे कैमरे से नेट पर डाउनलोड करना नहीं आता वरना मैं फोटो भी डालता)। लाखों के वारे-न्यारे हो गये अब किसी को चिंता नहीं। कुछ महीनों बाद इन पर हरा रंग होता अवश्य नज़र आ जाता है। जाली का क्या हाल है यमुना को उससे कुछ फायदा भी हुआ या नहीं, कोई नहीं फिक्र करता। पूजा का सामान यमुना मैया को समर्फित कर उसे तिल-तिल मारने वाले भक्तों की सेवा के लिये आसपास रहने वाले बच्चों ने तीन-चार जगह से जाली हटा दी है। हर जाली पर तीन-चार बच्चों का कब्ज़ा है। एक सड़क पर खड़े होकर गाड़ियों में बैठे लोगों को इसारे से जाली में बना ली गई खिड़की की ओर बताता है, यहां से डालिये। दूसरा लपककर उसके हाथ से पूजा का सामान भरी पॉलिथिन लेता और तीसरा जाली के छेद पर बैठे लड़के को थमाता है। तक सामान हाथ से लेने वाला और गाड़ी रोकने वाला पैसा मांगना शुरु कर देते हैं। दे दिये तो ठीक वरना जाली की खिड़की पर बैठा लड़का गालियां बकते हुए आपकी पॉलिथिन वापस कर देगा। सड़क और जाली के बीच में एक दीवार है कम से कम तीन फुट ऊंची, हर कोई पार नहीं कर सकता। अगर सामान विसर्जित करना है तो मजबूरी में आपको उन महंतों को 20-30 रूपये देने पड़ते हैं। और अगर खुद हिम्मत की तो पहले तो जाली की खिड़की पर बैठा महंत आपको रोकने की कोशिश करेगा, यहां से मत डालो आगे से डालना..वगैरा वगैरा। और अगर आपने ज़बरदस्ती डाल भी दिया तो नया नाटक। हर छेद के नीचे यमुना में एक लड़का इस तरह से तैर रहा होता है कि आपका सामान उसके आसपास ही जाकर गिरता है। अगर आप बाल महंतों की मर्जी के बगैर सामान डालते हैं तो गालियों के आदान-प्रदान की आवाज़ से नीचे उस तक सदेश पहुंच चुका होता है। सामान गिरते ही नीचे से आवाज़ आती है मर गया। जाली पर बैठा लड़का चिल्लाता है, अंकल आपने उसके सिर पर मार दिया। खून निकल रहा है वो डूब जायेगा। दूसरे लड़के आपकी गाड़ी के सामने जाकर खड़े हो जाते हैं, मानो आपने कोई मर्डर कर दिया है और आप भाग नहीं सकते। तब तक माजरा समझकर दूसरी खिड़कियों पर बैठे महंत, सहायक महंत, उप महंत, प्रशिक्षु महंत भी भाग आते हैं। एक-दो तुरंत वहीं से पानी में कूद जाते हैं उसको बचाने का ड्रामा करने के लिये। सब कुछ 5 मिनट में। ऐसा ड्रामा खड़ा हो जाता है कि बस पूछिये मत। ज़रा-ज़रा से लड़के आपको रुला देते हैं।
20-30 रुपये की डील 1000 में पड़ती है क्योंकि उनमें से एक दो कहते हैं हम उसकी मरहम-पट्टी करवा देते हैं। आप 5000 दे दो। लेकिन ज़्यादा देर नहीं लगती, बात 1000 पर आकर खत्म हो जाती है। ज़्यादा हिम्मत बताते हुए आपने गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश की तो ये अनपढ़ से लड़के 100 नंबर पर फोन करने और यमुना को गंदा करने की शिकायत करने की धमकियां देने लगते हैं। गलती तो आप कर ही चुके होते हैं, फंस जाते हैं, उन लड़कों के चक्कर में जो 8-10 साल से ज़्यादा के नहीं। ये तय है कि उनके पीछे कोई बड़ा गिरोह है, माफिया है। वरना खुलेआम इस तरह की लूट कहां संभव है। मेरी राय तो है कि यमुना को इस तरह से प्रदूषित करने से बचें, ये लड़के किसी दिन आपको बड़ी मुश्किल में डाल सकते हैं।

Saturday, April 11, 2009

जूता-जूता हो गया...

आज से इर्द-गिर्द पर हमारे साथ निर्मल गुप्‍त जुड़ रहें हैं। पश्चिम बंगाल में जन्‍में निर्मल किशोरावस्‍था में मेरठ चले आए और यहां से उन्‍होंने इतिहास में पोस्‍ट ग्रेजुएशन किया। निर्मल जी को लेखन का कीड़ा किशोरावस्‍था में ही लग गया था और इसकी शुरुआत उन्‍होंने कहानियों से की; फिर कविताएं और व्‍यग्‍ंय भी लिखे। अब तक देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी सैंकड़ों रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं और एक कहानी संग्रह के अलावा एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। इर्द-गिर्द पर वह अपनी शुरुआत एक व्‍यंग्‍य से कर रहें हैं। आशा है आप उनका स्‍वागत करेंगे।


एक पत्रकार ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृह मंत्री को जूता फेंका। देश भर के सारे खबरिया चैनल जूता फेंकने के दृश्‍य को स्‍लो मोशन में बार-बार दिखाने लगे। मेरे कानों में तब राजकपूर पर फिल्‍माया गया यह गाना गूंजा- मेरा जूता है जापानी। हांलाकि सबसे आगे की होड़ में लगे लगभग सभी चैनल लगभग एक ही समय पर यह न्‍यूज ब्रेक कर रहे थे कि जूता अमेरिका की एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी का बना हुआ था। वैसे भी अब कोई जापानी जूता पहनता ही कहां है, पहनता भी होगा तो उसे पहनकर कोई इतराता नहीं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भी जूतों से पैरों की दूरियां अभी बढ़ीं हुईं हैं। पहनने वालों को तो हर ब्रांड का जूता खुले, काले, पीले, ग्रे बाजार में आसानी से मिल ही जाता है।
मैने जूता फेंकने के इस मनोरम दृश्‍य को बार-बार देखा। पता लगा कि यह जूता किसी को मारने के लिए नहीं सिर्फ दिखाने के लिए फेंका गया था। इराकी पत्रकार ने तत्‍कालीन अमेरिकन राष्‍ट्रपति बुश पर एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जूत चलाकर जूता फेंक महापर्व की एक शालीन शुरुआत की थी। इराकी पत्रकार ने तब एक नहीं दो जूते चलाए थे। निशाना भी साधा था। बुश के रिफलेक्सिस अच्‍छे थे कि वह जूता खाने से बच गए। इराकी पत्रकार ने अपने देश की बनी कंपनी का जूता विश्‍व के सबसे बड़े बाहुवली पर फेंका था। यदि वह अमेरिका का बना जूता फेंकता तो यह कहावत चरितार्थ हो जाती कि जिसका जूता उसी का सिर...लेकिन ऐसा हो न सका।
हमारा पत्रकार इस मुद्दे पर इराकी पत्रकार तीन कारणों से फिसड्डी साबित हुआ। पहले तो उसने एक ही जूता फेंका, दूसरा उसने निशाना साधने की कोई कोशिश तक नहीं की, तीसरी बात ये है कि उसने अपने मुल्‍क का जूता इस पुनीत कार्य के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया। यही कारण है कि जूता चल भी गया, किसी को लगा भी नहीं, फिर भी दो बेचारे कांग्रसी प्रत्‍याशियों की संसद में पंहुचने की दावेदारी मुफ्त में जाती रही। गृहमंत्री ने दरियादिली दिखाई और पत्रकार को माफ कर दिया। पत्रकार ने भी कह दिया कि जो मैने किया वह सही नहीं था। इसका निहितार्थ तो यही हुआ कि जूता फेंकने की कार्रवाई तो गलत थी लेकिन उसे जिस कारण से फेंका गया, वह जायज था। यह तो वही बात हुई जैसे जायज मां की कोख से नाजायज औलाद पैदा हो।
बहरहाल, लोकतंत्र के इस बेरंग चुनावी महापर्व का वातावरण अनायास ही जीवंत हो उठा है। चारों तरफ चर्चाओं के चरखों पर कयासों की कपास काती जानी शुरु हो गई है। सत्‍ता के दरवाजे तक कौन पंहुचेगा, यह तो किसी को पता नहीं, पर सत्‍ता के गलियारों में इस जूते की पदचाप बार-बार सुनी जाएगी। फिलहाल तो सारा चुनावी माहौल ही जूता-जूता हो गया है।

Sunday, April 5, 2009

घास बची तो मैं बचूंगा, आप बचेंगे और वो भी बचेंगे

इस बार गणेश चतुर्थी पर घर में मूर्ति प्रतिष्ठा के लिये सम्मानीय मित्र डॉक्टर राजेंद्र धोड़पकर (दैनिक हिंदुस्तान में सहायक संपादक और कार्टूनिस्ट हैं) कहीं से गणपति की मूर्ति ले आये। बचपन की यादें ताजा हो गईं। देखा सूंड किस तरफ है दाईं या बाईं, शगुन बढ़िया था। पूजा की थाली सजाई गई। सब कुछ बाज़ार में मिल गया, सिवाय तीन मुंह वाली दूब (घास) के। बाहर लेने निकला तो देखा कहीं घास ही नहीं है। जहां घास होनी चाहिये थी, वहां कचरा पड़ा है या ईंटे लगी हैं या पोलिथीन की चादर बिछी हुई है।
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?


(इस लेख की प्रेरणा आदरणीय उदय प्रकाश जी से मिली जिन्होने अपनी पिछली टिप्पणी में घास की इतनी चिंता की।)

Saturday, March 28, 2009

अरे, वो 7 भी बचे या नहीं


रायपुर से एक मित्र का फोन बार-बार आ रहा है, छत्तीसगढ़ घूम जाओ यार। दिल्ली की ज़हरीली हवा पीते-पीते थक गया हूं मैं खुद भी जाना चाहता हूं। बच्चे भी उन जानवरों को देखना चाहते हैं जो पत्रिकाओं में दिखते हैं या डिस्कवरी पर आते हैं। ये सचमुच होते हैं, अहसास कराने के लिये उनको एक बार छत्तीसगढ़ ले जाना ज़रुरी है। क्योंकि इस देश में वो ही एक प्रदेश बच रहा है जहां फिलहाल (कब तक बचेंगे कह नहीं सकते) जंगल बचे हैं और जंगली जानवर भी।
लेकिन इस बहाने ये भी जान लेते हैं कि असलियत क्या है। एक पुरानी अखबारी कतरन पर नज़र पड़ी। कतरन सितंबर 2007 की है, जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के उदांती नेशनल पार्क में महज़ 7 वाइल्ड बफैलो बचे हैं। वाइल्ड बफैलो यानी जंगली भैंस या भैंसा। इन सात में से 6 नर और 1 मादा। इंद्रावती में एक आध और हो तो हो वरना बाकी छत्तीसगढ़ से तो इनका नामोनिशान मिट गया है। पामेद जो कभी इनका गढ़ था वो भी खाली हो चुका है। अब बात चली है तो डेढ़ साल बाद मुझे फिक्र हो रही है कि वो सात भी अब तक बचे होंगे या नहीं।
मैं तो पैदा ही छत्तीसगढ़ में हुआ हूं, बाद में गया भले ही कम होऊं, वहां की कई यादें हैं अब तक। पिता जी के किस्से अब तक याद हैं जो वहां के जंगली जानवरों के बारे में अकसर सुनाया करते थे। किस्से आम तौर पर शेर हाथियों के सुनाये जाते हैं लेकिन मेरे पिता का साबका जंगली भैंसों से पड़ा, कई बार। एक बार तो जीप के सामने आकर खड़ी हो गई तो हटी ही नहीं। जीप पीछे लेकर वापस जंगल मे दौड़ाई तब जान बची। वो ही वाइल्ड बफैलो अब खत्म हो रहे हैं। भारत में असम और छत्तीसगढ़ के अलावा ये कहीं नहीं होते। वैसे मेघालय और महाराष्ट्र में भी इनके यदा-कदा देखे जाने की बात सामने आई है।
जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
अफ्रीका में भी ये जानवर होता है, कैप बफैलो। एक से पौने दो मीटर लंबा और 5 से दस क्विंटल तक वजनी। शेर को भी मार डाले इतनी ताकत। अफ्रीका के जंगलों में पश्चिम के कई शिकारी कैप बफैलो के शिकार हो चुके हैं। लेकिन इंडियन वाइल्ड बफैलो शर्मीले होते हैं, झाड़ियों में छुपकर रहने वाले और घास से पेट भरने वाले। लेकिन जब गुस्सा आ जाये तो बाघ भी कहीं नहीं टिकता। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी कहते हैं कि बाघ तो लड़ने के हुनर ही वाइल्ड बफैलो और जंगली सूअरों जैसे जानवरों से सीखता है। बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं। मैं तो मन ही मन ये सोच रहा हूं कि मुझसे पहले किसी ने शायद सोचा ही ना हो इस बारे में, वाइल्ड बफैलो के बारे में।
बाघों के तो बड़े-बड़े जानकार हैं, तरह-तरह के हैट और टोपियां लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले, टीवी पर उनकी चिंता करने वाले, अखबारों के पन्ने रंगने वाले। हरेक की कोई ना कोई सोसायटी, ट्रस्ट या फाउंडेशन है, विदेशों से चंदा आता है और किसी ना किसी टाइगर रिज़र्व के बाहर अपना रिज़ॉर्ट बनाया हुआ है। बाघों से जुड़ी हर संस्था में सेटिंग है। दिल्ली से सैलानियों को ले जाते हैं, 15 हज़ार रोज़ के टैंट में रुकवाकर बाघ भी दिखवा देते हैं। लेकिन बाघ जिन जानवरों की वजह से ज़िंदा है उनकी चिंता नहीं किसी को। हिरण जैसे छोटे जानवर जो बाघ का प्रिय भोजन हैं, मरते हैं मरते रहें। जब बाघ का भोजन ही नहीं बचेगा तो बाघ कैसे बचेगा मेरे भाई, बाघ विशेषज्ञो, वन्य जीव विशेषज्ञों मोटी सी बात है समझ लो। हिरण को बचा लो, वाइल्ड बफैलो को बचा लो, बाघ भी बच जायेगा।
(लेखक पेशे से पत्रकार-वत्रकार हैं। लेकिन वाइल्ड बफैलो की चिंता में इस लेख को लिखने के बाद अपने आपको वन्य जीव विशेषज्ञ कहलवाना चाहते हैं)

Monday, March 23, 2009

गुदड़ी के लाल ने किया कमाल

अगर कोई संस्‍था कम्‍युनिटी रेडियो स्‍थापित करना चाहती है तो उसके लाइसेंस के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय की बहुत सी शर्तो को पूरा करने के अलावा कम से कम दस लाख का वजट चाहिए। लेकिन एक गांव के छोरे ने महज सात हजार रुपये में ये कमाल कर दिखाया है लेकिन वह नहीं जानता कि कम्‍युनिटी रेडियो क्‍या होता है? गांव के इस छोरे को नहीं मालूम है कि तरंगों के प्रसारण पर सरकार का पहरा होता है। वह अपने आविष्‍कार पर फूले नहीं समा रहा है और पूरा गांव अभिभूत है लेकिन पूरा गांव इससे अंजान है कि ये एक गुनाह भी है। उसने न तो किसी इंजीनियरिंग कालेज से पढ़ाई की और न उसके पास कोई खजाना था। अगर उसके पास कुछ था तो वह सिर्फ सपने और उन्‍हें पूरा करने का हौंसला या सनक। इसी सनक में उसने सात साल रात-दिन मेहनत की और खोल दिया एफएम स्‍टेशन। बारहवीं पास गांव के इस युवक से मुजफ्फरनगर के हथछोया गांव वाले फूले नहीं समा रहे हैं क्‍योंकि ये स्‍टेशन गांव के मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि सामाजिक सरोकारों का केंद्र भी बन गया है।

मेरा मानना है कि रेडियो रिपेयर करने वाले इस युवक पर हम सबको गौरवान्वित महसूस करना चाहिए। इस युवक का आविष्‍कार एक नई रेडियो क्रांति की शुरुआत कर सकता है। कम्‍युनिटी रेडियो के आंदोलन को पंख लगा सकता है। इस युवक का नाम है संदीप तोमर मुजफ्फरनगर के हथछोया गांव का ये युवक किसी तकनीकी संस्‍थान में पढ़ाई करने नहीं गया। न ही इसके पास इतने रूपये थे कि ये किसी आईटीआई या आईआईए के किसी कालेज में दाखिला ले पाता। अगर इसके पास कुछ था तो मेहनत, लगन और भरोसा जिसकी ताकत पर इसने इलेक्‍ट्रानिक सामानों की रिपेयर सीखी। बाजार से किताब लाता और दिन-रात सिर खफा कर सर्किट तैयार करता; रिपेयर करता। इलेक्‍ट्रानिक कंपोनेंट्स को जोड़ते-तोड़ते ये रेडियो और दूसरे इलेक्‍ट्रॉनिक सामान रिपेयर करने लगा। घर में ही रिपेयर की दुकान खोल ली लेकिन उसके दिमाग में कुछ नया कर दिखाने और नाम कमाने की हलचल होती रहती थी। इसी दौरान उसे एक एफएम माइक हाथ लगा जिसने उसकी दुनिया बदल दी। एफएम माइक के सर्किट के साथ उसने प्रयोग शुरु किए और तैयार कर दिया एक एफएम स्‍टेशन जिसका विस्‍तार पांच किमी या उससे भी अधिक किया जा सकता है।

संदीप ने एफएम माइक पर रिसर्च करते हुए ये अनुभव किया कि इन तरंगों का विस्‍तार किया जा सकता है। उसे लगा कि इन तरंगों के जरिए वह अपने गांव में ही नहीं बल्कि आसपास के गांवों में भी आवाज पंहुचा सकता है। उसने खिलौना माइक के साथ प्रयोग शुरु किए। किताबे पढ़ीं और सात साल की मेहनत के बाद करीब सात हजार रूपये खर्च कर एक एफएम स्‍टेशन खड़ा कर दिया। एक अघोषित सामुदायिक रेडियो। लकड़ी के बांस जोड़कर उसने प्रसारण के लिए टावर बनाया और उपलब्‍ध सामान की जोड़तोड़ कर प्रसारण यंत्र की जुगाड़ बनाई और फिर गांव वालों को बुलाकर बताया कि उसने आविष्‍कार कर दिया है।

आज संदीप लोक संगीत से लेकर कव्‍वालियों तक की फरमाइश पूरी करता है। पूरे गांव को सूचना देता है कि वोटर आईडी कार्ड कहां बन रहे हैं और पोलियो का टीका कब और कैसे लगवाना है। चौपाल पर बैठे ग्रामीण हों या सिलाई
करती, चूल्‍हा फूंकती महिलाएं; सभी संदीप के आविष्‍कार से खुश हैं। संदीप का रेडियो हर मुसीवत में गांव के साथ खड़ा रहता है। खेतों में आग लग जाने या कोई आपदा आने पर लोग संदीप से उदघोषणा करवाते हैं और ग्रामीण उस विपदा से जूझने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। कई बार संदीप के सामुदायिक रेडियों ने गांव में कमाल कर दिखाया है। एक बार गन्‍ने के खेतों में आग लग गई तब संदीप के रेडियो स्‍टेशन से घोषणा हुई और पूरा गांव इकट्ठा होकर आग बुझाने में जुट गया और एक खेत से दूसरे खेत में फैल रही आग पर काबू पा लिया गया। इसी तरह हाइवे पर एक स्‍कूली बस के दुर्घटनाग्रस्‍त हो जाने पर रेडियो से सूचना पाते ही पूरा गांव मदद के लिए पंहुच गया और आनन-फानन में घायल बच्‍चों को हॉस्‍पीटल पंहुचा दिया गया। गांव वालों की तत्‍परता से सभी बच्‍चे हॉस्‍पीटल से ठीक होकर अपने-अपने घरों को चले गए।

संदीप नहीं जानता कि सामुदायिक रेडियो क्‍या है। उसे ये भी नहीं मालूम कि एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर ग्रामीण भारत में सामुदायिक रेडियो क्रांति का बिगुल बजाया जा रहा है। उसे ये भी नहीं मालूम कि दुनिया भर की संस्‍थाओं ने सामुदायिक रेडियो के नाम पर खजाने खोल रखे हैं। लेकिन वह सिर्फ सरकार को जानता है और चाहता है कि सरकार उसके आविष्‍कार को देखकर उसकी इतनी मदद करे कि वह आसपास के कुछ और गांवों को भी इस सेवा से जोड़ सके।

Sunday, March 22, 2009

एक तू ही धनवान!

दैनिक जागरण समूह के आई-नेक्‍स्‍ट (I-next) अखबार में एक खबर छपी है- एक तू ही धनवान। खबर मंदिरो से होने वाली आय पर है। हांलाकि ये खबर सिर्फ मेरठ से ताल्‍लुक रखती है लेकिन यदि आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो आपको लगेगा कि पूरे देश में ही भगवान ही धनवान है। उन पर मंदी का कोई असर नहीं बल्कि कारोबार और बढ़ ही गया है। खबर यूं है-

भक्ति और दौलत में क्‍या संबंध हो सकता है? लेकिन आस्‍था कई मंदिरों में दौलतमंद बना देती है। दुनिया का सबसे रईस धार्मिक स्‍थल तिरुपति बालाजी हिंदुस्‍तान में ही है। मेरठ में भी श्रद्धा के साथ मंदिरों पर पैसा बरस रहा है। मंदी के इस दौर में भक्ति रिसेशन से मुक्‍त है और आस्‍था आधारित इकॉनामी का टर्नओवर बढ़ रहा है। है न प्रभु की लीला..
वैश्विक मंदी से भले ही उद्योग-धंधे कराह रहे हों लेकिन श्रद्धा और विश्‍वास के स्‍थल उससे अछूते हैं। प्रभु के प्रति भक्ति बढ़ रही है तो डोनेशन भी। यह वृद्धि दर बीस फीसदी से उपर पंहुच चुकी है। मेरठ के प्रमुख मंदिरों की सालाना आय दो करोड़ को पार कर चुकी है। पांच साल पहले तक ये आमदनी एक करोड़ से कम ही थी।
मुश्किलों के समय में भगवान की याद कुछ ज्‍यादा ही आने लगती है। यह एग्‍जाम का समय है, सो भक्ति छात्रों के सिर चढ़कर बोल रही है। अभिवावक भी पीछे नहीं हैं। इस कारण चढ़ावे में भी खासी वृद्धि हो रही है। दान में कैश तो है ही, सोना चांदी के गहने भी डोनेट हो रहे हैं। मंदी की मार से प्रभावित उद्यमियों का एक बड़ा तबका तो नियमित रूप से मंदिरों में जाने लगा है। वैसे सबसे ज्‍यादा दान त्‍योहारों में आता है। खासकर शिवरात्रि, नवरात्र और रामनवमी पर। इसके अलावा शनिवार को शनि मंदिर, सोमवार को शिवालय, मंगलवार-शनिवार को हनुमान मंदिरों में खास दिन होता है।
साईं बाबा चमत्‍कार के किस्‍से टीवी चैनलों में में खूब आने लगे तो मेरठ में भी भक्‍तों की लाइन लंबी होती गई। कंकरखेड़ा हो या गढ़ रोड या फिर सूरजकुंड का मंदिर, हर जगह भक्‍तों की भीड़ देखी जा सकती है। यहां मनौती पूरी होने पर भक्‍त काफी दान करते हैं। साईं बाब के मंदिरों से होने वाली इनकम की बात करें तो यह सालाना पचास लाख से ज्‍यादा है। दान में आई रकम मंदिर के रख-रखाव, वेतन और गरीबों की सेवा पर खर्च की जाती है।
ऐतिहासिक काली पल्‍टन मंदिर की बाबा औघड़नाथ मंदिर के नाम से जानते हैं। ये वही मंदिर है जहां से 1857 की क्रांति शुरु हुई थी। यहां सुबह-शाम दर्शन करने वालों की संख्‍या सबसे ज्‍यादा होती है। मंदिर प्रबंधन की मानें तो श्रद्धालुओं की संख्‍या लगातार बढ़ रही है। यहां की सालाना आमदनी करीब छत्‍तीस लाख रुपये तक जा पंहुची है। इसका काफी हिस्‍सा सामाजिक कार्यों पर खर्च किया जा रहा है। भविष्‍य में स्‍कूल खोलने की भी तैयारी चल रही है।
जागृति विहार स्थित मंशा देवी मंदिर और शहर में जगह-जगह चल रहे शनि देव मंदिरों की सालाना आमदनी तकरीबन पचास लाख बैठती है। इसके अलावा भी दर्जनों मंदिर है जिनकी इनकम से धार्मिक कार्य हो रहे हैं। मंदिरों के आसपास चल रही दुकाने भी मंदिर प्रबंधन के ही देख-रेख में चल रहीं हैं। ये इनकम दान और चढ़ावे में आने वाली राशि से अलग है। सभी प्रमुख मंदिर ट्रस्‍ट के तौर पर काम कर रहे ळें। लेकिन कई मंदिर निजी तौर पर भी संचालित हो रहे हैं। चर्चित मंदिरों में जो बिना ट्रस्‍ट के चल रहे हैं, उनमें बुढ़ाना गेट का हनुमान मंदिर और मंशा देवी मंदिर प्रमुख है।

...और चलते-चलते। मंदिरों के माल का सभी को पता है। इसलिए चोरों की नजर हमेशा दान पात्र और भगवान के आभूषणों पर लगी रहती है। चोरों के लिए शायद भगवान सॉफ्ट टारगेट हैं। बीते छह महीनों में ही चोर भगवान के छह घरों से माल साफ कर चुके हैं।

Sunday, March 15, 2009

आइए डाउनलोड करें

आकांक्षा पारे आज से इर्द-गिर्द पर जुड़ रही हैं। 18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पढि़ए आज उनकी एक चुटीली लेकिन विचारोत्‍तेजक रचना॰॰॰॰

डाउनलोड करने का खेल है बड़ा मजेदार। अगर कोई व्यक्ति डाउनलोड करना नहीं जानता तो वह निरा मूर्ख है। ऐसा मैं नहीं नई पीढ़ी कहती है। मोबाइल है, तो डाउनलोड करना आना ही चाहिए। एक से एक लेटेस्ट रिंग टोन, गाने, आवाजें और न जाने क्या-क्या। अब जब इतनी मेहनत होगी, तो इसका मजा अकेले उठाया जाए यह भी तो ठीक बात नहीं है न। तो फिर क्या करें। तो भैया, ये मोबाइल में जो फूलटू साउंड किसलिए दिया गया है। मोबाइल में अब बात कौन करता या सुनता है। यह या तो अब दूसरों के कान फोड़ने के काम आता है या फिर टिपिर-टिपिर मैसेज भेजने के। तुम कहां हो, मैं यहां हूं, खाने में क्या बना है, मिलना कहां है, फिल्म कौन सी देखनी है, पापा पास में खड़े है, फोन मत करो या फिर रात में मां जाग जाएगी इसलिए एसएमएस पर ही बात करो। यह सब मोबाइल पर ज्ञान का तड़का नहीं है। यह डाउनलोड यात्रा की प्रस्तावना है। हां तो खूब मेहनत कर के, पैसा खर्च कर के गाने डाउनलोड किए हैं, तो किसी को तो सुनाने पड़ेंगे न। यदि आप एअरकंडीशन कार में बैठ कर कहीं आने-जाने के आदी हैं, तो यह बात आपको वैसी ही समझ में नहीं आएगी, जैसे बेवाई न फटने पर समझ नहीं आती है। हां तो अपने वाहन में चलने वाले जरा पीछे हो जाएं। ब्लूलाइन, रोडवेज की बसोंऔर झोंगों में चलनेवालों को कृपया आगे आने दें।
इन तमाम सुविधा संपन्न साधनों में बैठते ही बस माला की शुरूआत हो जाती है। बस में बैठे नहीं कि जनता बताने लगती है कि नया गाना कौन सा है। किसी कोने में तेरा सरापा... का श्राप भी पूरा नहीं होता कि जिने मेरा दिल लुटिया की लूट शुरू हो जाती है। बस वाला मालिक है, इसलिए वह ऐसे कैसे पीछे रहेगा। उसका एफएम सरकारी है, सो ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना की तान छेड़ता रहता है। अगर गाना समझ न आए तो आपकी बला से। उसी वक्त ठीक बगल वाला जाग जाता है। आखिर वह कैसे आपको ऐसे ही बिना संगीत के रस में डुबाए छोड़ दे। उसने भी डाउनलोड किया है और सात रुपए प्रति गाने के हिसाब से अपना कैश कार्ड फूंका है। भीड़, पसीने और कंडक्टर की चकर-चकर के बीच कुछ भी कहिए आपको अगर तुम मिल जाओ सुनना ही पड़ेगा। अगर आप नहीं मिल पाते तो कम से कम उसे यह दिलासा तो रहे कि उसने आपको अपना पसंदीदा गाना तो सुना दिया। लड़कियां बगल में हों, तो मुंह से गाना गा कर छेड़ने में खतरा रहता है, लेकिन अब अगर मोबाइल में बजेगा, तो कोई मां की लाली क्या बिगाड़ लेगी, सिवाय घूरने के। बस में कोई सिंह हो न हो किंग सभी होते हैं। और कुछ न मिले तो नए-नए रिंग टोन ट्राय करने के बहाने बेकार ही शोर मचाते रहो। मोबाइल न हुआ जी का जंजाल हो गया। अब जब अगली बार आप नए गाने डाउनलोड करें तो यह मत भूलना कि आपकी भी कहीं इस आदत पर जय हो... हो हो रही होगी।

Tuesday, March 3, 2009

दस दिन, पांच हिरन और कुत्‍ते!

बाघ एक हिंसक प्राणी हैं। मांसाहारी है। शायद मेरे कुछ शाकाहारी मित्रों को पसंद न हो। (क्षमायाचना सहित, वैसे मेरी मित्रमंडली में ऐसे लोग भी हैं जो शुद्ध शाकाहारी कौम से ताल्‍लुक रखते हैं लेकिन उनका धंधा मीट एक्‍सपोर्ट का है।) मेरे कुछ साथी मानते हैं कि अगर कोई आदमखोर हो जाए तो उसे मार देना चाहिए, चाहे वह बाघ हो या आतंकवादी। मेरे ऐसे मित्रों को मेरे कुछ वैचारिक साथियों ने अपनी प्रतिक्रिया के माध्‍यम से पिछली पोस्‍ट में जबाव दे दिया है। मेरा मानना है कि कोई भी प्राणी अपने विचारों और परिवेश से हिंसक होता है। बाघ को मारने वाले किसी हिंसक प्राणी के नहीं बल्कि शाकाहारी प्राणियों के भी शत्रु हैं। समस्‍त वन्‍य जीवों और प्रकृति के भी दुश्‍मन हैं। शायद वह नहीं जानते कि इस धरा पर हर प्राणी उतना ही महत्‍वपूर्ण हैं जितने आप। हर प्राणी का प्रकृति या प्रा‍कृतिक संतुलन में अपना महत्‍व है। चाहे या अनचाहे। इसलिए मैं आज की पो्स्‍ट भी वन्‍य प्राणियों को ही समर्पित कर रहा हूं।
जंगलों का दोहन होने से सिर्फ बाघ या तेंदुआ ही नहीं बल्कि सभी वन्‍य जीव संकट में हैं। बाघ के आदमखोर होने या आबादी वाले इलाकों में घुस जाने पर तो मीडिया में हाहाकार मच जाता है। अफसर, मंत्री, संतरी सहित सभी चैतन्‍य हो जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे राजधानी या महानगरों में कोई वारदात सभी को हिला देती है। लेकिन जैसे छोटे आदमी की चिंता किसी हुक्‍मरान को नहीं होती; ठीक वैसे ही दूसरे वन्‍य प्राणियों पर भी हल्‍ला नहीं मचता। हल्‍ला भले ही न हो लेकिन वन्‍य जीव लगातार भटक कर आबादी में घुस रहे हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं। हल्‍ला हो या न हो लेकिन सच यही है कि जंगल सिकुड़ रहे हैं और वहां के निवासियों का जीवन भी घटते वनों के साथ ही सिमट रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो हस्तिनापुर अभ्‍यारण्‍य से भटककर पांच हिरन आबादी में न घुसते और न ही कुत्‍तों की गिरफ्त में आते।
जी हां! ये खबर किसी राष्‍ट्रीय अखबार की सुर्खिया नहीं बनी लेकिन हमारी और आपकी आंखे खोलती है। बीते दस दिन में मेरठ जिले में पांच ऐसी घटनाएं हुईं जब हिरन जंगल का रास्‍ता भटककर आबादी की तरफ आ गए और उन्‍हें कुत्‍तों ने घेर कर फफेड़ डाला। इनमें एक काला हिरन और चार चीतल हैं। वन विभाग की माने तो ये आहार के लिए जंगल से खेतों की तरफ आए और फिर आबादी की तरफ गलती से मुड़ गए। वन विभाग ये भी कहता है कि ये गन्‍ने के खेतों में छिपे थे लेकिन खेत से गन्‍ना कट जाने के कारण ये अपने को छिपा नहीं सके। लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी नौबत ही क्‍यों आई जब ये सुरक्षित क्षेत्र हस्तिनापुर अभ्‍यारण्‍य छोड़कर खेतों में अपने आहार की तलाश में आए। वैसे मैं आपको बता दूं कि हिरन प्रजाति के वन्‍य जीव बेहद शर्मीले होते हैं और समूह में रहना पसंद करते हैं। ये मानव या किसी हिंसक जीव की आहट पाते ही कुलांचे भरते हुए ओझल हो जाते हैं। इनकी संवेदन तंत्रिकाएं इतनी तेज होती हैं कि इन्‍हें दुश्‍मनों का आभास हो जाता है। आमतौर पर बाघ या तेंदुआ भी इन्‍हें सीधे नहीं दबोच पाता बल्कि झांसा देकर अपनी चतुरता से इनका शिकार करता है। ऐसे में ये सोच सहज बनती है कि यदि हिरन प्रजाति का कोई जीव शहर की तरफ तभी आता है जब उसके प्राकृतिक आवास में उसे कोई असुविधा हो।
यदि ये एक घटना होती तो हम ये भी मान लेते कि यह महज एक दुर्घटना है। रास्‍ता भटककर आबादी में आ गया होगा लेकिन दस दिन में पांच घटनाएं महज एक संयोग नहीं हो सकता। आज ही मीत जी के ब्‍लाग किस से कहें पर कैफी आजमी की रचना पढ़ रहा था। उसका कुछ पंक्तियां पढि़ए- शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा; कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा। यहां भी मैं कुछ ऐसा ही मानता हूं कि जंगल में किसी आदमी ने कुछ तो ऐसा किया होगा जिससे हिरन शहर की तरफ आया होगा। यहां तो एक नहीं बल्कि पांच आए और पांचो कुत्‍तों के हत्‍थें चढ़ गए। घायल अवस्‍था में उन्‍हें आदमी ने देखा और वन विभाग को सूचना दी। वन विभाग उन्‍हें अपने अहाते में ले गया और बांध दिए। दस दिन बाद उन्‍हें एक समाजसेवी संस्‍था की दया से चिकित्‍सक मिला। लेकिन आज उनमें से एक चीतल ने दम तोड़ दिया। उसके घावों में पस पड़ चुका था। पैर की हड्डी टूट चुकी थी। बाकी हिरनों की हालत भी बहुत अच्‍छी नहीं है। शायद उन्‍हें समय पर इलाज मिला होता तो हो सकता था कि चीतल बच जाता।
हो सकता है कि वन विभाग के पास चिकित्‍सा सुविधाएं न हो। वन्‍य जीवों के इलाज के लिए बजट न हो। और इन सबसे पहले वह संवेदना या इच्‍छाशक्ति न हो। वैसे अगर वन विभाग के पास इतना सब कुछ होता तो जंगलों का दोहन भी क्‍यों होता। इसी कड़ी में मुझे बीते महीने की एक घटना याद आ रही है। सत्‍ताधारी पार्टी के एक असरदार नेता के गुर्गों ने जंगल से टीक के करीब सत्‍तर वेशकीमती पेड़ों पर कुल्‍हाड़ी चलवा दी। जब वनरक्षक और रेंजर नेता के उन गुर्गों को रोकने गए तो नेता जी के गुर्गों ने उन्‍हें खदेड़ दिया। रेंजर ईमानदार था। उसने मामला दर्ज कर लिया लेकिन वह काटे गए दरख्‍तों की लकड़ी को जब्‍त नहीं कर सका क्‍योंकि उसके आला अफसरों ने उसे नौकरी का पाठ पढ़ा कर मामला रफा-दफा कर दिया।
ऐसी व्‍यवस्‍था और सोच के साथ हम कितने दिन तक जंगल और वन्‍य प्राणियों का अस्तित्‍व बचा पाएंगे? मुझे एक बार फिर मीत जी के ब्‍लाग किस से कहें पर पढ़ा कैफी आजमी का एक शेर याद आ रहा है- पेड़ के काटने वालों को ये मालूम न था, जिस्‍म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।

Thursday, February 26, 2009

आदमखोर बाघ : धिक्‍कार है इस फतह पर!

आज सुबह उठते ही मेरे सिरहाने रखे अखबार में छपी एक खबर पर नजर गई। हिंदुस्‍तान में दो टूक शीर्षक से एक समाचार टिप्‍पणी पहले ही पन्‍ने पर शीर्ष खबर के बाएं छपी हुई थी। आपके सामने पहले वही प्रस्‍तुत करता हूं-- अंतत: बाघ मारा गया। मारने वाले इसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। आल्‍हादित शिकारी बड़े शान से फोटो खिंचवा रहे हैं। वन विभाग और उसके मुलाजिमों की भाषा और देहभाषा जरा गौर से देखिए। कुछ ऐसे बिहेव कर रहें हैं मानो उन्‍होंने कोई खूंखार आतंकवादी मार गिराया हो। क्‍या विडम्‍बना है! दरअसल हमने एक निरीह बेजुवान की हत्‍या की है। कानूनी मंत्रोच्‍चार के साथ कानून को ही ढाल बना कर उसे घेर कर मारा है। पहले हमने उस बेजुवान को बेघर किया। फिर भूखे बाघ को नरभक्षी बनने दिया। कायदे से तो हमें भटके बाघ को पकड़कर सही-सलामत उसके घर पंहुचाना चाहिए था। तकनीक और तरकीब के तमाम तामझाम वाले 2009 में भी हम इतना नहीं कर सके। फिर इस बेजुवान पर वाहवाही कैसी! धिक्‍कार है इस फतह पर!
खबर सचमुच हिला कर रख देने वाली थी। दो दिन पहले ही मैने इर्द-गिर्द पर एक पोस्‍ट आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्‍या होगा? लिखी थी। इस पोस्‍ट पर पहली ही प्रतिक्रिया थी कि बाघ को क्‍या आदमी की कीमत पर संरक्षण दिया जाना चाहिए। ये सवाल लंबे समय से उठता रहा है। इसी कड़ी में कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं जिसमें से निर्मल गुप्‍त जी की प्रतिक्रिया भी कुछ इस तरह थी कि क्‍या आदमी को उदरस्‍थ करने के लिए बाघों को यूं ही खुला छोड़ देना चाहिए। सवाल गंभीर है लेकिन निर्मल जी उसका घर भी तो हमने ही उजाड़ा है। जंगलों का दोहन भी तो आदमी ने किया है अपने स्‍वार्थ के लिए और जब किसी का घर उजड़ता है, उसका भोजन छिनता है तो वह क्‍या करेगा। आबादी की तरफ भागेगा और वहां खेतों में झुक कर नियार खाती महिला को चौपाया समझकर हमला करेगा। या भूख से व्‍याकुल अपने भोजन के लिए कुछ भी करेगा। लेकिन आदमी और जानवर में फर्क होता है। क्‍या आदमी को भी जानवर हो जाना चाहिए। क्‍या हम इतने आधुनिक और तकनीकी तौर पर उन्‍नतशील हो जाने के बाद भी एक बाघ को (चाहें वह आदमखोर घोषित हो गया हो) जिंदा नहीं पकड़ सकते। बाघ को ट्रेंकुलाइजर गन से बेहोश कर घने जंगल में किसी दूसरी जगह भी शिफ्ट किया जा सकता था। लेकिन नहीं! बाघ को मारकर अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली टीम के साथ वन विभाग ने फोटो खिंचवाए। जश्‍न मनाया। क्‍या ये सचमुच वीरता या शौर्य का कार्य है।
सवाल उठता है कि बाघ जंगलों से निकलकर आबादी से आबादी में भागते रहे क्‍योंकि बाघ को भी अपनी जान का खतरा था। बाघ को बचाने की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर संजोने वाले वन विभाग के 'काबिल' अधिकारी और कर्मचारी बाघ की इस तरह से घेराबंदी करते रहे कि वह जंगल की तरफ न जाकर आबादी की तरफ ही भागता रहा। इस बात से हर कोई इत्‍तफाक रखेगा कि बाघ चाहें कितना भी क्रूर और हिंसक क्‍यों न हो लेकिन पैंतरेबाजी में वह आदमी का मुकाबला कभी नहीं कर सकता।..और जब आदमी यह ठान ले कि उसे मारना है तो बाघ का जीवित रहना नामुमकिन है। वन विभाग भी कानून की ढाल बनाकर बाघ को आदमखोर घोषित कर पकड़ने या मारने का आदेश दे चुका था और जाहिर है कि उनकी नीयत बाघ को जीवित पकड़ने की होती तो उन्‍होंने उस तरह के इंतजाम किए होते। बंदूक हाथ में लेकर बाघ को पकड़ा तो नहीं जा सकता। बाघ भी कोई खरगोश का बच्‍चा तो है नहीं कि दौड़े और पकड़ लिया।
हमने ज्‍यों-ज्‍यों तरक्‍की की राह पकड़ी, सभ्‍य हुए, आधुनिकता का रंग चढ़ा; त्‍यों-त्‍यों साल-दर-साल बाघ गायब होते गए। कानून सख्‍त हुए, रखवाले बढ़ाए गए, अरबों रुपया प्रोजेक्‍ट टाइगर के नाम पर बहाया गया लेकिन जनता का वह पैसा भी पानी बन गया। कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्‍का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्‍या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्‍या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्‍य जीव के तस्‍करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं। कुछ दिन बाद वह कानूनी दावपेंच के सहारे बाहर भी आ जाते हैं। क्‍यों होता है ऐसा? साफ है कि हमारा सिस्‍टम और सिस्‍टम को दुरुस्‍त रखने वाले ही उनके मददगार हैं। क्‍या ये लोग भी स्‍वात घाटी से आते हैं? क्‍या इन्‍हें भी आईएसआई और पाकिस्‍तानी हुकुमत मदद करती है? ट्रेनिंग देती है? वन माफिया हों या वन्‍य जीवों के तस्‍कर; इनके मददगार हमारे और आपके बीच के लोग हैं। वही इन भक्षकों के मददगार हैं जिन्‍हें हमने रक्षक बनाया है।
अगर हम एक आदमखोर बाघ को इस युग में भी कैद नहीं कर सकते तो इस विवशता पर भी विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है जब हम प्रोजेक्‍ट टाइगर की दशा और दिशा की चहुंमुखी समीक्षा करें। आज मैं इतना ही सोच पा रहा हूं; बाकी आप बताइए कि मेरी सोच गलत है या सही।

Monday, February 23, 2009

आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्‍या होगा?

'जय हो' के अलावा आज देश को कुछ नहीं सूझ रहा। ये गलत भी हो सकता है लेकिन मुझे अखबार और खबरिया चैनल देखकर यही लग रहा है। इन्‍हीं खबरों के बीच में एक अखबार के एक कोने में छपी खबर पढ़कर मैं सोचने लगता हूं। खबर है-- उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तरांचल में बाघ तीन महीने के भीतर बीस बाघों को अपना निवाला बना चुके हैं। अगर संख्‍या पर जाएं तो उत्‍तर प्रदेश में बारह और उत्‍तरांचल में आठ लोग बाघ का शिकार हुए हैं। दोनों राज्‍यों के बारह से ज्‍यादा जिले आदमखोर बाघों के खौफ से रात को आबादी वाले इलाकों में पहरा दे रहे हैं। वन विभागों का अमला बाघों को पकड़ने या मारने के लिए कोशिशें कर रहा है। खबर ये भी है कि वन विभाग के शिकारियों ने एक बाघ को मारकर अपनी वीरता का परिचय भी दे दिया है। वैसे आप चाहें तो इसे पूरी आदम जाति की वीरता भी मान सकते हैं।
आपको मैं सच-सच बता दूं कि मैं बाघ से बहुत प्रेम करता हूं। जंगल में घूमते हुए बाघ और उसकी शान-शौकत मुझे बहुत भाती है। मैं अपने को उन सौभाग्‍यशाली लोगों में से एक मानता हूं जिन्‍होंने जंगल में बाघ को अपने इर्द-गिर्द घूमते देखा है। ये मेरा सौभाग्‍य है कि मैं जब भी जंगल/अभ्‍यारण्‍य में गया; मुझे बिल्‍ली परिवार के दर्शन जरूर हुए। स्‍वर्गीय राजीव गांधी एक बार कॉरवेट नेशनल पार्क अपनी छ़ट्टियां बिताने गए तो मुझे कवरेज पर भेजा गया। आखिर प्रधानमंत्री अपनी घोषित छुट्टियां बिताने जा रहे थे। तीन दिन राजीव गांधी कॉरवेट रहे, जंगल घूमें, उन्‍हें बाघ दिखाने के लिए स्‍थानीय प्रशासन ने काफी कोशिशें की; जंगल में एक जगह पाड़ा बांधा गया ताकि बाघ उसे खाने आए और स्‍वर्गीय राजीव गांधी को बाघ के दर्शन हो जाएं लेकिन बाघ नहीं आया बल्कि दहशत से पाड़ा जरूर परलोक सिधार गया। स्‍वर्गीय राजीव गांधी का परिवार भले ही बाघ न देख पाया हो लेकिन जंगल का राजा मुझसे हैलो कहने जरूर आया। बाघ जब मुझे मिला तो वह मेरे वाहन के आगे करीब आधा किमी दौड़ता रहा और फिर नीचे खाई में उतरकर ओझल हो गया। मैं कभी भी जंगल से खाली नहीं लौटा। बाघ और तेंदुए मेरे सामने कई बार आए और मेरी घिग्‍गी बंध गई। कई बार तो ऐसा हुआ कि जब बाघ मेरे सामने से ओझल हुआ तब मुझे ख्‍याल आया कि मैं अपने गले में लटके कैमरे का उपयोग तो कर ही नहीं सका।
जंगल में रहने वाले या जंगल से प्रेम करने वाले लोग जानते हैं कि जितना आदमी बाघ से डरता है उतना ही बाघ भी। आदमी की मौजूदगी का आभास होते ही जंगल का राजा रास्‍ता बदल देता है। बाघ तब तक आदमी पर हमला नहीं करता जब तक उसे अपने अस्तित्‍व को खतरा न लगे। चालाक जीव है; इसलिए आदमी के सामने आने पर पीछे या दाएं-बांए हो जाता है। बाघ अपने शिकार को भी आमतौर पर सामने से आकर नहीं दबोचता। पहले शक्‍ल दिखाकर डराता है और फिर पीछे से घूम कर आता है और दबोच लेता है क्‍योंकि हिरन प्रजाति के तेज धावकों को अपने शिकंजे में लेना आसान नहीं होता। ऐसे में सवाल उठता है कि बाघ आदमी पर हमला क्‍यों करता रहा है। या क्‍यों उसे अपना शिकार बना रहा है? बाघ तभी आदमखोर होता है जब उसकी क्षमताएं खत्‍म हो जाएं। चोटिल हो। दौड़ कर अपना शिकार न दबोच पाए। अक्षम हो जाए। ऐसी स्थितियां बहुत कम पैदा होती हैं। इसके अलावा ऐसी स्थितियां तब पैदा होती हैं जब आदमी उस पर हमला कर दे। या उसके आवासीय परिक्षेत्र में अतिक्रमण करे। जंगल का अंधाधुंध दोहन हो। जंगल सिमटेगें तो वहां रहने वाले जीव क्‍या करेंगे। सच तो ये है कि आबादी बाघों के पास जा रही है न कि वन्‍य जीव आबादी की तरफ रुख कर रहे हैं।
नरभक्षी बाघों के आदमखोर हो जाने की इक्‍का-दुक्‍का घटनाएं तो सामने आती रहीं हैं लेकिन अब तक सबसे बड़े पैमाने पर बाघ के आदमखोर होने की घटनाएं हमारे देश में करीब ढाई दशक पहले हुईं थीं। उननीस सौ अस्‍सी से पिचयासी के बीच में आदमखोर बाघों ने बयालीस लोगों की जान ली थी और करीब सात आदमखोर बाघ मार गिराए गए थे। इतने बड़ी संख्‍या में बाघ के आदमखोर हो जाने पर नेशनल बोर्ड फार वाइल्‍ड लाइफ ने अपने अध्‍ययन में पाया था कि नेपाल में बड़ी संख्‍या में वनों की कटाई से तराई क्षेत्र में नेपाल से बेदखल बाघ आ गए थे और इन्‍हीं अपने घर से उजड़े बाघों में से कुछ ने कहर बरपाया था।
क्‍या आज भी वैसी ही परिस्थितियां तो नहीं बन रहीं। आज आबादी बढ़ रही है। वनों का दोहन तेज है। वन्‍य जीवों के तस्‍कर बेखौफ हैं। ऐसे में सोचिए कि बाघ क्‍या करे? एक बात तय है कि अगर इंसान और बाघ की दुश्‍मनी होगी तो नुकसान अंतत: बाघ का ही होगा। आज दुनिया भर में करीब तीन हजार से पैंतीस सौ बाघ बचे हैं जबकि अस्‍सी के दशक में करीब आठ हजार बाघ थे। दुनियां के कई हिस्‍सों से बाघ गायब हो चुके हैं या लुप्‍त होने के कगार पर हैं। हमारे देश में ही एक शताब्‍दी पहले चालीस हजार से अधिक बाघ थे लेकिन अब इनकी संख्‍या डेढ़ हजार से भी कम आंकी गई है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में ही चार सौ से अधिक बाघ लापता हो चुके हैं। इसके बाबजूद दुनिया में बाघों की आबादी के चालीस प्रतिशत अभी भी हमारे देश में हैं। ऐसा न हो कि हमारी आने वाली पीढ़ी बाघ को सिर्फ तस्‍वीरों में ही देख सके।

Sunday, February 15, 2009

प्‍यार का उपहार!

मेरठ की एक ममता प्रेम दिवस पर मौत की नागिन बन गई। वेलेंटाइन डे पर घर आए प्रेमी को उसने अपनी आगोश में लेकर सल्‍फास खिला दिया। प्रेमी को क्‍या पता था कि उसकी माशूका उसे प्रेमपूर्वक आंख बंद कर उसके मुंह में जो पुडि़या डाल रही है वह उसकी मौत का सामान है। जी हां! ये कोई फिल्‍मी कहानी, धारावाहिक या उपन्‍यास अंश नहीं है बल्कि एक सीधी-सच्‍ची प्रेम कथा है जिसमें वेलेंटाइन डे पर प्रेमिका के घर मिलने गए प्रेमी ने जब अपनी प्रेमिका को बताया कि उसकी शादी तय हो गई है और अब उसे घरवालों की इज्‍जत के लिए शादी करनी पड़ेगी तो प्रेमिका ने उस बांसुरी को ही तहस-नहस करने का फैंसला लिया जिसके सुरों की आ‍सक्ति में वह मंत्रमुग्‍ध हो कर थिरकन महसूस किया करती थी।
ममता एम कॉम कर रही है और उसका प्रेमी किशन गुप्‍ता पॉलीथिन का कारोबारी था। चार साल से उनके बीच प्रेम की पींगे चढ़ रही थी। दोनों के घर वाले उनके प्‍यार की पींगों से अंजान थे। लुका-छिपी के साथ चल रही प्रेम कहानी में प्रेमी चांद-तारे जमीं पर लाने के ख्‍वाब दिखा रहा था और लड़की को आंख बंद कर भी हरियाली ही नजर आती थी। इसी तरह चार साल बीत गए। किशन व्‍यापारिक घराने वाले परिवार से ताल्‍लुक रखता था तो ममता के पिता रक्षा मंत्रालय में सहायक लेखा अधिकारी थे। बीते शनिवार यानी वेलेंटाइन डे को ममता के पिता अपनी पत्‍नी के साथ किसी काम से घर से बाहर गए। उनसे पहले उनकी दूसरी बेटी अपने ऑफिस जा चुकी थी। घर में अकेले ममता थी जो ऐसे ही वक्‍त का इंतजार कर रही थी। उसका प्रेमी भी व्‍याकुल था; लिहाजा सूचना मिलते ही ममता के पास चला आया। दोनों के बीच कथित प्रेम फिर परवान चढ़ने लगा। घर में अकेले दो युवा दिल धड़कते रहे लेकिन इसी बीच किशन ने जब ममता को बताया कि उसके घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी है और वह घर वालों से विद्रोह करने की हैसियत में नहीं है तो ममता का दिल धक रह गया। उसके कलेजे में आग धधकने लगी। गुस्‍से में उसने किशन के दोनों मोबाइल तोड़ दिए। किशन ने ममता का गुस्‍सा शांत करने की कोशिश की लेकिन ममता के अंदर ज्‍वालामुखी धधक रहा था। किशन को धीरे-धीरे ममता शांत होते नजर आई तो उसने उसे स्‍वीटी सुपारी भेंट की लेकिन स्‍वीटी सुपारी खाने से पहले उसने किशन को बांहों में लेकर आंख बंद कर मुंह खोलने को कहा। ममता बोली कि तुम्‍हारी सुपारी मैं बाद में खाउंगी, उससे पहले तुम मेरी सौगात खाओ। किशन ने आंख बंद कर मुंह जैसे ही खोला वैसे ही ममता ने सल्‍फास की पुडि़या उसके मुंह में उड़ेल दी। पुडि़या के साथ-साथ कोल्‍ड ड्रिंक मुंह में डाला और जब तक किशन के कुछ समझ में आता ममता कमरे से बाहर निकलकर उस कमरे को बाहर से बंद कर चुकी थी। इसके बाद जब ममता ने कमरा खोला तो किशन निढाल हो चुका था।
शाम को चार बजे के आसपास जब ममता के माता-पिता लौटे तो ममता का कमरा बंद था। ममता के हाव-भाव देखकर उन्‍हें शक हुआ तो वह ममता के कमरे में घुसे और वहां का नजारा देखकर हतप्रभ रह गए। कमरे में किशन का शव पड़ा था और फर्श उल्टियों से गंदा हो चुका था। कुछ देर तक ममता के पिता को यह समझ में नहीं आया कि क्‍या करें। फिर उन्‍हें जब माजरा समझ में आया तो एक लाचार बाप खड़ा था। बेवस बाप क्‍या करता; ममता की मां के साथ मशीनी गति से घर का फर्श साफ कर अस्‍त-व्‍यस्‍त कमरे को ठीक किया और फिर पुलिस को सूचना दी कि उनके घर में एक शव पड़ा है। कुछ देर में ही शव की शिनाख्‍त हो गई और किशन के घर वालों को सूचित किया गया तो वह विफर पड़े और उन्‍होंने ममता और उनके घरवालों के खिलाफ हत्‍या का मामला दर्ज कराया। ममता के मां-बाप ने सफाई दी कि वह सुबह से ही घर से बाहर थे और मृतक को पहली बार उन्‍होंने देखा है। उन्‍होंने ममता के हवाले से ये भी कहा कि युवक ने खुद ही जहर खाकर आत्‍महत्‍या की है।
सच क्‍या है ये तो सिर्फ ममता ही जानती है या अब इस दुनिया को अलविदा कह चुका किशन। पुलिस के मुताबिक ममता ने जो सच पुलिस के सामने उगला है फिलहाल तो पुलिस उसी सच को सही मान रही है। और वह सच आप पढ़ चुके हैं। ममता के साथ पुलिस ने उसके माता-पिता को गिरफ्तार कर लिया है। ममता को हत्‍या के अपराध में और उसके माता-पिता को घटित अपराध के साक्ष्‍य मिटाने और षड्यंत्र में भागीदारी करने के आरोप में सींखचों के पीछे डाल दिया गया है।
ये एक ऐसी घटना है जो कई सवाल खड़े करती है। पहला सवाल क्‍या ममता और किशन में प्‍यार था? क्‍या कोई अपने प्रेम का इस तरह अंत कर सकता है? सल्‍फास एक ऐसा कीटनाशक है जो हवा के संपर्क में आते ही तेज दुर्गंध छोड़ता है तो क्‍या कोई व्‍यक्ति आंखें बंद होने पर भी निगल सकता है? तो फिर क्‍या ये ऐसा सच है जो पुलिस थाने में गढ़ा गया है? अगर ये सचमुच सच है तो क्‍या नए जमाने की स्‍त्री प्रेम और प्रतिशोध की नई परिभाषाएं लिख रही है? क्‍या हम इसे वैचारिक और नारी स्‍वतंत्रता की परि‍णति मान सकते हैं? मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा अगर आपको कुछ सूझ रहा हो तो जरूर बताईएगा।

Tuesday, February 10, 2009

प्‍यार के तालिबानी

आजकल सबसे ज्‍यादा तालिबानियों की चर्चा है। कोई भी अखबार या न्‍यूज चैनल तालिबानियों की चर्चा या खबर/अ-खबर के बगैर पूरा ही नहीं होता। खबर हो या न हो लेकिन तालिबानी जरूर होते हैं। वैसे तालिबानी होना अब एक मुहाबरा बन गया है। अब हर जगह तालिबानी याद आते हैं। बैंगलौर के पव में युवक-युवतियों की धुनाई हुई तो तालिबानी याद आए। वेलेंटाइन डे या वीक हो तो भी तालिबानी। जी हां! प्‍यार के तालिबानी। ...चलिए हम भी आज प्‍यार के तालिबानियों की चर्चा करते हैं।
वेलेंटाइन डे से पहले प्रेमी युगलों में जबरदस्‍त उत्‍साह है, वहीं प्‍यार के तालिबानियों ने मेरठ में कमर कस ली है। इस बार प्‍यार के इन तालिबानियों ने एक अनोखा फरमान सुनाया है। इस फरमान के मुताबिक प्रेम पर पहरा देने वाले लोग वेलेंटाइन डे पर अपने साथ हवनकुंड लेकर चलेंगे और इन्‍हें जहां भी अविवाहित प्रेमी युगल वेलेंटाइन डे सेलीब्रेट करते मिलेंगे, वहीं उन्‍हें पकड़कर सात फेरे करवा दिए जाएंगे। इसी तरह कुछ मंडलियां प्रेमी युगलों को मुर्गा बनाने और पिटाई करने का ऐलान कर रही हैं लेकिन इस सब के बावजूद प्रेमी युगल वेलेंटाइन वीक मनाते हुए अपनी लीलाओं में मस्‍त हैं।
मेरठ के गांधी बाग में करीब चार साल पहले उत्‍तर प्रदेश पुलिस के वीर जवानों ने ऑपरेशन मजनू चलाकर प्रेमी युगलों में थप्‍पड़ बजाए थे। युवक-युवतियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा था। पुलिस की महिला नेत्रियां प्रेमी युगलों को पकड़ने के लिए ऐसे भागी थीं जैसे ओलंपिक की रेस में दौड़ लगा रहीं हों लेकिन आज यहां का नजारा बिल्‍कुल अलग है। एक बार फिर ये गांधी बाग फिर प्रेमी युगलों से आबाद है। जिसने भी ऑपरेशन मजनु की तस्‍वीरें देखी होंगी वह यह सोच भी नहीं सकता था कि मेरठ के गांधी बाग को प्रेमी युगल फिर से हरा-भरा कर देंगे। एक-दो नहीं बल्कि सुबह से शाम तक दर्जनों जोड़े आजकल इस पार्क में आ जा रहे हैं। यही हाल शहर के दूसरे ऐसे स्‍थलों और मॉल्‍स का है, जहां वेलेंटाइन वीक के रोज डे से लेकर किस डे तक परमानंद अवस्‍था में सेलीब्रेट हो रहे हैं लेकिन प्‍यार के तालिबानियों के फरमान से ये लोग थोड़ा विचलित हैं और ऐसे फरमानों को अधिकारों पर हमला मान रहे हैं।
एक तरफ प्रेमी युगल प्रेम के इजहार से लेकर प्रेम लीलाओं में मस्‍त हैं वहीं प्‍यार के तालिबानी कहे जाने वाले संगठनों ने इसे विदेशी अपसंस्‍कृति कहकर जनजागरण शुरु कर दिया है। बजरंग दल ने शहर भर में होर्डिंग्‍स लगवाएं हैं जिसमें वेलेंटाइन वीक में पड़ने वाले दिवसों की अनुवाद कर बताया है कि इनके मायने क्‍या हैं। शहर भर में पर्चे भी बांटे जा रहे हैं और चेतावनी भी कि यदि कोई प्रेमी युगल सार्वजनिक स्‍थलों पर घूमता पाया गया तो उनकी मंडलियां वहीं पकड़कर उनके घरवालों को बुलवाएगीं और शादी कर कन्‍यादान भी बजरंग दल के लोग करेंगे। बजरंग दल की टोलियां वेलेंटाइन डे पर अपने साथ हवनकुंड लेकर निकलेंगी और साथ-साथ घूम रहे अविवाहित युवक-युवतियों को पकड़कर सात फेरे करा देंगी। बजरंग दल जहां प्रेमी युगलों का घर बसाने का फरमान लेकर मैदान में है तो शिव सेना उन ग्रीटिंग्‍स और अन्‍य सामग्री की होली जलाने का ऐलान कर चुका है जिसमें युवक-युवतियों की चुंबन लेते या बांहों में बांहें डाले तस्‍वीरें होंगी। साथ ही शिव सेना शादी नहीं कराएगी बल्कि अपने परंपरागत तरीके से इन युगलों को मुर्गा बनाकर धुनाई भी करेगी।
बजरंग दल ने शहर भर में जनजागरण के लिए जो पर्चे बटबाए हैं उसमें फ्रेगन्‍स डे को खुशबू देने का दिन, टेडी डे को खिलौने देने का दिन, प्रपोज्‍ड डे को दोस्‍ती करने का दिन, रोज डे को गुलाब देने का दिन, डेट डे को झूठ बोलकर यार के साथ जाने का दिन, चाकलेट डे को एक-दूसरे को झूठी चॉकलेट खिलाने का दिन, स्‍लेब डे को अश्‍लीलता के साथ एक-दूसरे को चांटे मारने का दिन, हग डे को बांहो में बांहें डालने का दिन, किस डे यानी चुंबन का दिन, वेलेंटाइन डे यानी बचा खुचा काम करने का दिन और फोरगिवनेस डे यानी मजे लेकर छुटकारा पाने का दिन बताया गया है। बजरंग दल का कहना है कि हम किसी युगल को छुटकारा नहीं लेने देंगे और उनकी पकड़े जाने पर शादी कराई जाएगी।
हमारे कई मित्र बजरंग दल के इस कदम को विरोध का सकारात्‍मक तरीका मानते हैं। आपकी क्‍या राय है; खुलकर इजहार कीजिएगा क्‍योंकि मेरठ तो एक प्रतीक है लेकिन मुद्दा समूचे समाज और राष्‍ट्र से जुड़ा है।

Wednesday, February 4, 2009

प्रेम के तमाशे में फंसी औरत

करीब साठ दिन से एक (अ)प्रेम कहानी सुर्खियों में है। मीडिया के लिए मुंबइया फिल्‍मों या एकता कपूर के सीरियलों से भी हिट मसाला। राष्‍ट्र की सबसे गंभीर समस्‍या। जी हां! हरियाणा के दिग्‍गज नेता भजनलाल के साहबजादे और पूर्व उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन के चांद मौहम्‍मद और चंडीगढ़ की एडवोकेट अनुराधा वाली के फिजा बनकर निकाह करने और फिर चांद के छिप जाने से आहत फिजा की दास्‍तान कई हफ्तों से सुर्खियां बनी हुई है। भले ही इस कहानी को चटखारे लेकर परोसा जा रहा हो लेकिन इस प्रसंग ने कई गंभीर सवाल खड़े किए हैं। ऐसे सवाल जो मौकापरस्‍ती के लिए धर्म का ही नहीं बल्कि कानून का भी मजाक उड़ाते हैं और हमारा समाज, धर्म और कानून अभिशप्‍त होकर मूकदर्शक बना रहता है। एक मुद्दा महज चटखारेदार खबर बनकर रह जाता है।
ये कहानी एक ऐसे पुरुष और स्‍त्री की है जो सुसंस्‍कृत परिवार और समाज से हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार हैं। या कहिए कि जरूरत से ज्‍यादा समझदार हैं। इस कहानी का एक पात्र चंद्रमोहन है। हरियाणा के दिग्‍गज राजनेता भजनलाल का पुत्र और सूबे का उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन एक दिन अचानक गायब हो गया। कुर्सी छोड़कर। यहां तक कि अपने बीबी-बच्‍चों को बिलखते हुए छोड़ गया। तलाश हुई लेकिन उसका कहीं पता नहीं चला लेकिन एक दिन वह एक युवती के साथ दुनिया के सामने आया। इस युवती का नाम था अनुराधा वाली। पेशे से एडवोकेट अनुराधा भी गायब थी। लेकिन प्रकट हुए चंद्रमोहन अब चांद मौहम्‍मद बन चुके थे और अनुराधा वाली नए अवतार में फिजां बनकर सामने आई थी। दोनों ने ऐलान किया कि उन्‍होंने निकाह कर लिया है। यानी कानून को धोखा देने के लिए चंद्रमोहन ने धर्म का सहारा लिया और अपनी प्रेयसी का भी धर्म परिवर्तन करा शादी कर ली। दोनों ने हीर-रांझा टाइप प्रेम कहानियों पर बनी मुंबइया फिल्‍मों की तरह डायलोग बोले। चांद मौहम्‍मद बन गए चंद्रमोहन ने कहा कि उनकी दोस्‍ती पुरानी थी और जब प्‍यार में बदली तो उन्‍होंने साथ रहने का फैसला किया क्‍योंकि वह दोनों एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे। फिजा ने चांद को हीरा कहा और दोनों ने एक-दूसरे को तारीफ के चंदन लगाए और साथ जीने-मरने का ऐलान कर दिया।
अगर ये हरकत हमारे देश के किसी आम चेहरे ने की होती तो उसका उपचार समाज और उसके रखवालों ने कर दिया होता। अगर 'रामू' या 'मुन्‍ना' ऐसा करते तो इलाके के दरोगा जी ही चार लाठियों में मामला सुलटा देते लेकिन मामला अपमार्केट था। एक राजघराने से जुड़ा था। लिहाजा कई हफ्तों तक चांद और फिजा के पीछे-पीछे कैमरे चलते रहे। सुर्खिया बनी रही। हर रोज एकता कपूर के सीरियलों जैसा एक नया घटनाक्रम सामने आ जाता। चटखारेदार खबर थी और खबर बिकने वाली थी तो जाहिर था कि कभी चांद बन चुके चंद्रमोहन के बीबी-बच्‍चों को लेकर एक कड़ी बनती और कभी उनके अन्‍य घरवालों की प्रतिक्रियाएं सामने आतीं और खबरची एक से पूछते और दूसरे को बताकर प्रतिक्रिया ले‍ते। कुल मिलाकर चटखारे लिए जाते रहे लेकिन किसी ने गंभीरता से ये सवाल नहीं उठाया कि चंद्रमोहन की ब्‍याहता स्‍त्री और उन बच्‍चों का क्‍या कुसूर था। क्‍या ये उस स्‍त्री और बच्‍चों के प्रति एक तरह की हिंसा नहीं थी। क्‍या धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह इतना आसान है। क्‍या सामाजिक सुरक्षा के ताने-बाने को इस तरह तार-तार किया जा सकता है। क्‍या धर्म परिवर्तन कर लेने से एक व्‍यक्ति अपनी पत्‍नी से मुक्‍त हो सकता है। अगर नहीं तो चांद पर कानूनी शिकंजा क्‍यों नहीं कसा गया?
लेकिन ये कहानी यहीं पर खत्‍म नहीं हुई। चांद फिर गायब हो गया। चांद की फितरत है घटना, बढ़ना और छिप जाना। चंद्रमोहन जिस तरह अपनी पहली बीबी और बच्‍चों को छोड़ कर गायब हुआ था; उसी तरह फिजा को छोड़कर गायब हो गया। अपनी पत्‍नी और बच्‍चों को छोड़कर गायब होने के बाद चंद्रमोहन जब सदेह सामने आया तो चांद बना हुआ था। यानी उसने इस्‍लाम ग्रहण कर लिया था। तब वापस आया चांद अपने साथ फिजा को लेकर अवतरित हुआ था। ये ऐलान करता हुआ कि उसे अनुराधा से बेपनाह मुहब्‍बत है। इतनी मुहब्‍बत कि वह एक-दूसरे के बगैर जिंदा नहीं रह सकते। फिजा को अपना चांद हीरा लग रहा था। ऐसा चांद जिसमें उसे कोई धब्‍बा भी नहीं दिखाई दे रहा था। लेकिन कुछ दिनों बाद ही कृष्‍ण पक्ष आया और चांद एक बार फिर छिप गया। इस बार फिजा बन चुकी अनुराधा की जिंदगी में अमावस्‍या आई।
वजह कुछ भी हो। चाहे लोग ये माने कि उन्‍होंने प्‍यार को बदनाम किया है। बदनाम हुई है तो सिर्फ मौहब्‍बत। या ये माने कि चंद्रमोहन और अनुराधा दोनो ही दोषी हैं। लेकिन कड़वा सच यही है कि दोनों ही परिस्थितियों में अगर कोई ठगा गया है तो वह है औरत। हर हाल में अगर किसी का कुछ छिना है तो वह है स्‍त्रीत्‍व। चंद्रमोहन के गायब होने पर उसकी पत्‍नी और बच्‍चे ठगे गए और चांद मौहम्‍मद के गायब होने पर फिजा। यानी लुटी तो सिर्फ और सिर्फ औरत ही। हो सकता है कि आप कहें या तर्क दें कि अनुराधा वाली तो पढ़ी-लिखी कानून की जानकार औरत थी; ये भी मानें कि उसी की वजह से चंद्रमोहन ने अपनी पत्‍नी को छोड़ा लेकिन सच तो यही है कि एक औरत की आबरू लूट कर उसने दूसरी औरत की आबरू को भी तार-तार किया।
अब मजहब की भी सुनिए। हिंदु मैरिज एक्‍ट के मुताबिक चंद्रमोहन एक पत्‍नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकते थे; इसलिए वह मुसलमान हो गए और अब इस्‍लाम के विद्वान कह रहे हैं कि अगर चांद मौहम्‍मद सार्वजनिक तौर पर यह कह दे कि वह इस्‍लाम धर्म छोड़कर फिर से हिंदु हो गए हैं तो उनका फिजा से निकाह अपने आप टूट जाएगा। और फिजा को इस्‍लाम धर्म में रहते हुए इद्दत करनी पड़ेगी। यानी हर हाल में एक औरत ही ठगी गई और यही सदियों से होता चला आ रहा है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक? कब तक हम कबीलाई समाज की मानसिकता का दामन थामे बैठे रहेंगे? आखिर कब ऐसा होगा जब औरत को इंसाफ के लिए गुहार नहीं लगानी पड़ेगी? क्‍या लगाम सिर्फ औरत के लिए है? आपकी प्रतिक्रियाओं और विचारों का इंतजार रहेगा!

Saturday, January 31, 2009

रसोई गैस पर डाका

गैस कीमतों को कम करने की बात कहकर सरकार भले ही आम आदमी को रिझाने का प्रयास कर रही हो लेकिन सच ये है कि गैस की कीमते कम कर देने भर से आम आदमी को राहत नहीं मिलेगी क्‍योंकि रसोई गैस वितरित करने वाला तंत्र ही भ्रष्‍ट हो चुका है। आम आदमी को न समय पर एलपीजी मिलती है, न ही उपभोक्‍ता काला बाजारी से बच पाता है। आम उपभोक्‍ता अधिक मूल्‍य देकर भी सिलेंडर में भरी एलपीजी की पूरी मात्रा को तरसता रहता है लेकिन उसकी कहीं सुनवाई नहीं। हांलाकि प्रशासन हमेशा यही कहता है कि कालाबाजारियों की ख्‍ौर नहीं। हद तो ये है कि गैस गोदाम पर आम आदमी को सिलेंडर लेने जाना पड़ता है और उसकी जेब से डिलीवरी का चार्ज भी निकलवा लिया जाता है।
लोहे की एक खोखली रोड से बनी एक डिबाइस आपको सप्‍लाई होने वाले गैस सिलेंडर से कुछ ही मिनटों में एलपीजी को एक दूसरे खाली सिलेंडर में पंहुचा देती है। जी हां! आपके घर पंहुचने से पहले ही गैस सिलेंडर को लूटा जा रहा है। गैस गोदाम से पूरे वजन का गैस सिलेंडर चलता है लेकिन डिलीवरीमेन रास्‍ते में ही चुपचाप उस एलपीजी सिलेंडर से दो-ढाई किलो गैस उड़ा देते हैं। इन के सधे हुए हाथ आसानी से गैस को दूसरे खाली सिलेंडर में ट्रांसफर कर देते हैं। पलक झपकते ही आपकी रसोई के लिए चले गैस सिलेंडर से दो से ढाई किलो गैस दूसरे सिलेंडर या मिनी एलपीजी सिलेंडर में भर दी जाती है। ऐसा नहीं है कि ये किसी एक शहर की कहानी हो; सच तो ये है कि हर शहर में गैस चोरी एक आम शिकायत है। इस कालाबाजारी को कोई और नहीं बल्कि एलपीजी गैस एजेंसी के कर्मचारी ही अंजाम देते हैं और अगर इन कर्मचारियों की बात सच है तो इस कालाबाजारी में एजेंसी मालिक की पूरी तरह मिलीभगत होती है। सच तो ये है कि डिलीवरी पर्सन को या तो वेतन मिलता ही नहीं और यदि कहीं मिलता भी है तो उसमें गुजारा संभव नहीं बल्कि ये शाम को हिसाब करते समय कालाबाजारी का हिस्‍सा एजेंसी म‍ालिकों को भी देते हैं।
हांलाकि उपभोक्‍ता को ये हक है कि वह एलपीजी सिलेंडर की डिलीवरी लेते समय डिलीवरी मैन को वजन चैक कराने को कहें लेकिन या तो वजन तोलने वाला वैलेंस इनके पास होता नहीं या खराब होता है और उपभोक्‍ता इसी से संतोष कर लेता है कि चलो देर से ही सही एलपीजी आ तो गई। लेकिन ये भी आंशिक सच है कि डिलीवरीमैन आप के घर सप्‍लाई लेकर पंहुच जाए। सच तो ये है कि या तो आधा-अधूरा सिलेंडर भी उपभोक्‍ता ब्‍लैक में खरीदने के लिए अभिशप्‍त हैं या फिर अक्‍सर ऐसा होता है कि डिलीवरीमैन न होने या कम होने का बहाना बनाकर ऐजेंसी संचालक ग्राहक को खुद ही गोदाम से गैस सिलेंडर ढो कर ले जाने को मजबूर करते हैं लेकिन कोई भी गैस एजेंसी ग्राहक से डिलीवरी चार्ज उस हालत में भी वसूलती है जब वह डिलीवरी देने में असमर्थ है। नियमानुसार गैस से भरे एलपीजी सिलेंडर को यदि उपभोक्‍ता सीधे गोदाम से ले तो उससे आठ रूपये डिलीवरी चार्ज नहीं वसूला जा सकता।
एलपीजी की किल्‍लत बनाकर या बताकर गैस ऐजेंसियों के संचालक जहां दोनों हाथों से अपनी जेबें गर्म कर रहे हैं वहीं प्रशासन के लोग अपनी जिम्‍मेदारी एक-दूसरे विभाग पर डालते रहते हैं। उपभोक्‍ताओं को जहां गैस समय पर नहीं मिल रही वहीं जिला प्रशासन तीन से चार दिन का बैकलॉग बताता है। मेरठ के जिला आपूर्ति अधिकारी वड़े गर्व से बताते हैं कि पिछले साल गैस की कालाबाजारी करने के चौंतीस मामलों में एफआईआर दर्ज कराई गई और सात सौ सिलेंडर जब्‍त करने के साथ ही कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं वहीं नौ गैसे ऐजेंसी मालिकों के खिलाफ जिलाधिकारी स्‍तर से एलपीजी सप्‍लाई करने वाली कंपनियों को कार्रवाई के लिए लिखा गया लेकिन इन कंपनियों ने कोई कार्रवाई नहीं की।
अब आप खुद समझ सकते हैं कि अगर आपकी रसोई में पंहुचने से पहले ही डिलीवरी पर्सन एलपीजी का कुछ हिस्‍सा पार कर देता है तो इसके लिए कौन और किस स्‍तर तक के लोग जिम्‍मेदार है। अधिकारी कहते हैं कि अगर गैस कम निकले तो उपभोक्‍ता फोरम में शिकायत की जाए लेकिन उन्‍हें ये कहते हुए शर्म नहीं आती वरना किसी उपभोक्‍ता को कंज्‍यूमर फोरम जाने की जरूरत ही क्‍यों पड़े।

Monday, January 26, 2009

गणतंत्र : घूंघट से निकले एक चेहरे के बहाने

मुझे इस गणतंत्र दिवस पर कई चेहरे याद आ रहे हैं। मेरे मन मस्तिष्‍क में उमड़-घुमड़ रहे हैं। इनमें से कुछ चेहरे देश के हैं, कुछ विदेश के और कुछ मेरे अपने शहर के। इनमें से कुछ आकृतियां मेरी मां जैसी हैं, कुछ बहिनों जैसी, कुछ सखियों जैसी और कुछ अंजान। ये तस्‍वीरें तो अलग-अलग हैं लेकिन इन उमड़ते-घुमड़ते चेहरों को मिलाकर जो आकृति बन रही है, उससे ठिठुरन और सिहरन बढ़ जाती है। मैने गणतंत्र के उनसठ साल तो अपनी आंखों से नहीं देखे लेकिन होशो-हवाश में पच्‍चीस सालों के बीच देखे गए कई चेहरे हैं। इनमें से मैं अपने ही शहर मेरठ के एक चेहरे का जिक्र कर रही हूं जो मेरे दिमाग को सबसे ज्‍यादा झकझोरता है।
ये चेहरा उस युवती का है जिसे मैने करीब बीस साल पहले गज भर घूंघट में चूल्‍हे पर रोटियां सेकते देखा था। टोकरा भर रोटियां सेकती, मुंह में फूंकनी लगाकर चूल्‍हे को हवा देती, चूल्‍हे से निकल रहे धुंए को अपनी आंखों में समाती यह युवती आज खुली हवा में उड़ान भर रही है। उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैने जब पहली बार संगीता राहुल (या कहिए कि उनके पति जगदीश, जो उस समय सभासद थे।) के घर दस्‍तक दी तब संगीता का यही रूप था। मेरे निमंत्रण पर उनके पति ने संगीता को मंच के कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी और धीरे-धीरे उसका घूंघट उठता चला गया। बाद में अपने वार्ड से संगीता सभासद चुनी गई और फिर उसने विधायक का चुनाव भी लड़ा। संगीता एक ऐसा चेहरा है जिसने हमारे साथ अपना सफर शून्‍य से शुरू किया और फिर आगे की गिनतियां गिनने का सिलसिला अनवरत जारी रखा। भले ही संगीता ने अपनी दिशा को राजनीतिक दिशा दे दी हो। महत्‍वाकांक्षाओं के पंख लग गए हों लेकिन फिर भी वह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा चेहरा है जिसने परिस्थितियों की चाहरदीवारी लांघकर उड़ना सीखा, सपने देखे और खुली हवा में सांस ली। मैं सोचती हूं कि आज भी हमारे इर्द-गिर्द की कितनी ऐसी महिलाएं हैं जिनके पति उन्‍हें गज भर घूंघट से निकलने की इजाजत देते हैं। अगर हम मुट्ठी भर शिक्षित परिवारों को छोड़ दें तो आज भी बहुतायत में ऐसी महिलाओं की ही संख्‍या ज्‍यादा है जिन्‍होंने अपने हौंसलों और अरमानों को चाहरदीवारी में कैद कर लिया है या वे इसके लिए अभिशप्‍त हैं। आजाद भारत में आज भी अधिकांश स्त्रियां दासी हैं। सामाजिक ढांचे में उनकी जुबान बंद रहती है और देह व मस्तिष्‍क हमेशा उत्‍पीड़ने के लिए तैयार।
ऐसा नहीं कि महिलाओं के उन्‍नयन के लिए हमारे देश की संसद ने कानून न बनाए हों। कुप्रथाओं व उत्‍पीड़न रोकने के लिए कागजों और किताबों में स्‍त्री सुरक्षा का चेहरा चाक-चौबंद है; पर हकीकत में तमाम कानूनों के बावजूद स्त्रियों को अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। वास्‍तविकता तो ये है कि स्‍त्री सबसे पहले अपने गर्भ में लड़की के लिए जगह ढूंढती है। सामान्‍यत: सब पहले लड़का ही चाहते हैं। अधिकांश घरों में भी तो लड़कों को ही वरीयता मिलती है। मुद्दा चाहे खानपान का हो, रहन-सहन का या शिक्षा का; परिवारों में इस तरह का भेद लड़कियों को मन ही मन छोटा कर देता है। यह विडम्‍बना ही है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्‍थापित किए जाने के बाद भी लड़का या लड़की होना पुरूष के योगदान पर निर्भर करता है, बेटिया पैदा करने के लिए स्‍त्री ही प्रताडि़त होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनियां में अगर न्‍याय का कोई एक विश्‍वव्‍यापी संघर्ष है तो वह नारी के लिए न्‍याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्‍यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है तो वह स्‍त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्‍यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरूष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्‍या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि स्‍त्री की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।
यदि शास्‍त्रार्थ में न जाएं तो इतना बताना जरूरी है कि किसी भी स्‍त्री के व्‍यक्तित्‍व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्‍यता या समाज-व्‍यवस्‍था की कृपा का परिणाम नहीं हैं। उल्‍टे स्‍त्री के स्‍नेहमयी और ममतामयी व्‍यक्तित्‍व का हनन हर सभ्‍यता का सबसे बड़ा खोखलापन है। हर देशकाल में स्‍त्री को नए सिरे से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। स्‍त्री के पास निर्णय लेने की क्षमता न होने की वजह से परिवारों में सारे फैंसले पुरूष ही करते हैं।
स्‍त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। सिर्फ कानूनों के भरोसे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्‍यादा है।
मेरा यह लेख दैनिक आई नेक्‍स्‍ट में प्रकाशित हुआ है।

Monday, January 19, 2009

मीठा जहर

आज से इर्द-गिर्द पर हमारे साथ एक और साथी जुड़ रही हैं। हिमा अग्रवाल एक तेजतर्रार पत्रकार हैं और उन जगहों पर जाकर रिपोर्टिंग करती हैं जहां पुरुष भी जाने में कतराते हैं। सामाजिक सरोकारों और आम आदमी से जुड़े मुद्दों की गहरे से पड़ताल करने वाली हिमा अग्रवाल का स्‍वागत करेंगे तो अच्‍छा लगेगा। ----हरि जोशी----
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सर्दियां शबाव पर हों तो मेरठ की रेवड़ी-गजक की बहार आ जाती है। जी हां! गुड़ और गुड़ से बने व्‍यंजन सर्दियों में पूरे देश की पसंद है। लेकिन गुड़ और उससे बनी मिठाइयां खाने से पहले जरा सोच लीजिए क्‍योंकि हर्बल औषधि माने जाना वाला गुड़ आपके लिए धीमा जहर भी हो सकता है। हम आपको बताएंगे कि क्‍यों गुड़ हो सकता है धीमा जहर और कैसे परखें फायदेमंद गुड़।
मक्‍के की रोटी सरसों के साग और गुड़ के साथ खाते समय जो जायका आता है उसका मजा शायद आप भी लेते हों। अगर किसी पार्टी में आजकल मक्‍खन के साथ सरसों का साग, मक्‍के की रोटी और गुड़ न हो तो लगता है कि दावत में कुछ खास था ही नहीं। लेकिन गुड़ खाते समय गुड़ की सूरत नहीं सीरत को देखिए। जी हां। गरीबों का मेवा और सेहत के लिए फायदेमंद माने जाने वाला गुड़ आपकी सेहत के लिए नुकसानदायक ही नहीं बल्कि धीमा जहर भी साबित हो सकता है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में घुसते ही गन्‍ने और गुड़ की मिठास भरी खुशबु आपका स्‍वागत करती है। यहां हर गांव/गली में कोल्‍हू चलते हैं और भट्टियों पर रस पककर गुड़ बनता है और देश भर में यहां की मंडियों के जरिए देश भर में बिकने के लिए चला जाता है। इसी गुड़ से बनी रेवड़ी और गजक का जायका अब सात समंदर पार भी पंहुच गया है। मेरठ की रेवड़ी और गजक का नाम सुनकर मुंह में जायका घुल जाता है। लेकिन सावधान! आप बाजार से कौन सा गुड़ खरीद रहे हैं। या किस गुड़ से बनी रेवड़ी-गजक? गुड़ की सूरत खरीदकर गुड़ मत खरीदिये। गुड़ और रेवड़ी-गजक बनाने वाले इन हुनरमंद कारीगरों की बात माने तो अगर गुड़ बनाने के लिए गन्‍ने का रस साफ करने के लिए खतरनाक रसायन इस्‍तेमाल न किए जाएं तो बाजार में उस गुड़ की कीमत कम मिलती है, जबकि वनस्‍पतियों से गन्‍ने का रस साफ कर गुड़ बनाने में मेहनत अधिक लगती है और लागत भी अधिक लगती है। ग्राहक चाहता है पीला या केसरिया चमकदार गुड़ और उसे तैयार करने के लिए अकार्बनिक रसायनों और रंगों का इस्‍तेमाल करना पड़ता है। साथ ही इस गुड़ के दाम भी मंडियों में अच्‍छे मिलते हैं।
एक समय था जब सुकलाई नाम की वनस्‍पति या अरंडी के तेल से गन्‍ने के रस को साफ किया जाता था लेकिन धीरे-धीरे उसकी जगह अकार्बनिक रसायनों ने ले ली। ब्‍लीचिंग एजेंट के रूप में हाइड्रोजन सल्‍फर ऑक्‍साइड, लिक्विड अमोनिया, यूरिया और सुपर फास्‍फेट खाद जैसी अखाद्य चीजों का इस्‍तेमाल होने लगा। सस्‍ते पड़ने वाले अकार्बनिक रसायन जहां गुड़ निर्माताओं के लिए आर्थिक तौर पर फायदे का सौदा था वहीं उनकी मेहनत भी कम लगती थी और देखने में गुड़ का रंग चमकदार पीला या केसरिया मिलता था जबकि परंपरागत वनस्‍पतियों की मदद से बना गुड़ कालापन लिए हुए आकर्षणहीन होता है। आप खुद देखिए कि गुड़ बनाते समय रस साफ करने के लिए इस कोल्‍हु पर सफेद रंग का पाउडर किस तरह डाला जा रहा है। खास बात ये है कि गुड़ बनाने वाले कारीगर इन अकार्बनिक रसायनों के नाम तक भी ठीक से नहीं जानते। इन्‍हें तो यही मालूम है कि हाइड्रो और पपड़ी से गुड़ का रंग निखर जाता है। इन्‍हें सिर्फ इतना मालूम है कि बाजार में किस रंग का गुड़ बिकता है और उसकी कहां मांग है। इन्‍हें मानकों का भी पता नहीं क्‍योंकि ये तो बस अपना काम अनुभव और अनुमानों के आधार पर करते हैं। मानकों के मुताबिक गुड़ में यदि ब्‍लीचिंग एजेंट का इस्‍तेमाल किया भी जाए ता उसमें सल्‍फर की मात्रा 70 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। लेकिन इनको क्‍या मालूम कि पीपीएम क्‍या होता है। इसलिए आज तक यहां का कोई गुड़ प्रयोगशाला में मानको पर खरा नहीं उतरा।
गुड़ बनाने वाले और बेचने वाले दोनों जानते हैं कि अकार्बनिक रसायनों का इस्‍तेमाल कर बनाया गया गुड़ सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक है लेकिन बाजार में लोग पीला, केसरिया और चमकदार गुड़ चा‍हते हैं। परंपरागत तरीके से बने गुड़ का रंग और सूरत उन्‍हें पसंद नहीं आती। गुजरात की पसंद अलग है तो राजस्‍थान की अलग और माल वही बिकता है जिसकी डिमांड होती है। भले ही वह धीमा जहर क्‍यों न हो। अब आप खुद ही तय कर लीजिए कि एशिया में गुड़ की सबसे बड़ी मुजफ्फरनगर मंडी या हापुड़ मंडी से आपके शहर में पंहुचा गुड़ खरीदते समय उसका रंग-रूप देखते हैं या सेहत के लिए लाभकारी मटमैला भूरा गुड़ चुनते हैं।

Saturday, January 17, 2009

एक और दामिनी

दामिनी सिर्फ मुंबईया फिल्‍म की एक पात्र ही नहीं बल्कि आज के समाज की कड़वी हकीकत है। ऐसी ही एक गैंग रेप की शिकार युवती एक बार फिर अपने ससुरालियों से छली गई। इस दामिनी के ससुरालियों ने उसकी अस्‍मत लूटने वालों से ही सत्‍तरह लाख रूपये में अस्‍मत का सौदा कर लिया। अब मेरठ की ये दामिनी दोराहे पर खड़ी है और अपनी अस्‍मत लूटने वालों को हर हालत में कानून से सजा दिलाना चा‍हती है। उसने ससुराल की दहलीज लांघ दी है और इंसाफ के लिए हुक्‍मरानों की दहलीज पर फरियाद की है। देखना है कि इस दामिनी को इंसाफ मिलता है या ये व्‍यवस्‍था के नक्‍कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है।
गैंग रेप की शिकार एक युवती की बेबसी अब आंखों से झर-झर बहने लगी है। ये वही युवती है जिसके साथ करीब दो साल पहले मेरठ के एक नामी-गिरामी नर्सिंग होम में सामुहिक दुराचार हुआ था। जिस नर्सिंग होम में वह अपनी जीवन रक्षा के लिए आईसीयू में भर्ती थी, वहीं के रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत को तार-तार कर दिया था। इस घटना से गुस्‍साई जनता ने नर्सिंग होम में जमकर उत्‍पात मचाया था और बाद में नर्सिंग होम सील कर दिया गया था। तब से आज तक ये युवती इंसाफ के लिए लड़ रही है लेकिन अब फिर एक बार ये छली गई है। तब रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत तार-तार की थी और अब इस युवती के उन अपनों ने इसकी अस्‍मत का सौदा किया है जो इसे अपनी बहु बनाकर ले गए थे। फर्क इतना है कि जीवन रक्षकों को इस युवती की अस्‍मत लूटने के लिए नशे का इंजेक्‍शन देना पड़ा था और ससुरालियों ने इसके होशोहवास में इसकी अस्‍मत की कीमत लगाई सत्‍तरह लाख रूपये। जी हां! सत्‍तरह लाख रूपये में दुराचारियों से अपनी गृहलक्ष्‍मी की अस्‍मत का सौदा करने वाले पति परमेश्‍वर और ससुरालिए इस युवती को घर से इसलिए धक्‍का दे चुके हैं क्‍योंकि ये हर हाल में दुराचारियों को सलाखों के पीछे देखना चाहती है।
नर्सिंग होम की शिकार युवती और उसके परिजनों को क्‍या मालूम था कि जो परिवार इस हादसे के बाद देवतुल्‍य होकर आएगा, वही बाद में पिशाच यौनि में तब्‍दील होकर सामने खड़ा मिलेगा। निधि की शादी हापुड़ के शैलजा बिहार के सुमित से बीती 15 फरवरी को हुई थी और शादी के वक्‍त दूल्‍हे राजा ने वचन दिया था कि कभी भी वह निधि को उस हादसे की याद नहीं दिलाएगा। कभी उसे प्रताडि़त नहीं करेगा लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उसे जलील किया जाने लगा। उस पर दबाव बनाया जाने लगा कि वह मायके से पांच लाख रूपये लेकर आए जबकि निधि के घरवालों ने शादी में अपनी हैसियत से अधिक दस लाख रूपया खर्च किया था। इसी बीच सुमित और उसके घरवालों ने निधि के दुराचारियों से सत्‍तरह लाख रूपये में उसकी अस्‍मत का सौदा कर लिया और निधि से दुराचारियों को अदालत में क्‍लीन चिट देने को कहा तो वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। दुराचारियों के बाद अपने ही ससुरालियों के अत्‍याचारों की शिकार युवती अब दुराचारियों के साथ-साथ अत्‍याचारी पति और ससुरालियों के खिलाफ भी उठ खड़ी हुई है। उसने मेरठ के आला अफसरों के यहां गुहार लगाकर इंसाफ दिलाने की मांग की है। फिलहाल निधि के चार दुराचारियों में से दो जेल में है जबकि षड्यंत्र में शामिल दो लोगों को जमानत मिल गई है और अदालत में निधि के बयान हो चुके हैं। देखना है कि इतने दबावों के बीच निधि की जंग का क्‍या परिणाम निकलता है और आला अफसरों के सामने लगाई गई गुहार आरोपियों और ससुरालियों पर कितनी लगाम लगा पाती है।

Tuesday, January 13, 2009

उपन्‍यास अंश : धुंआ और चीखें

कथाकार-व्‍यंग्‍यकार दामोदर दत्‍त दीक्षित को उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान ने 'प्रेमचंद सम्‍मान' प्रदान करने की घोषणा की है। ये सम्‍मान उन्‍हें भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके उपन्‍यास धुंआ और चीखें के लिए दिया जा रहा है जिसमें उन्‍हें उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान की तरफ से बीस हजार रूपये की पुरस्‍कार राशि दी जाएगी। इससे पूर्व उनके इसी उपन्‍यास के लिए राजस्‍थान का प्रतिष्ठित आचार्य निरंजननाथ सम्‍मान प्रदान किया जा चुका है। दामोदर दत्‍त दीक्षित इन दिनों मेरठ में उप चीनी आयुक्‍त के पद पर कार्यरत हैं। इर्द-गिर्द की तरफ से दामोदर जी को शुभकामनाएं। हम यहां उनके पुरस्‍कृत उपन्‍यास का एक अंश प्रस्‍तुत कर रहें हैं-



बन्‍नू पर नए-नए दौर तारी। पहले हिंसा-घृणा का दौर, फिर लिप्‍सा-लोभ का दौर और अब आया मुहाजिरों (शरणार्थियों) का दौर! सरहद पार हिंदुस्‍तान से थके मांदे, लुटे-पिटे, उजड़े-बिखरे मुहाजिरों के झुण्‍ड-के-झुण्‍ड आ रहे थे और नवोदित पाकिस्‍तान में यत्र-तत्र-सर्वत्र बसाए जा रहे थे। चर्चा के केंद्र में अब मुहाजि़र थे।
जुमे के रोज मीर आलम खां जुहर (दोपहर) की नमाज पढ़कर घर आ रहे थे कि ढपकती चाल में अलादाद खां दिखे। धाराप्रवाह गालियां चाल पर पुख्‍तगी से हावी।
'सलाम आले कुम' का जवाब 'वाले कुम सलाम' में पा चुकने के बाद मीर आलम खां ने हंसते हुए कहा, ''अरे म्‍यां, नमाज से फुर्सत मिलते ही किसकी मां-बहिन न्‍योतना शुरू कर दिया। अल्‍लाह के नाम पर मल्‍लाही ठीक नहीं।''
अलादाद खां रास्‍ता छेंककर खड़े हो गए।
''क्‍या बताउं मीर भाई! ये जो बहन.... मुहाजिर आए हैं, उन्‍होंने नकदम कर रखा है। ये समझो बिस्मिल्‍लाह ही गलत हो गया।''
''आलू भाई कुछ बताओगे भी या पहेली ही बुझाते रहोगे?" वह थोड़ा पिछड़कर खड़े हो गए जिससे अलादाद खां की बदबुदार सांस से निजात मिल सके।
''मेरे बगल में जगदीश फलवाला रहता था- अरे वही मोटी तोंद वाला हंसोड़ गंजा जिसका चेहरा फिल्‍मी कलाकार गोप से मिलता था। उसका पांच कमरों का घर था जिसे बने हुए पूरे तीन साल भी नहीं हुए होंगे। जगदीश के भागने के बाद मैने दोनों घरों के बीच दरवाजा फोड़ लिया और मय बीबी-बच्‍चों के उसके घर चला गया। अपने घर में कारखाना फैला लिया। पहले उसी मकान में घर, उसी में कारखाना था। जगह की बहुत तंगी हुआ करती थी।'' उसने मुंह ऐसे सिकोड़ा जैसे जगह की तंगी चेहरे पर उतर आई हो।
''.....और हुकूमत नें जगदीश का घर तुमसे खाली कराकर किसी मुहाजिर को दे दिया है। यही समस्‍या है न तुम्‍हारी?'' उसने अलादाद खां के बाएं कंधे पर दायां हाथ रखकर हौले से हिला दिया। ओठों पर मुस्‍कराहट, भवों पर तंज तैर रहा था।
कंधे पर हाथ रखने को सहानुभूतिक आयाम मानकर वह उत्‍साहित स्‍वर में बोले, '' सही फरमाया आपने। पर केवल यही दाद नहीं, खाज भी है। केले के पत्‍ते की तरह तकलीफ से तकलीफ निकल रही है। शुरू में तो जगदीश का मकान खाली करने से साफ इंकार कर दिया मैने। एक दिन सुबह दारोगा चंद सिपाहियों के साथ आ धमका। बेंत से पीटने लगा मुझे, जनानियों को भद्दी-भद्दी गालियां दीं, उनके साथ धक्‍कामुक्‍की की और हमारा सामान बाहर फिंकवाने लगा। बदन पोर-पोर दुख रहा था। हल्‍दी-चूना मलने के बावजूद कमर की सूजन आज तक नहीं गई।''
उन्‍होंने दाएं हाथ की तर्जनी कमर में चुभाई और प्रमाणस्‍वरूप कराह उठे।
''खां साहब, आपकी धुनाई भी तो कहीं इतिहास का हिस्‍सा नहीं बन गई।''
''आपको हंसी-ठट्ठा सूझ रहा है, यहां जान पर बन आई है। पहले पूरी बात तो सुनिए। हरामी मादर.... पुलिस वालों ने शरीर पर ही नहीं गांठ पर भी चोट की। दोनों घरों के बीच जो दरवाजा फोड़ा था, उस जगह को चिनवाने के नाम पर पैसे भी वसूले- इतने कि उतने में पूरी दीवार बनकर खड़ी हो जाए।'' उंची आवाज में कराहते हुए उसने अपनी नन्‍हीं आंखों को दूना विस्‍तार दिया।
''बड़े पाजी निकले पुलिसवाले। टूटी कमर पर और बोझ डाल दिया। चच्‍च....च्‍चच्‍च....''
''उधर जो मुहाजिर पड़ोसी मिले, वे बड़े ही शातिर और जालिम निकले।''
''क्‍या उनसे भी टण्‍टा हुआ?"
"उनका लौंडा है- गबरू जवान। पचीस के आस-पास होगा। एक दिन छत से झांक रहा था। मना किया कि मत झांका करो, जनानियां रहती हैं मेरे घर में। उसने आव देखा न ताव, मुक्‍का तानकर धमकाने लगा, ''ए मियां, ज्‍यादा टिपिर-टिपिर मत कर। जान हथेली पर लेकर यहां तक आया हूं। मुझे अपनी जान की रोएं भर भी परवाह नहीं। ज्‍यादा टोका-टाकी की तो तरबूज की तरह पेट चीर दूंगा। छह खून के तोहफे हिंदुस्‍तान को दिए तो एक पाकिस्‍तान को भी। मैं लल्‍लू-पंजू मुहाजिर नहीं कि धौंस बर्दाश्‍त करूं। समझे? नहीं समझे? उसकी फारसी सुनकर मुझे तो गश आ गया।''
''तौबा-तौबा....।''
''मुझे टिकाकर कमरे में ले जाया गया। मुंह पर छींटे मारे गए, तब कहीं जाकर होश आया। तब से सारा परिवार सहमा हुआ है। दिन-रात यही चिंता कि शैतान इब्‍लीस जाने कब छत से कूद पड़े और चाकू पेल दे।''
धंधा भले ही असलहों का हो, पर कंधा अलादाद खां का कमजोर था। हां, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने का उन्‍हें अच्‍छा अभ्‍यास था। वह थे भी वजीर कबीले के जिसके लिए कहा जाता है कि वह सामने से नहीं, पीछे से वार करता है।
मीर आलम खां को पुराने दिन याद आ गए, ''खां साहब, आप दुहाई देते फिरते थे कि खतरा काफिर हिंदुओं की ओर से है, यह मुसलमान से खतरा किस रास्‍ते से आ टपका? मेरे भाई, सच तो यह है कि खुदा सब कुछ देखता है। सब कुछ सुनता भी है। वह करनी का फल भी देता है- भले ही देर हो जाए। आपको अपने पापों का फल मिल रहा है- अपने नामाराशी की तरह।''
''नामाराशी? मेरा नामाराशी? कौन मेरा नामाराशी?''
''वही मशहूर डिप्‍टी कमिश्‍नर निकल्‍सन के समय का अलादाद खां। उसका किस्‍सा पता नहीं?"
"नहीं पता मुझे।"
''क्‍यों पता हो? इतिहास तुम्‍हारे लिए बादशाहों, महाराजों और नवाबों की लड़ाइयों और रंगरेलियों तक ही सीमित है। पर अपने नामाराशी का किस्‍सा सुन लो। उस अलादाद खां ने अपने भतीजे की भूमि हड़प ली थी। भतीजे ने डिप्‍टी कमिश्‍नर मेजर जॉन निकल्‍सन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। एक सुबह लोग क्‍या देखते हैं कि निकल्‍सन साहब एक पेड़ से बधे हैं। लोग दौड़ पड़े। अलादाद खां भी। निकल्‍सन साहब ने तुर्शी से सवाल किया, ''ये जमीन किसकी है?" अलादाद खां ने यह सोचते हुए कि जिसकी जमीन है, उसे द‍ंडित किया जाएगा, कहा, '' हुजूर-ए-आला यह जमीन मेरी नहीं है। मेरे भतीजे की है।'' निकल्‍सन साहब को बांछित साक्ष्‍य मिल गया था। अगली सुनवाई की तिथि में उन्‍होंने भतीजे के पक्ष में निर्णय दे दिया और लोभी अलादाद खां को दंडित किया। उस लोभी की तरह तुम्‍हें भी सबक मिल रहा है।''
जॉन निकल्‍सन सत्रह साल की उम्र में ईस्‍ट इंडिया कंपनी की बंगाल नैटिव इन्‍फैंट्री में कैडेट के रूप में भरती हुए थे, पर अपने परिश्रम के बल पर फौज के उच्‍च पद तक पहुंचे। सख्‍त प्रशासक के रूप में ख्‍याति थी उनकी। यहां तक कि माएं अपने बच्‍चों को यह कहकर डराती थीं, ''चुप हो जा वरना 'निक्‍कल सेन साहब' पकड़ कर ले जाएंगे।''
एक बार उन्‍हें पता चला कि फौजी अफसरों के भोजन में रसोइयों ने जहर मिला दिया है। उन्‍होंने तब तक भोजन नहीं किया जब तक कि रसोइयों को फांसी नहीं दे दी गई। 1857 की क्रांति के दौरान वह पंजाब से फौज लेकर दिल्‍ली पहुंचे। युद्ध में घायल होने के फलस्‍वरूप सितंबर, 1857 में दिल्‍ली में आर्मी कैंप में ही उनकी मृत्‍यु हुई।
अलादाद ने चिंतित स्‍वर में कहा, ''निक्‍कल सेन साहब अठारह सौ सत्‍तावन की गदर में मर-खप गए, पर मैं तो जिंदा हूं। सलाह दो कि क्‍या करूं। चुगद मुहाजिर मेरी ऐसी-तैसी करने में लगा हुआ है। बीबी की आबरू, बच्‍चों की जान खतरे में है। जगदीश को छत पर आना होता तो खांस-खंखार कर आने का संकेत दे देता। जनानियां परदे में हो जाया करतीं। आदमी हीरा था--हीरा!"
"...जो आप जैसे कच्‍चे कोयले की संगत में पड़ गया।''
''क्‍या बताएं, भाई!"
"बताओ नहीं, भुगतो। भूल गए वे दिन जब गुण्‍डों की सलवार में घुसकर कहते थे कि सारे हिंदुओं का सफाया हो रहा है, पर मेरे जगदीश को कोई क्‍यों हाथ नहीं लगाता? अब उस पर प्‍यार उमड़ रहा है। ये कहो मैं न निकालता तो तुम उसे इस दीन-जहान से उठा चुके होते। सच तो यह है कि तुम निहायत खुदगर्ज, तंगदिल और टुच्‍चे हो-- इंसानियत के नाम पर स्‍याह धब्‍बा। मुहाजिर तुम्‍हारे साथ जैसा सुलूक कर रहे हैं, तु उसी के लायक हो?"
मीर आलम खां ने अलादाद खां को तीखी नजरों से घूरा और चल दिए। पीछे-पीछे जावेद भी।
अलादाद खां कुछ क्षणों तक ठगे से उन्‍हें जाते देखते रहे, फिर निगाह उपर उठाई। मस्जिद की मीनारों पर धूप अब भी चमक रही थी।
बात अलादाद खां की ही नहीं थी। इकराम, मुहम्‍मद ईसा, मुहम्‍मद अमीन, जियाउद्दीन जैसे बहुत से लोग थे जिन्‍हें हथियाये गए मकानों से बेदखल होना पड़ा था और 'लौट के बुद्धु घर को आए' जैसी स्थिति हो गई थी। पर बहुत से प्रभावशाली व्‍यक्तियों ने यहां भी नियम-कानून को धता बता दिया था और हुक्‍काम की हथेली गरम कर हड़पी संपत्ति बचा ले गए थे।

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शाम होते ही शहर अंगड़ाइयों लेकर जमुहाई लेने लगा। जैसे वायु निर्वात की ओर बगटुट भागती है, वैसे ही सर्दी शरीर को रोम-रोम वेधने की फिराक में थी। घिरते अंधेरे ने सर्दी में भयावहता घोल दी थी। सड़क के किनारे गठरी दिखाई दी जिसे कुत्‍ता सूंघ रहा था। करीब आने पर पता चला कि यह गठरी न होकर सिमटा-सिकुड़ा आदमी है। कुत्‍ते को उसके कपड़ों में रोटी की तलाश थी या वह उसकी दुर्दशा पर सहानुभूति प्रकट कर रहा था, कहना कठिन था।
धुंधली आकृति उभरी-- आधा गंजा सिर, बढ़ी हुई दाढ़ी, छोटी-छोटी आंखें गड्डे में धंसी हुईं। नीचे का शरीर फटे कंबल से ढका हुआ। अरे, यह तो अब्‍दुल गनी हैं--शेरू के पिता।
मीर आलम खां ने आवाज दी, ''गनी भाई!"
कोई उत्‍तर नहीं। अपना कान उनके मुंह तक ले गयाफ श्‍वसनक्रिया चालू, पर घरघराहट के साथ। जैसे गले में कुछ फंस रहा हो। मिरगी का दौरा है या किसी अन्‍य व्‍याधि के साथ आई अचेतावस्‍‍था।
इकलौता बेटा शेरू जीवित था, तो अब्‍दुल गनी को किसी चीज की कमी न थी। वह गुण्‍डागर्दी से काफी कमा लेता था। अगर जेल चला जाता, तो भी पिता अर्जित संपत्ति को धीरे-धीर कुतरते रहते। पर शेरू की हत्‍या के बाद स्थिति दयनीय होती चली गई। जीविका का एकमात्र साधन घर के अगले हिस्‍से में स्थित दुकान थी जिसके देर-सबेर मिलने वाले आधे-धोधे किराए से बमुश्किल गुजर-बसर होती थी। आंखों की कमजोर रोशनी के कारण वह कोई काम करने की स्थिति में न थे।
मुहाजिरों की चीटिंयों जैसी अटूट पांत बन्‍नू आई। एक मुहाजिर परिवार अब्‍दुल गनी के बगल वाले घर में बसाया गया। मुहाजिर ने कुछ समय बाद अपने भाई को अब्‍दुल गनी के घर में बसा दिया। अब्‍दुल गनी घर के बाहरी बरामदे में सिमटकर रह गए। बन्‍नू के जेहाद के हीरो शेरू के अब्‍बा हुजूर के साथ एक हममजहब द्वारा की गई ज्‍या‍दती के खिलाफ किसी हममजहब ने आवाज नहीं उठाई।
जेहाद का मतलब किसी के लिए कुछ भी रहा हो, अब्‍दुल गनी के लिए यह था कि इकलौते बेटे को एकमात्र सहारा भी जाता रहा था और स्‍वयं घर से बेघर होकर भिखमंगे की परिधि में आ गए थे। इन जुड़वां सौगातों को अपनी नीमअंधी आंखों के साथ अकेला ही ढोना था। न तो नवाब साहब आगे आए, न ही जियाउद्दीन और अलादाद खां जैसे जेहादी जिन्‍होंने शेरू को भड़काया था और भरपूर इस्‍तेमाल किया था। अब्‍दुल गनी शेरू की शहादत का हवाला देकर फरियाद करते, पर लोगों के पास उनका दुखड़ा सुनने का, सहायता करने का अथवा सहानुभूति के दो शब्‍द उचारने का भी वक्‍त न था।
मीर आलम खां का शेरू के प्रति घृणाभाव रहा था, पर उसके कुकृत्‍यों का दंड बाप को देना एक दूसरा कुकृत्‍य लगा। दो दोस्‍तों और जावेद की सहायता से अब्‍दुल नी को चारपाई पर लिटाकर अपने घर ले आए। आग जलाकर उनके शरीर में हरारत और जुम्बिश पैदा की। चम्‍मच से चाय पिलाते समय वह ऐसे लग रहे थे जैसे अबोध, निश्‍छल शिशु।
अगली सुबह डाक्‍टर को दिखाया गया। डाक्‍टर ने दवा दी। नीमबेहोशी दूर हुई, बलगम में कमी आई, बुखार भी कम हुआ। पर तीसरे दिन तबियत बिगड़ गई। डाक्‍टर की दवा और मीर आलम खां की दुआ के बावजूद वह बच नहीं सके।
दफनाने के समय भी शेरू का इस्‍तेमाल करने वाले नहीं पंहुचे।

पुरालेख

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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